अमरनाथ सोनी अमर

गीत- मन! 
2122,2122,

क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन! 
यार सुन लो, जान कर मन!! 

ना  भरोषा,  कर  किसी  का! 
सत्य   कहता   हूँ,   सलीका! 
देत धोखा,   हर  समय  मन! 
क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन!! 

झूँठ  का   तुम,   ले   सहारा! 
सत्य का  तुम,  कर  किनारा! 
मान लो अब आज, तुम मन! 
क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन!! 

है   जमाना,  झूँठ  का  यह! 
है   दिखाना,  दंभ  का  यह! 
दे  भरोषा,  आज  तुम  मन! 
क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन!! 

याद कर  लो, यार  अब तुम! 
भूलना अब, कुछ  नहीं  तुम! 
ना  भरोषा, कर  किसी  मन! 
क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन!! 

फँस गये  हो,  जाल  में  तुम! 
क्यों  बुरे  से,  हाल  में   तुम! 
हो  गये,  हुशियार  अब  मन! 
क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन!! 


अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662

डाॅ० निधि मिश्रा

*यामिनी ने करवट में काटी* 

यामिनी ने करवट में काटी, 
अम्बर तल पर निशा सगरी, 
झुरमुट तारों के बीच बैठ, 
देखती रही विरहा बदरी ।

स्निग्ध चन्द्र धुधला सा गया, 
हिय पीर समा पराई गई। 
अति कौतुक भौरा चूम गया, 
प्रसून कली शरमाई गई।

झन झन झींगुर झनकार रहे, 
तट तरनी किरनें नाच रहीं। 
इठलाय चली धारा नद की, 
मिलन की आस पिय राह वहीं।

शशि भाल सुशोभित हैं नभ के, 
तारागण बिखरे स्वागत में। 
पिय योग वियोग,सुयोग नहीं, 
यामिनी जलती चाँदनी में।

यामिनी सजी शशि किरनों से, 
दिन सज्जित हुआ रवि रश्मि से,
दिन-रैन मिलन बस पल भर है,
हिय टीस मिटे न दोउ मन से।

स्वरचित- 
डाॅ०निधि मिश्रा ,
अकबरपुर ,अम्बेडकरनगर ।

एस के कपूर श्री हंस

*।।यूँ ही नहीं किस्मत मेहरबान*
*बनती है जिंदगी में।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
यूँ ही नहीं    कोई  कहानी 
बनती जिन्दगी में।
यूँ ही नहीं कामयाब रवानी
बनती    ज़िंदगी में।।
तराशना पड़ता     है    खुद
हाथ की लकीरों को।
यूँ ही नहीं किस्मत   दीवानी
बनती जिन्दगी में।।
2
यूँ ही नहीं नाम होता है   जा
कर दुनिया         में।
यूँ ही नहीं हर गली में सलाम
होता       दुनिया में।।
जुबान दिल  दिमाग हाथों से
जीतना   होता   है।
यूँ ही नहीं हर लफ़्ज़   पैगाम
होता    दुनिया    में।।
3
हर जख्म के लिए शफ़ा नहीं
नमक होना    चाहिये।
तेरे चेहरे पर इक़ अलग तेज़
दमक होना    चाहिये।।
यह दुनिया यूँ ही नहीं  मुरीद
बनती है    किसी की।
तेरी निगाहों में कुछ    अलग
नूरोचमक होना चाहिये।।


*।।विषय     आषाढ़ के बादल।।*

*।।शीर्षक    आषाढ़ की    प्रथम*
*वर्षा, धरती और अन्नदाता दोनों*
*का मन हर्षा।।*

देख कर    बादल    आषाढ़  के
धरती में आ जाती है नई चमक।
कतरे कतरे में उत्पन्न    हो जाती
है एक      नव    नवीन    दमक।।
धरती का पालन पोषण होता है
केवल    मूसलाधार   वर्षा से ही।
इस पवित्र पावन धरती माता से
ही प्राप्त होता है फलअन्न नमक।।

बारिश से ही कृषक का घर और
आशा  जीवित    रहती          है।
किसान की फसल   सदैव  जल
की ही  पुकार    कहती          है।।
बादल भी बरसें केवल     अपनी
सीमा में तो रहता   है       अच्छा।
वरनाअन्नदाता किसान अन्नपूर्णा
धरती दोनों की आशा   बहती है।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।        9897071046
                      8218685464
दिनाँक।।      28      06       2021
*प्रमाणित किया जाता है कि रचना मेरी*
*स्वरचित।मौलिक।अप्रकाशित।स्वाधिकृत है।*

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-2
क्रमशः.........*दूसरा अध्याय*
धरम-जुद्ध अह छत्री-कर्मा।
नहिं हे पार्थ औरु कछु धर्मा।।
     अवसर धरम-जुद्ध नहिं खोवै।
     सो छत्री बड़ भागी होवै।।
जदि नहिं करउ धरम-संग्रामा।
होय जनम तव नहिं कछु कामा।।
      कीरति-सीरति खोइ क सगरी।
      ढोइबो पाप क निज सिर गठरी।।
अपकीरति अरु पाप-कलंका।
मरन समान होय,नहिं संका।।
      तुम्ह सम पुरुष होय महनीया।
      बीर धनुर्धर  अरु  पुजनीया।।
निंदा-पात्र न होवहु पारथ।
धर्म-जुद्ध कुरु तुम्ह निःस्वारथ।।
     समर-मृत्यु सुनु,स्वर्ग समाना।।
     महि-सुख-भोग,बिजय-सम्माना।।
दृढ़-प्रतिग्य हो करउ लराई।
करउ सुफल निज जनम कमाई।।
      सुख-दुख औरु लाभ अरु हानी।
       बिजय-पराजय एक समानी।।
समुझि उठहु तुम्ह हे कौन्तेया।
लउ न पाप कै निज सिर श्रेया।।
       जनम-मरन-बंधन जन मुक्ता।
       करहिं कर्म निष्काम प्रयुक्ता।।
कर्म सकाम करहिं अग्यानी।
इन्हकर बुधि बहु भेद बखानी।।
        निस्चय बुधि, निष्कामहि कर्मी।
        अस ग्यानी जन होवहिं धर्मी।।
दोहा-निस्चय कारक एक बुधि,करै जगत-कल्यान।
        सुनहु पार्थ,निष्काम जन,होवहिं परम महान।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       9919446372       क्रमशः..........

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल ----

देख लेता हूँ तुम्हें ख़्वाब में सोते-सोते
चैन मिलता है शब-ए-हिज्र में रोते-रोते

इक ज़रा भीड़ में चेहरा तो दिखा था उसका
रह गई उससे मुलाकात यूँ होते -होते

इक तिरे ग़म के सिवा और बचा ही क्या है
बच गई आज ये सौगात भी खोते-खोते


प्यार फलने ही नहीं देते बबूलों के शजर
थक गये हम तो यहाँ प्यार को बोते-बोते

बेवफ़ा कह के चिढ़ाता है ज़माना उसको
 मर ही जाये न वो इस बोझ को ढोते-ढोते

इतना दीवाना बनाया है किसी ने मुझको
प्यार की झील में खाता रहा गोते-गोते

ऐसा इल्ज़ामे-तबाही ये लगाया उसने
मुद्दतें हो गईं इस दाग़ को धोते-धोते

आ गया फिर कोई गुलशन में  शिकारी शायद
हर तरफ़ दिख रहे आकाश में तोते-तोते

तेरे जैसा ही कोई शख़्स मिला था *साग़र*
बच गये हम तो किसी और के होते-होते

🖊विनय साग़र जायसवाल
फायलातुन-फयलातुन -फयलातुन -फेलुन

नूतन लाल साहू

स्वेच्छाचारिता

सब अपने में मगन
बस एक ही चस्का
ढेर सारे पैसे पाने का
और आगे बढ़ने की होड़
कभी न खत्म होने वाली मरीचिका
यही तो है स्वेच्छाचारिता
यह कैसी आजादी है
कोई किसी की
नही सुनता है
अच्छा क्यों नही लगता है
संयुक्त परिवार में रहना
अकेलापन में
गिली मिट्टी सा उपजते है
अनेक अभिलाषाएं
आकांक्षाएं
क्यों पसंद नही है
लोगों के बीच रहना
यही तो है स्वेच्छाचारिता
रिश्ता कोई भी हो
इतना फीका नहीं होता
आजकल के लोग
जितना समझते है
स्वार्थरत निजोन्मुख
अनजाने मॉद में
गिरगिट सा रंग बदलते है
यही तो है स्वेच्छाचारिता
सब अपने में मगन
बस एक ही चस्का
ढेर सारे पैसे पाने का
और आगे बढ़ने की होड़
कभी न खत्म होने वाली मरीचिका
यही तो है स्वेच्छाचारिता

नूतन लाल साहू

डॉ० रामबली मिश्र

माहिया

जरा हाथ मिला लेना
छोड़ चलो नफरत 
रस प्रीति पिला देना।

करवद्ध यही कहता
बात सदा मानो
राह जोहता रहता।

करुणा हो सीने में
सुनो करुण क्रंदन
भाव बहे जीने में।

कुछ प्यार  जता देना
यार बने आओ
कर खड़ी स्नेह सेना।

दिल खोल मिलो सजना
सहज प्रेम वंदन
मन से दिल में बहना।

रोता मन शांत करो
संग रहा करना
निज शीतल हाथ धरो।

मुस्कान भरा नर्तन
लगे मीठ वाणी
सजा-धजा परिवर्तन।

आँगन में नाच करो
स्वयं गगन देखे
मानव में साँच भरो ।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

देवानंद साहा आनंद अमरपुरी

शीर्षक................मैं बीमार हूँ...................

हाय रे मेरी किस्मत , जीवन मेरा जकड़ गया ।
मैं बीमार हूँ,इससे पूरा बदन मेरा अकड़ गया।।

ज़ंजीरें ही  बन गए हैं , मेरी जिंदगी का गहना ;
शरीर का अंग-अंग , ज़ंजीरों  में जकड़  गया।।

गुनाह मेरा क्या है,सज़ा देनेवाले इतना बता दे;
नही बता पाते तो  बता,मुझे क्यों पकड़ गया।।

जिंदगी के सफ़र में चला, खैरमकदम के लिए;
सब मिलकर ऐसे हालात,पैदा क्यों कर गया।।

मेरी हसरतों का ज़नाज़ा तो इस कदर निकला;
दोस्तों , दुश्मनों की आँखों  में आँसू भर गया।।

अब नही होता है , किसी बीमारी का एहसास;
बीमारी केभरमार से ,पूरी जिंदगी पसर गया।।

"आनंद"के उम्मीद की किरण,नज़र नहीआती;
दुश्वारियों से  ही पूरा जीवन  मेरा  सँवर गया।।

-----------------देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

अर्ज है..
              
              आसमान से,
              मोती बरसे..
              खुशी मनाओ।
              दादी बोली,
              सारे भैया..
              पेड़ लगाओ।।

              दादा बोला,
              सुन रे मुन्ना..
              यह अच्छी बात..
              नेक काम में,
              मत देर लगा..
              करो शुरुआत।।

              पेड़ हमारे,
              जीवन साथी..
              समझे जन-जन।
              हरियाली से,
              बरखा आती..
              भीगे तन मन।।

           ©®
             रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत-16/16
अच्छा,तुम ही जीतीं  मुझसे,
मैं मान रहा हूँ हार प्रिये।
हार-जीत का अर्थ न कोई-
दिल का अद्भुत संसार प्रिये।।

प्रेम हार से कभी न थमता,
वह निज पथ पर चलता-रहता।
मधुर मिलन की आस सँजोए,
बाधाओं से लड़ता रहता।
साहस रूपी नौका लेकर-
करता दरिया वह पार प्रिये।।
     दिल का अद्भुत संसार प्रिये।।

आज मिलन तो कल वियोग है,
प्रेम-रीति की नीति यही है।
साजन-सजनी बिछड़ मिलें यदि,
सच्ची समझो प्रीति वही है।
रूठा एक मनाए दूजा-
इसको कहते हैं प्यार प्रिये।।
    दिल का अद्भुत संसार प्रिये।।

लगे प्रेम में दिल की बाजी,
प्रेमी कहता मैं दिल हारा।
लुटा हृदय वह अपना सजनी,
हो जाता है प्रेमी प्यारा।
हार-जीत की अनुपम लीला-
ही होती प्रेमाधार प्रिये।।
    दिल का अद्भुत संसार प्रिये।।

करे न गणना लाभ-हानि की,
प्यार त्याग परिचायक होता।
त्याग-भाव की गंगा बहती,
प्रेमी कभी न श्रद्धा खोता।
लुट जाने की इच्छा रहती-
प्यार नहीं है व्यापार प्रिये।।
       हार-जीत का अर्थ न कोई-
        दिल का अद्भुत संसार प्रिये।।
               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                   9919446372

कुमकुम सिंह

घर अपना ऐसा हो-

घर वो नहीं जो एक पत्थर से हो 
घर वो हो जिस की दीवार दिमाग के तरह इस स्थिर। दिल की तरह भावनात्मक ,
 जिस्म की तरह स्वस्थ और सजल ,
 रिश्तो की तरह सजा हो 
जिसमें परिंदों का बसेरा हो।
अतिथियों का आना जाना हो,
जहाॅ मान और सम्मान हो।
प्रेम का खजाना हो,
अपने धर्म के प्रति विश्वास हो।
सभी व्यक्ति निष्ठावान और एक दूसरे के प्रति समर्पित हो,
जिसमें दया और प्रेम का भाव हो।
ऐसे घर को घर एक मंदिर कहते हैं ,
तभी तो सभी को अपना घर अपना लगता हैं।
            कुमकुम सिंह

विजय मेहंदी

" माँ गंगा की यात्रा "    
                                                                                                                                       मुख    गोमुख    का   अंतस्तल 
माँ    गंगा    का   उदगम  स्थल
कल-कल  छल-छ्ल  आगे चल 
जा पहुंचीं  हरिद्वार पावन स्थल

गिरि के चट्टानों  से लड़-लड़ कर
होता पावन अमृत  गंगा का जल 
पहुँच  औद्योगिक  कानपुर  नगर
दूषण समेट भी अविरल गंगाजल

पहुँच प्रयागराज के  पावन भूतल 
मिल  यमुना  जी   से   गंगा  जल 
बनता   वृहद   कुंभ  संगम  स्थल
कुंभ-राज ये प्रयाग का कुंभस्थल 

 बढता जाता कर  नादि छल-छल
गंगा यमुना  का  ये  मिश्रित  जल
दो  रंगों   का  यह   अविरल जल
कितना   पावन   कितना  निर्मल

दो-दो   सरिता   का   दोहरा  बल
जा पहुँचा  विंध्य  के  विन्ध्याचल
धोता माँ का  आँचल  पावन जल
कितना  पावन  गंगा-यमुना  जल

आगे  जिला बनारस  काशी अँचल
विश्वविख्यात   पावन   तीर्थ  स्थल
पग-पग शोभित घाटों से  गंगाजल
दशाश्वमेध घाट है गंगा पूजन स्थल

============================
रचयिता - विजय मेहंदी ( कविहृदय शिक्षक)
कन्या कम्पोजिट इंग्लिश मीडियम स्कूल शुदनीपुर,मड़ियाहूँ,जौनपुर (उoप्रo)


मेरे सम्मानित साथियों आज प्रस्तुत है एक  समाजिक कुप्रथा "दहेज़-प्रथा"पर आधारित मेरी एक  रचना-- 👇------------

      "एक सामाजिक व्यथा-दहेज प्रथा" 
(धुन- झिलमिल सितारों का आँगन होगा! 
          रिमझिम बरसता सावन होगा)
       
दहेज़ मुक्त समाज अपना जब पावन होगा
कन्या-भ्रूण हत्या मुक्त हर घर आँगन होगा
ऐसा सुन्दर सपना जब जन -जन का होगा 
कन्या-जन्म तब हर घर में मन भावन होगा 
कांटे बनी कन्याए,कल एक छोटा सा  बसाएगीं।
कांटो से नहीं वे  बगिया,ममतामयी फूलो से सजायेगी।

माँ कोंख-धरा से अलग-थलग कर,
जब कूड़े में   ना फेंकी जायेंगी,
हरित पल्लवित पुष्पलता बनके,
तेरी बगिया को महकायेगीं।
हँसता खिलखिलाता मा का दामन होगा,
दहेज़-प्रथा का जब समाज से अंतगमन- होगा।

नहीं बनेंगी वे  बोझ किसी पर,
तन-मन से मेहनत करती जायेगीं।
सूखा, धूप, छाँव सहकर वे,
चोटी पर लहरायेगीं।
ऐसा सुन्दर वैश्विक भारत दर्शन होगा,
भारतीय नारी जीवन विश्व का आकर्षण- होगा।
=========================                                              मौलिक रचना- विजय मेहंदी                       (कविहृदय शिक्षक) जौनपर

नंदिनी लहेजा

विषय:-आँसू 

मन के अनेक भाव मानव के,
जो मुख से कहे न जाए
छलके बनकर नीर अखियन से
आँसू यही कहलाये
जब प्रथम बार माँ अपने शिशु को गोद में अपनी उठाए
या फिर कोई अपना हमसे बिछड़ इस जग से चला जाए
चाहे मिलन हो या हो विछोड़ा  ये आँसू  छलक ही जाएं
भक्ति में लीन कोई प्रभु का प्यारा अपने ईश का ध्यान करे
या बिछड़े अपने प्रीतम को बन राधिका कोई याद करे
प्रेम में डूबा  अंतरमन  जब यादों में खो जाए
ये आँसू  छलक ही जाएं
जब आगे बढ़ते देख  पुत्र को अपने माँ का मन हर्षित हो जाए
या विदा करते बिटिया रानी हिर्दय पिता का भर सा जाए
चाहे सुख हो या कोई दुख ये आँसू  छलक ही जाएं

नंदिनी लहेजा
रायपुर छत्तीसगढ़
स्वरचित मौलिक

रामकेश एम यादव

पर्यावरण!

पर्यावरण का कलेवर फिर सजाने दीजिए,
खाली पड़ी जमीं पर पेड़ लगाने  दीजिए।
हरी- भरी  धरती हो  औ झूमें  खुशहाली,
अब प्रदूषण को ठिकाने  लगाने दीजिए।
कुदरत की  गोंद में वो जीवन था नीरोगी,
वो बयार फिर मिले, कदम उठाने दीजिए।
नहीं   रहेंगे   पेड़,    बादल   होंगे  नाराज,
घट रहे जल स्तर को फिर  बढ़ाने दीजिए।
विनाश करते जा रहे किस सफलता के लिए,
कुदरत से लिपटकर अब खूब रोने दीजिए।
वन, नदी, पर्वत, हवा, हैं धरा के आभूषण,
गाँव-गाँव,शहर-शहर अलख जगाने दीजिए।
घट  रही है  साँस,  बढ़  रही  जहरीली हवा,
जो काटते  जंगल, उन्हें  समझाने  दीजिए।
सुबह-शाम  परिन्दे उन  डालों पे चहचहाएँ,
लकड़हारे को  कुल्हाड़ी  न चलाने दीजिए।
बँधी  है  पर्यावरण से  हर  किसी  की साँस,
न किसी को नदी में कचरा बहाने दीजिए।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

डॉ० रामबली मिश्र

मेरी पावन शिवकाशी

दशाश्वमेध घाट अति पावन, विश्वनाथ इसके वासी;
सब घाटों से यह बढ़ -चढ़ कर, दिव्य पुरातन सुखराशी;
गंगा मैया का निर्मल जल, इसी घाट की शोभा है;
स्वच्छ-धवल-रमणीक तीर्थ है,मेरी पावन शिवकाशी।

सदा जागरण होता रहता, कभी नहीं सोती काशी;
जन-जन में चेतना प्रस्फुरण,हर हर कहता हर वासी;
चिंतन होता शिव भोले का,महादेव का नारा भी;
सबके उर में नाचा करती,मेरी पावन शिवकाशी।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

निशा अतुल्य

माहिया
पंजाब का प्रचलित लोकगीत (टप्पे)
*प्रेमिका व प्रेमी के बीच की बातें*

साजन तुम आते हो
मिलने की चाहत 
तुम और बढाते हो ।

ये प्रेम निराला है 
बिन देखे तुमको
दिल चैन न पाता है ।

साजन तुम झूठे हो 
बात बनाते हो
डोली ना लाते हो ।

प्रिय घर मैं आऊंगा
बात करूंगा जब
सिंदूर सजाऊंगा ।

मन को भरमाते हो
मीठी बातों से 
क्यों दिल तड़फ़ाते हो ।

मीठी बातें प्यारी
बन यादें मेरी
तुझ में बस जाती है ।

अब घर मैं जाती हूँ 
जा कर घर सबको 
ये बात बताती हूँ ।

प्रिय धीर धरो थोड़ी
संग रहेंगे हम
सुन्दर अपनी जोड़ी ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

अमरनाथ सोनी अमर

गीत - बुजुर्ग! 


जीवन के पथ पर मैं चलकर, सच्चा राह दिखाऊँ! 
कभी नहीं मन असमंजस हो, सच्चा राय बताऊँ!! 

मेरा तुम्ही भरोसा मानों, सच हो पूरा सपना! 
अंतरमन से बात करूँ मैं, कैसे तुम्हें दिखाऊँ!! 

बृद्धों के सलाह को मानो, कभी न होगें निष्फल! 
चाहे जहाँ कहीं जाओ तुम, होगें सफल बताऊँ!! 

पूराना इतिहास बताता,  करते थे सब आदर! 
सही समय- सलाह भी लेतें, होतें सफल बताऊँ!! 

इसीलिए प्यारे भाई तुम, मानों इनका कहना! 
भोजन, औषधि, वस्त्र सुलभ कर, सेवा करो बताऊँ!! 

अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662

अरुणा अग्रवाल

नमन मंच,माता शारदे,सुधिजन
शीर्षक "प्रेम और स्पर्श"

"प्रेम शब्द है अपरिमित,
जिसको बयाँ करना,मुश्किल,
है यह छोटा,पर जहाँ है समाया,
प्रेम से बड़ा काम होता सरल।।

मीरा,श्रीराधा,रुक्मिणी,मिसाल,
प्रेम से कर दिखाया बड़ा कमाल,
जो काम नहीं हो सकता अस्त्रों से
वह आसान औ मुमकीन,प्रेम से।।

मुमताज का अमिट प्रेम-कहानी,
शाहजहां ने बनाया ताज़महल,
संगमरमरी,कलाकारों ने करिश्मा,
जो की सप्ताश्चर्ज में सुमार-उत्तम।।

प्रेम और स्पर्श का तालमेल,
कोई मन से करता मेहसूस,
कोई स्पर्श-सुख खोजे,तन,
पर मन और मनन है काफी।।

प्रेम है चिर पूरातन,नितय नूतन,
सत्य से कलि हर युग और काल,
प्रेम चाहे प्रेमिक,प्रेमिका,संसारी,
सुदामा-कृष्ण हो या त्रिपुरारी,
प्रेम का महिमा है अति पावन।।

अरुणा अग्रवाल।
लोरमी,छःगः,
🙏🌹🙏

प्रवीण शर्मा ताल

*कुंडलियाँ*

सागर को पार करने,चले वीर हनुमान,
लंका में  है जानकी,खोज रहे बलवान।।
खोज रहे बलवान,विभीषण के घर जाते।
जाते फिर हनुमान,सिया वाटिका आते।
सीता के संदेश,भरे अंगूठी गागर।
जाओ मेरे  वत्स, पार जाना  तुम सागर।

             
*✍️प्रवीण शर्मा ताल*

सुधीर श्रीवास्तव

संरक्षण करो
***********
जल,जंगल, जमीन
ये सिर्फ़ प्रकृति का 
उपहार भर नहीं है,
हमारा जीवन भी है
हमारे जीवन की डोर
इन्हीं पर टिकी है,
धरती न रहेगी तो
आखिर कैसे रहोगे?
जब जल ही नहीं होगा 
तो प्यास कैसे बुझाओगे
पेड़ पौधे ही जब नहीं होंगे
तो भला साँस कैसे ले पाओगे?
अब ये हम सबको 
सोचने की जरूरत है,
हर एक की हम सबको जरूरत है,
जब इनमें से किसी एक के बिना 
दूजा निपट अधूरा है,
फिर विचार कीजिए
हमारा अस्तित्व भला
कैसे भला पूरा है?
उदंडता और मनमानी बंद करो
जीना और अपना अस्तित्व 
बचाना चाहते हो तो
सब मिलकर जल, जंगल, 
जमीन का संरक्षण करो,
ईश्वरीय व्यवस्था में बाधक
बनने के तनिक न उपक्रम करो।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
        गोण्डा, उ.प्र.
      8115285921
©मौलिक, स्वरचित

एस के कपूर श्री हंस


*।।कामयाबी का अपना एक*
*अलग गणित होता है।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
गिर कर    चट्टानों   से   पानी 
और तेज     होता है।
वही जीतता  जो       उम्मीदों
से लबरेज   होता है।।
गुजर कर    संघर्षों से  व्यक्ति
और है मजबूत बनता।
भागता और तेज   जब   नीचे
कांटों का सेज होता है।।
2
दीपक के तले  सदा     अंधेरा   
ही     रहता        है।
पर खुद जलकर  उससे रोशन
सबेरा      बहता  है।।
मुश्किलों में ही    आदमी  को
अपनी होती पहचान।
सफलता का हर  चेहरा   यही
बात  कहता       है।।
3
मुसीबतों में ही    उलझ    कर
शख्सियत निखरती है।
गलत हो सोच  तो       जिंदगी
फिर     बिखरती    है।।
जैसी नज़र   रखते    नज़रिया
वैसा जाता   है   बन।
आशा और विश्वास   से ही हर
तकलीफ    गिरती है।।
4
जीवन का   सफल    आचरण
अलग    होता      है।
तकलीफ़ का ऊपरी   आवरण
अलग    होता     है।।
संघर्ष की भट्टी में तपकर सोना
बनता   है      कुंदन।
कामयाबी का अपना व्याकरण   
अलग   होता      है।।


*1 ।।।।*
सीखो     और   सिखायो  तुम
यही     उचित   है ज्ञान बढ़ाना।
सदा   बड़ों का    सम्मान करो
यही   उचित है    मान जताना।।
यदि आ   गया     अहंकार तो
पतन      फिर     निश्चित    है।
त्यागअहम का   बहुत  जरूरी
*नहींउचितअभिमान दिखाना।।*
💥☘️💥☘️💥☘️💥
*2।।।।।*
भाषा  मर्यादा बहुत  आवश्यक
हर सफल व्यक्ति ने यही जाना।
वाणी की मधुरता है आवश्यक
सदा मीठे बोल ही है    सुनाना।।
कलम अच्छा सच्चा   लिखती
क्योंकि झुक      कर चलती है।
सरल सहज होना   आवश्यक
*नहींउचितअभिमान दिखाना।।*
💥☘️💥☘️💥☘️💥☘️
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।*
मोब।।।।         9897071046
                     8218685464

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

.
                     कविता
                *जल संग्रहण*
                    ~~~~
            जल बिन कुछ नहीं भाई, 
            समय बहुत ही दुखदाई।  
            दीखे नहीं परछाई,
            संकट घड़ी जो आई।।

            गलती नहीं बतलाना,
            पाठ यह पढ़ ही लेना।
            करना है जल संग्रहण,
            सबकों यही समझाना।।

            कुआं बावड़ी सब अपने,
            तो फिर हमें क्यों डरना।
            वृषा पानी का रुख बस,
            इनकी तरफ ही करना।।

            ताल-तैलिया गहरे कर,
            जाये उसमें भी पानी।
            बिन काम ही रोको मत,
            बात यह भी समझानी।।

            घर-घर में बने पुनर्भरण
            पानी बह के न जाये।
            बहुत उपयोगी  विधी,
            सभी मन से अपनाये।।

            खेत-खेत डोली पास,
            बने अब छोटे बांध।
            पशु-पक्षी कलरव तान,
            फिर से बजे देखो नांद।।
      
           ©®
              रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)
     ‌

डॉ0हरि नाथ मिश्र

दूसरा-3
क्रमशः......*दूसरा अध्याय*(गीता-सार)
सुभ अरु असुभयइ फल कै भेदा।
निष्कामी नहिं रखहिं बिभेदा।।
      जे जन मन रह भोगासक्ती।
      अस जन बुधि नहिं निस्चय-सक्ती।।
अस्तु,होहु निष्कामी अर्जुन।
सुख-दुख-द्वंद्व तजहु अस दुर्गुन।।
      आत्मपरायन होवहु पारथ।
       लरहु धरम-जुधि बिनु कछु स्वारथ।।
पाइ जलासय भारी जग नर।
तजहिं सरोवर लघु तें लघुतर।।
       ब्रह्मानंद क पाइ अनंदा।
       बेद कहहिं नहिं नंदइ नंदा।
तव अधिकार कर्म बस होवै।
इच्छु-कर्म-फल नर जग खोवै।।
      तजि आसक्ती सुनहु धनंजय।
      करहु कर्म बिनु मन रखि संसय।।
भाव-समत्वयि,सिद्धि-असिद्धी।
करहु जुद्ध तुम्ह निस्चय बुद्धी।।
      ग्यानी जन जुड़ि बल-बुधि-जोगा।
      जन्म-बन्धनहिं तजि फल-भोगा।।
भइ निर्दोष सकल जग माहीं।
अमृत निहित परम पद पाहीं।।
       मिलइ बिराग तुमहिं हे अर्जुन।
       मोह- दलदलइ तिर तव बुधि सुन।।
दोहा-परमातम मा जबहिं सुन,स्थिर हो बुधि तोर।
        जोग-समत्वइ लभहु तुम्ह,नहिं संसय अह थोर।।
        किसुन-बचन अस सुनि कहेउ,अर्जुन परम बिनीत।
        स्थिर-बुधि जन कस अहहिं,हे केसव मम मीत ??
                        डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372      क्रमशः.........

नूतन लाल साहू

प्रेम और स्पर्श

जिसने भी किया ध्यान
सच्चे मन से ईश्वर का
बडभागी है वह इंसान
उसे कोई क्लेश
स्पर्श न किया
प्रेम और क्या है
जीवन का ही गायन है
सिर्फ सांसे ही जरूरी नहीं है
जो हमको रखे जिंदा
बहुत जरूरी है
जीवन की धमनियों में
प्रेम रसायन
पोथी पढ़ी पढ़ी जुग गया
पंडित बना न कोय
ढाई आखर प्रेम का
पढ़य सो पंडित होय
ऐसी कौन सी समस्याएं है
जो प्रेम से न सुलझा हो
जो चाहता है
हो बात मधुरता की
और जीवन स्वर्ग बनें
वह कुछ ऐसी कोशिश करें
जिससे मजबूत हो
सबसे मैत्री संबंध
सफलता का सफर
टेढ़ा बड़ा है
यहां हर मोड़ पर
दुश्मन खड़ा है
पर जिसने भी किया ध्यान
सच्चे मन से ईश्वर का
बडभागी है वह इंसान
उसे कोई क्लेश
स्पर्श न किया

नूतन लाल साहू

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल---
2122-1122-1122-22
अपने जलवों से वो हर शाम सजाते रहते
उनके हम नाज़ यूँ हँस हँस के  उठाते रहते 

कितनी रौनक़ है मेरी रात की तन्हाई में
उनकी यादों के मुसाफ़िर यहाँ आते रहते

इसलिए नूर बरसता है मेरे कमरे में
रात भर ख़्वाब में जलवा वो दिखाते रहते

भूल जाते वो किसी रोज़ तकल्लुफ़ ख़ुद ही
गाहे गाहे ही सही हाथ मिलाते रहते

छू नहीं सकती कभी आँच ग़मों की तुझको
तू रहे ख़ुश ये दुआ रोज़ मनाते रहते

तीरगी ज़हनो-ख़िरद से है यूँ घबराई हुई
सब्र के दीप जो हम रोज़ जलाते रहते 

फिर कोई आपसे शिकवा न शिकायत होती
जाम पर जाम निगाहों से पिलाते रहते

पास रक्खा न कभी उसने वफ़ा का *साग़र* 
दौलत-ए-इश्क़ हमीं कैसे लुटाते रहते 

🖋️विनय साग़र जायसवाल 
13/6/2021

मन्शा शुक्ला

परम पावन मंच का सादर नमन

..........................

चुन -चुन बेर लाती
फूल राह में बिछाती
आओं मेरे प्रभु राम
राह निहारती है।c

सुमिरन  राम  नाम
काम यही आठों याम
राम भक्ति लव लगा
राम गुण गाती है।

प्रेम  भाव  नैन भर
खिलाती है चखकर
राम रूप दर्शन कर
मन हरषाती है।

ज्ञान नवधा भक्ति का
 ईश वरदान मिला
 सुमिरन राम नाम
भाग्य सँवारती है

मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर

मधु शंखधर स्वतंत्र

*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*
            *कोरा*
--------------------------------
◆ कोरा कागज यूँ रहे , उज्ज्वल धर परिधान।
रंग भरे जब लेखनी, शब्द करे संधान।
शब्द करे संधान, वृहद् शुभ भाव निराला।
शोभित अनुपम सृजन, नृत्य जैसे सुरबाला।
कह स्वतंत्र यह बात, रंग कोरा का गोरा।
सप्त रंग के साथ,  गया रच कागज कोरा।।

◆ कोरा जब तक मन रहे, भाव नहीं चितचोर।
प्रीत रंग जब भी मिले, नाचे मन का मोर।
नाचे मन का मोर , देख कर मेघ घनेरे।
इंद्रधनुष के रंग, बसे तन मन में मेरे।
कह स्वतंत्र यह बात, यहाँ क्या तोरा मोरा।
विस्तृत मन के भाव, सहज होता मन कोरा।।

◆ कोरा कोरा देख के, चाहें भरना रंग।
रंग भरी दुनिया यहाँ, दिखी अनेको ढंग।
दिखी अनेको ढंग, सतत् परिवर्तन होता।
जो होता बेरंग, खुशी मन की वह खोता।
कह स्वतंत्र यह बात, वजन तन जैसे बोरा,
हल्का तन मन साथ, रंग मधुमय यह कोरा।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️
*30.06.2021*

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत
         *गीत*(16/16)
मेरे जीवन के उपवन के,
सूखे पुष्प शीघ्र खिल जाते।
पूनम की संध्या-वेला में-
सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

उमस-ताप से व्याकुल धरती,
को भी अद्भुत सुख अति मिलता।
उछल-उछल कर नदियाँ बहतीं,
लखकर प्रेमी हृदय मचलता।
पावस बिना गगन में घिर-घिर-
अमृत जल बादल बरसाते।
       सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

तेरे गीत सुहाने सुनकर,
पशु-पंछी अति हर्षित होते।
सुनकर तेरे मधुर बोल को,
जगते जो भी दिल हैं सोते।
फँसे कष्ट में व्यथित-थकित मन-
औषधि मीठी पा मुस्काते।
       सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

मस्त हवा भी लोरी गाती,
सन-सन बहती जो गलियों में।
लाती गज़ब निखार चमन में,
भरकर गंध मृदुल कलियों में।
भन-भन भ्रमर-गीत मन-भावन-
को सुन प्रेमी-मन लहराते।
      सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

प्रकृति नाचने लगती सुनकर,
तेरा गान विमल अति पावन।
बिना सुने ज्यों कहीं दूर से,
स्वर ढोलक का लगे सुहावन।
बिना सुने अनुभूति गीत से-
विरही-हृदय परम सुख पाते।
      सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

हे,मेरे मनमीत सुरीले,
सुनो ज़रा इस दिल की पुकार।
देव-तुल्य यदि स्वर है तेरा,
मधुर मेरी वीणा-झनकार।
वीणा का मधुरिम स्वर सुनकर-
व्यथित-विकल मन अति हर्षाते।
   पूनम की संध्या-वेला में,सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।
             ©डॉ हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

निशा अतुल्य,

प्रेम और स्पर्श

किसने जाना
जीवन समर्पण
अंधे है सभी।

वो लालसाएं
मुखरित भटके
जीवन खत्म ।

समझा कौन
प्रेम और स्पर्श हो
स्वार्थ रहित ।

माँ समर्पित
निस्वार्थ करे कर्म
संतुष्ट रहे ।

अंत समय
कठिन है जीवन 
बुरा बुढापा ।

पाला सबको
अशक्त जन्मदाता
घर बाहर ।

सम्मान करो
सदा जन्मदाता का
मन के भाव ।

आशीष मिलें
सफल हो जीवन
विश्वास रख ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

अतुल पाठक धैर्य

शीर्षके-रिश्तों की बुनियाद
विधा-कविता
----------------------------------
रिश्तों की बुनियाद होती विश्वास है,
जो रिश्ते जुड़ते विश्वास के सहारे वो होते ख़ास हैं।

भरोसे के बिन हर रिश्ता टूट जाता है,
बड़े अनमोल होते हैं वो रिश्ते जिनमें आपसी समझ और भावनाओं का समंदर बहता है।

रिश्तों में अपनेपन की मिठास दिल से जोड़े रखती है,
बिना समझ के हो कड़वाहट जो रिश्ते उधेड़ने लगती है।

रिश्तों में अपनेपन का क़ुरबत एहसास  होना चाहिए,
कभी डिग न पाए रिश्तों की बुनियाद दिल के तार इतने मज़बूत होने चाहिए।

रचनाकार-अतुल पाठक "धैर्य"
पता-जनपद हाथरस(उत्तर प्रदेश)
मौलिक/स्वरचित रचना

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

2-शीर्षक -मर्यादाओं के राम----

चलो आज हम राम बताएं
राम मर्यादा  अपनाएँ राम रिश्ता मानवता की अलख जगाएं।।

प्रभु राम का समाज बनाएं
मात पिता की आज्ञा सेवा 
स्वयं सिद्ध को राम बनाएं।।

भाई भाई के अंतर मन का
मैल मिटाए ,भाई भाई में बैर नहीं भाई
भाई को भारत का भरत बनाएं।।

लोभ ,क्रोध का त्याग करे समरस
सम्मत समाज बनाएं,सम्मत सनमत बैभव राम नियत का दीप जलाए।।

कर्म धर्म श्रम शक्ति निष्ठां ,धन चरित पाएं ,पावन सरयू की धाराएं कलरव करती ,जन्म जीवन का अर्थ सुनाएँ।।

भव सागर का स्वर्ग नर्क,केवट खेवनहार बनाये भेद भाव रहित राम भव सागर पार कराएं।।          

निर्विकार निराकार राम सबमें साकार राम बोध प्राणी प्राण का दर्शन पाएं।।

राम सिर्फ नाम नहीं ,राम मौलिक
मानवता सिद्धान्त, राम रहित जीवन बेकार सांसो धड़कन पल प्रहर में
राम बसाएं।।

राम बन वास का रहस्य जल ,वन जीवन का राम दैत्य ,दानव से भयमुक्त धर्म ,दया ,दान ऋषिकुल बैराग्य विज्ञान का राम।।

सेवक राम यत्र तंत्र सर्वत्र राम
राम से बिमुख ना जाए चलो आज हम राम बताएं राम मर्यादा का युग अपनाएं।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

शीर्षक -माँ


माँ मुझे चरणों में  जगह दे ,ममता का तू आँचल ओढ़ा दे, और मुझे क्या चाहीये।।

माँ  दूध तेरा अमृत  
आशीष प्यार तेरा ,ढाल
और मुझे क्या चाहिये।।

माँ मैँ तेरी सेवा करूँ
मूरत भगवान की तुझमे
देखा करूँ मुझे और क्या चाहिये।।

पल प्रहर तेरे ही अरमानो को जिया करूँ तेरे ही पलों की जिंदगी
पला बढ़ा कोई गिला ना शिकवा
करूँ और मुझे क्या चाहिये।।

नौ माह तेरी कोख ने पाला
हर दुःख पीड़ा का पिया विष हाला
माँ कर्ज़ तेरा कैसे मैँ उतार दू,तेरे कर्ज का फ़र्ज़ को दूँनिया पे वार दूं  और मुझे क्या चाहिये।।

माँ  मैं तेरा सूरज चाँद 
तू ही कहती है ,बापू का नाज
मरे लिये तू ही धरती आसमान
जन्नत जहाँ और मुझे क्या चाहिये।।


माँ तू मेरी शरारत को कहती सही
मैं किसी भी हद से गुजर जाऊं सहती
माँ मेरी हस्ती तू, मेरी मस्ती तू, मेरे जज्बे की ज्योति तू और मुझे क्या चाहिए।।

माँ तू शक्ति है, माँ तू मेरी भक्ति है,
मेरे समर्थ की ज्वाला दूँनिया में मेरे
रिश्तों की धुरी है ।।                   

माँ मेरा तू आसरा,माँ मैँ तेरा ही आश विश्वाश मुस्कान,और मुझे क्या चाहिये।।

माँ जब भी लूँ जनम मैँ ,तेरा ही बेटी या बेटा रहूं ,तेरी ममता के आंचल पे जन्नत भी शरमाये मुझे और क्या चाहिये।।

नंदलाल  मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

डॉ० रामबली मिश्र

हरिहरपुरी के सोरठे

जब आता संतोष, कामना मिटती जाती।
सदा आत्म को पोष,आशुतोष का भाव यह।।

अपना जीवन पाल, सदा रहो सत्कर्म रत।
सत्कर्मों का हाल, सहज शुभप्रद सुखदायी।।

मन से कभी न हार, रहे मनोबल अति प्रबल।
मन तन का श्रृंगार, यदि यह पावन शिवमुखी।।

इन्द्रिय को ललकार, शुद्ध बुद्धि से काम कर।
ईर्ष्या को धिक्कार,दुश्मन है यह प्रेम का।।

करता जो स्वीकार,गलत राह को हॄदय से।
बन जाता आधार, वह अपराधी जगत का।।

मन में अतिशय लोभ, कारण बनता नाश का।
होता जब है क्षोभ,सिर धुन-धुन कर पटकता।।

तन-मन-उर अरु बुद्धि,करो जरूरी संतुलन।
जहाँ ध्यान में शुद्धि,वहाँ व्यवस्था स्वस्थ प्रिय।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुर
9838453801

अमरनाथ सोनी अमर

कुण्डलिया- आनंद! 

आये जब मेरे गृहे, अतिथि अरू दिलदार! 
अति मिलता आनंद है, मन खुश होयअपार!! 
मन खुश होय अपार,अतिथि मेरे घर आये!
हम करते व्यवहार,खुशी मन अति हो जाये!! 
अमर कहत कविराय, मनुज का हम तन पाये! 
स्वागत मेरा  धर्म, हमारे जो गृह आये!! 

अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662/

डाॅ० निधि मिश्रा

*यामिनी ने करवट में काटी* 

यामिनी ने करवट में काटी, 
अम्बर तल पर निशा सगरी, 
झुरमुट तारों के बीच बैठ, 
देखती रही विरहा बदरी ।

स्निग्ध चन्द्र धुधला सा गया, 
हिय पीर समा पराई गई। 
अति कौतुक भौरा चूम गया, 
प्रसून कली शरमाई गई।

झन झन झींगुर झनकार रहे, 
तट तरनी किरनें नाच रहीं। 
इठलाय चली धारा नद की, 
मिलन की आस पिय राह वहीं।

शशि भाल सुशोभित हैं नभ के, 
तारागण बिखरे स्वागत में। 
पिय योग वियोग,सुयोग नहीं, 
यामिनी जलती चाँदनी में।

यामिनी सजी शशि किरनों से, 
दिन सज्जित हुआ रवि रश्मि से,
दिन-रैन मिलन बस पल भर है,
हिय टीस मिटे न दोउ मन से।

स्वरचित- 
डाॅ०निधि मिश्रा ,
अकबरपुर ,अम्बेडकरनगर ।

रामकेश एम यादव

झमाझम बारिश !

नीलांबर  में  बादल  छाने  लगे हैं,
कण-कण में खुशियाँ बोने लगे हैं।
मानसून  ने   ली   ऐसी  अंगड़ाई,
जड़- चेतन  दोनों  झूमने  लगे हैं।
प्यासी थी  धरती इतने  दिनों से,
अंग-अंग उसके  खिलने लगे हैं।
झमाझम  बारिश  में  छोटे बच्चे,
कागज की कश्ती चलाने लगे हैं।
दादुर,  मोर,  पपीहा  झींगुर के,
मधुर स्वर कान में गूंजने लगे हैं।
नदियों  ने ली  है ऐसी  अंगड़ाई,
समंदर- सा खेत दिखने लगे हैं।
हल-बैल लेकर निकले किसान,
खेत -खेत बीज वो बोने लगे हैं।
सज गई फसल से सारी सिवान,
फिजा  के पांव थिरकने लगे हैं।
पड़ गए गाँव-गाँव सावन के झूले,
पेंग  बढ़ाकर  नभ  छूने  लगे  हैं।
कुदरत  बचेगी,  तो ही हम बचेंगे,
वृक्षारोपण   भी   करने  लगे   हैं।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

नंदिनी लहेजा

विषय-संदेह

संदेह तुझे तेरे अपनों से दे बिछड़ा
छीन लेता तेरे ह्रदय का चैन
छोड़ जाती निंदिया नयनो को
हर क्षण करता तुझे बेचैन
केवल एक भावना सन्देह की जब
तेरे मन घर कर जाती है
दूर कर देती तेरे अंतर्मन की प्रसन्नता को
तुझे क्रूर कर देती है
माना साधारण मानव है हम
मन के भावों पर ज़ोर नहीं
गर इसमें प्रेम समाता है
ईर्ष्या और संदेह भी पनपता यहीं
जिससे सर्वाधिक करते प्रेम
गर ना पूरी कर पाया उम्मीदों को
संदेह से भर जाता ह्रदय
चाहता मन उसे चोट पहुँचाने को
संदेह ना केवल दूजे को
स्वयं हमें भी नुक्सान पहुँचता है
तन मन को कर देता बोझिल सा
इक अगन से हमें जलाता है
ना पनपने दे भाव सन्देह का तू अंतर्मन में
क्योंकि वह तो ईश्वर का घर है
प्रेम और अपनत्व के भावों से कर पावन मन को
गर जीवन को सफल बनाना है

नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)
स्वरचित मौलिक

मन्शा शुक्ला

परम पावन मंच का सादर नमन
  ..........सुप्रभात
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

महादेव हे औघड़दानी।
विनय करूँ आदर सनमानी।।
जटा विराजे पावन गंगा।
पट बाघम्बर सोहे अंगा।।

कानन कुण्डल पहिरे व्याला।
आसन.है पावन मृगछाला।।
कर में त्रिशूल डमरू राजे।
डमडम नाद पाप सब नाशे।।

सावन मास चढ़े जलधारा।
भोलेनाथ जगत आधारा।।
राम नाम पावन अघहारी।
सुमिरन करत सदा त्रिपुरारी।।

रोग आपदा जग पर छायी।
हरो ताप भव के सुखदायी।।
करूँ वन्दना हे शिवशंकर।
करुणा सागर हे महेश्वर।।

मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर

निशा अतुल्य

कशमकश 

जिंदगी की कशमकश 
जूझते है यहाँ सभी 
कोई पार करता व्यथा से
कोई हँस के झेले है पीर ।

कुछ टूटता कुछ दरकता
साथ कुछ रहता यहाँ
सुख की अनुभूति बने कोई
कोई कशमकश देता रहा ।

समय चक्र चलता ही रहता 
ले सुख दुख साथ में 
है सफल जीवन उसी का 
जो जीवन को साध ले ।

खत्म तो होगी कभी
कशमकश ये जिंदगी की
मन की इच्छा पूरी होगी
सीधी सरल सी जिंदगी में ।

लोग मिलते और बिछड़ते
रीत ये जग की रही 
मन न हो अधीर अब तू
सार है ये जिंदगी के ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"



पर्यावरण संरक्षण
28.6.2021

सूखी धरा तप्त रहे
संताप अपने कहे 
मिलें नहीं कहीं छाँव 
वृक्ष तो लगाइए ।

पर्यावरण रूठा है
हर तरफ सूखा है
त्राहि त्राहि कर रही
धरा को बचाइए ।

संरक्षण है जरूरी
वृक्षो से है कैसी दूरी
भूल अब करो नहीं
हरी भू बनाइए ।

वृक्ष जीवन आधार
करें ये जल संचार
हरे भरे वृक्ष झूमे
बादल बुलाइए ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

डॉ० रामबली मिश्र

माहिया

साया बनकर आना
नहीं भूलना तुम
तन-मन पर छा जाना।

प्रियतम को पाना है
चूक नहीं होगी
प्रिय के घर जाना है।

मधुघट का प्याला हो
चाह रहा पीना
तुम मेरी हाला हो।

 तुम पास सदा रहना
वायु बने  बहना
मन को शीतल करना।

तेरी ही आशा है
छोड़ नहीं देना
तेरी प्रत्याशा है।

भावुक होकर  बहना
साथ चलो मेरे
प्रिय शब्द सदा कहना।

दिल को बहलाना है
देख जख्म दिल के
इसको सहलाना है।

पाँवों में छाले हैं
 बहुत दुखी काया
पीड़ा के प्याले हैं।

तुम प्रीति पिला देना
है निराश यह मन
मृतप्राय जिला देना।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*नैन*(सजल)
समांत-आरे
पदांत--लगते हैं
मात्रा-भार--26
नैन तुम्हारे सजनी प्यारे-प्यारे लगते हैं,
जो देखे लुट जाए कितने न्यारे लगते हैं।।

बिना वाण के प्रेमी-हृद का छेदन करते हैं,
शमशीरों की तेज धार को धारे लगते हैं।।

रति-अनंग का तेज लिए,विरह-वेदना देते,
मिलन अयोग्य ये सरिता के किनारे लगते हैं।।

चंचल-छलिया इतने हैं,नहीं किसी पे टिकते,
रवि-किरणों के जैसे सबपे वारे लगते हैं।।

 अद्भुत गुण से पोषित ये, दोनों नैन तुम्हारे,
प्रकृति-न्यायप्रिय-भावों से सवाँरे लगते हैं।।

देवों जैसे विमल नेत्र द्वय,छवि निर्मल धारे,
बादल रहित गगन के चाँद-सितारे लगते हैं।।

सायक कुसुम चला अनंग जब घायल करता है,
घायल मन के नैना,नेक सहारे लगते हैं।।
              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                   9919446372

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

     
        
              *तिरंगा अमर रहे* 
                   ~~~~~
           आन-बान-शान निराली,
           संस्कृतियों का सम्मान रहे।
           खुशियों की बरखा बरसे,
           अपना तिरंगा अमर रहे।।
            🌾🌾🌾🌾🌾
           वीरों की शोभा न्यारी,
           हर मौसम में डटे रहे।
           मन में एक ही अभिलाषा,
           अपना तिरंगा अमर रहे।।
            🌾🌾🌾🌾🌾
           घर-घर में खुशियाँ महके,
           सत्कर्मों का भी साथ रहे।
           अब तो बस यही कामना,
           अपना तिरंगा अमर रहे।।
            🌾🌾🌾🌾🌾
           भारत मां अन्न खिलाती,
           धरा पुत्र का सम्मान रहे।
           सब मिलकर करें आरती,
           अपना तिरंगा अमर रहे।।
             🌾🌾🌾🌾🌾
           ©®
             रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

।नारी तू नारायणी।। अवलोकन करें...            
                                    कमला विमला सुषमा इन्दिरा का यहहिन्दुस्तान है।।                                   यहाँ अपाला गार्गी घोषा मैत्रेयी जो महान हैं ।।                                       कौशल्या अरू मातु कैकेयी  उर्मिल त्याग महान है।।                                    भाखत चंचल लक्ष्मी पन्ना गूँज रहा बलिदान है।।1।।                                   हिन्द चावला जैसी बेटियाँ माया रमा गुनखान हैं ।।                                       प्रतिभा पाटिल रमण निर्मला ईरानी स्मृति शान हैं।।                                      शासन दक्ष अवध की माया शानी कँह अनजान हैं ।।                                       भाखत चंचल दुर्गा राधा  सुभद्रा मीरा जान है।।2।।                                      नारी ते ही जाये शिवाजी नारी दौलत खान है।।                                            जहाँ नही है इज्जत उनकी मानो महल मसाध है।।                                              सभी क्षेत्र मा घुसी नारियाँ क्षेत्र नही अनजान है।।                                        नारी बिना अधूरा चंचल जोधा अकबर जान है।।3।।                                           बिक्टोरिया की राजनिपुणता बेनजीर बे  नजीर हैं।।                                         विजयलक्ष्मी मीराबाई  महादेवी काव्य तुणीर है।।                                          करमवती की राखी निशानी  रत्ना तुलसी कबीर हैं।।                                  भाखत चंचल आधी अबादी  आधा रंग अबीर है।।4।।                                      




।आशा।। 

                                              वदवक्त कय मीत बयारि बहय धरि धीरू ना साहस खोवहू तू।।                       यै संगी औ साथी समाजु कुटुम्ब हैं दोलतु मीत ई जोवहु तू।।                          निज बाहुन पै विश्वास धरहु अरू अंत समय मत जोवहु तू।।                              भाखत चंचल या जियरा सबु संगी है नीकु जुहारहू तू।।1।।                              दौलतु पास है जौ मनुआ सबु संगी समाजु कुटुम्ब खरा।।                                परू गाढ़ दिना जौ देखाइ परा तबु होतु विमुक्ख प्रभाऊ परा।।                           ई नात औ बाँत कुटुंब समाजु  ना होतु केऊ यहू जानि परा।।                             भाखत चंचल नीकु दिनानु तौ अक्खा इहय स़ंसारु भरा।।2।।                            गाढ़ परै तौ भजौ करुनानिधि दीनदयाल हितैषिऊ वही हैं।।                     ई सुक्ख औ दुक्ख हू देत वयी  अरू टारन हेतु बहार वही है।।                       यहौ दुक्ख समय है जुरूरी सखे सबु संगी औ साथी जनात सही हैं।।                   भाखत चंचल या जियरा वयी दीनन नाथ कै संगी सही हैं ।।3।।                        जौ जनम भवा तौ आये अकेले औ जानौ इहय वही जाना भी है।।                   ई स्वारथु कै संसारू समाजु  ई स्वारथु मा ही कुटुम्बनु भी है ।।                           भजु केवलु तू परमेश्वर का सखे  दुक्ख मुसीबतु टारतु भी हैं ।।                             भाखत चंचल सारी उमिरि कै लेखनहारी किताब भी हैं।।4।।                   आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल। ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी ,उ.प्र.।। मोबाइल.. 8853521398,9125519009।।

एस के कपूर श्री हंस

*।।क्रोध और अहंकार।।रिश्ते*
*और दोस्ती दरकिनार।।*
*।।विधा।।हाइकु।।*
1
क्रोध अंधा है
अहम  का  धंधा  है
बचो गंदा है
2
अहम क्रोध
कई   हैं  रिश्तेदार
न आत्मबोध
3
लम्हों की खता
मत  क्रोध  करना
सदियों सजा
4
ये भाई चारा
ये क्रोध है हत्यारा
प्रेम दुत्कारा
5
ये क्रोधी व्यक्ति
स्वास्थ्य सदा खराब
न बने हस्ती
6
क्रोध का धब्बा
बचके     रहना   है
ए   मेरे अब्बा
7
ये अहंकार 
जाते हैं यश धन
ओ एतबार
8
जब शराब
लत लगती यह
काम खराब
9
नज़र फेर
वक्त वक्त की बात
ये रिश्ते ढेर
10
दिल हो साफ
रिश्ते टिकते तभी
गलती माफ
11
दोस्त का घर
कभी  दूर  नहीं ये
मिलन कर
12
मदद करें
जुबानी जमा खर्च
ये रिश्ते हरें
13
मिलते रहें
रिश्तों बात जरूरी
निभते रहें
14
मित्र से आस
दोस्ती का खाद पानी
यह विश्वास
15
मन ईमान
गर साफ है तेरा
रिश्ते तमाम
16
मेरा तुम्हारा
रिश्ता चलेगा तभी
बने सहारा
17
दूर या पास
फर्क नहीं रिश्तों में
बात ये खास
18
जरा तिनका
आलपिन सा चुभे
मन  इनका
19
कोई बात हो
टोका टाकी मुख्य है
दिन रात हो
20
कोई न आँच
खुद पाक साफ हैं
दूजे को जाँच
21
खुद बचाव
बहुत  खूब  करें
यह दबाव
22
दोषारोपण
दक्ष इस काम में
होते निपुण
23
तर्क वितर्क
काटते उसको हैं
तर्क कुतर्क
24
कोई न भला
गलती  ढूंढते  हैं
शिकवा गिला
25
बुद्धि विवेक
और सब अपूर्ण
यही हैं नेक
26
जल्द आहत
तुरंत  आग  लगे
लो फजीहत


*(विधा।।मनहरण छंद 8  8   8  7)*

माँ कहे नहीं  जाना है।
खेलने  नहीं  आना  है।
कॅरोना का   जमाना है।
*बच्चे    रहें   घर    में।।*

बस     पढ़ना    पढ़ाना।
घर का ही खाना खाना।
दस     बार    धुलवाना।
*अच्छे    रहें   घर   में।।*

बस     ड्राइंग      बनायो।
घर में खेलो     खिलाओ।
तुम सीखो ओ सिखाओ।
*बचें     रहें     घर      में।।*

समय   ठीक    नहीं    है।
बीमारी थमी    नहीं     है।
कॅरोना  कमी   नहीं     है।
*सच्चे      रहें    घर      में।।*

कैरम  ओ   लूडो     खेलो।
खराब वक़्त  को     झेलो।
जो कुछ मिलता     ले लो।
*पर     रहें    घर         में।।*

माँ  पिता    हाथ  बटाओ।
घर      समय      बिताओ।
बीमारी को न     बुलाओ।
*बच्चें    रहें     घर       में।*


*।।अहंकार नहीं,  इरादा , है*
*जीवन सफल की परिभाषा।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
सबसे बड़ी पूंजी  अच्छे
विचार और आशा है।
एक यही नियम कि मन
में आये न निराशा है।।
जो भाये न स्वयं  को  न
करें दूसरों के   साथ।
एक सफल   जीवन  की
सरल  परिभाषा है।।
2
विचारऔर व्यवहार यह
दोनों हमारे श्रृंगार हैं।
दुनिया को केवल  इनसे
ही    सरोकार    है।।
धन और बल  का केवल
सदुपयोग ही    हो।
कर्तव्य पूर्ण हो तभी  तो
आता अधिकार है।।
3
इरादे तक़दीर बदलने का
राज़      होते    हैं।
कर्मशील लकीरों के नहीं
मोहताज होते  हैं।।
जो सीखते हैं असफलता
के   अनुभव   से।
आगे चल   कर उन्हीं   के
सर ताज होते हैं।।
4
अहम अच्छी   बात  नहीं
यह  टूट   जाता है।
गिरकर आसमां से   जमीं
पर फूट   जाता है।।
कुछ जाता नहीं   है  साथ
सिवाअच्छे कर्मों के।
धागा सांसों का  इक़ दिन 
जब छूट जाता है।।
*रचयिता।।एस  के  कपूर*
*"श्री हंस"।।बरेली।।*
मोब         9897071046
               8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-1
क्रमशः..…..*दूसरा अध्याय*
करब न जुधि मैं अर्जुन कहऊ।
अस कहि मौन तुरत तहँ भयऊ।।
      सुनि अर्जुन अस बचनइ राजन।
       कह संजय तब किसुन महाजन।।
बिहँसि कहेउ दोउ सेन मंझारी।
तजु हे अर्जुन संसय भारी।।
      कुरु न सोक जे सोक न जोगू।
       सोक न मन,मृत जीवित लोगू।।
कबहुँ न जे रह पंडित-ग्यानी।
साँच कहहुँ सुनु मम अस बानी।।
      आत्मा नित्य,सोक केहि कामा।
       अस्तु,सोक तव ब्यर्थ सुनामा।।
कल अरु आजु औरु कल आगे।
रहे हमहिं सब,रहहुँ सुभागे।।
       जे जन अहहिं तत्त्व-बिद-ग्यानी।
       नहिं अस धीर पुरुष अग्यानी।।
जानैं सूक्ष्म-थूल बिच अंतर।
नित्य-अनित्यहिं समुझहिं मंतर।।
       सरद-गरम, सुख-दुख संजोगा।
       छण-भंगुर ए इंद्रिय-भोगा।।
सहहु इनहिं अति मानि अनित्या।
हे कुंती-सुत ए नहिं सत्या।।
      इंद्रिय-बिषय न ब्यापै जोई।
       मोक्ष-जोग्य धीर नर सोई।।
नहिं अस्तित्व असत कै कोऊ।
रहहि सतत सत जानउ सोऊ।।
       अर्जुन, सुनु,अबिनासी नित्या।
        नित्य नास नहिं मानहु सत्या।।
दोहा-मानि सत्य अस मम बचन,जुद्ध करन हो ठाढ़।
        हे कुंती-सुत धीर धरु,रोकउ भ्रम कै बाढ़ ।।
                           डॉ0हरि नाथ मिश्र
                            9919446372 क्रमशः.......

नूतन लाल साहू

आ गया आषाढ़

सागर की उत्ताल तरंगे
व्याकुल हो कुछ मचल रही है
उठ पूरब से काला बादल
कड़क रहा है चमक रहा है
मानों यह संकेत है
आ गया आषाढ़
भू की प्यास मिटाने को वो
आतुर सी व्याकुल सी बदरी
आ नीचे चंचल बूंदे संग
भू से मिलना चाह रही है
मानों यह संकेत है
आ गया आषाढ़
कभी झर झर झर झर
कभी छल छल छल छल
तो कभी जोरों से बरसी
तन भी भींगा,मन भी भींगा
शीतल जल से सहला रही है
मानों यह संकेत है
आ गया आषाढ़
दौड़ पड़े है खेतों की ओर
ट्रैक्टर लिए किसान
मन प्रफुल्लित तन प्रफुल्लित
गूंज उठी है,खेत खलिहान
रिमझिम रिमझिम बरसते पानी में
कुछ अंधेरा कुछ उजाला
वाह, क्या समा है
उठ पूरब से काला बादल
कड़क रहा है चमक रहा है
मानों यह संकेत है
आ गया आषाढ़

नूतन लाल साहू

डॉ० रामबली मिश्र

साया (कुण्डलिया)

साया सबको चाहिये, साया का है अर्थ।
जो पाता साया नहीं, उसका जीवन व्यर्थ।।
उसका जीवन व्यर्थ, बिना आश्रय के जीता।
किंकर्तव्यविमूढ़, गमों की मदिरा पीता।।
कहें मिसिर कविराय, रहे चेतन मन-काया।
जिसके ऊपर होय, सदा ईश्वर का साया।।

साया उत्तम का करो, आजीवन यशगान।
मात-पिता-गुरु-ईश ही, जीवन के वरदान।।
जीवन के वरदान,भाग्य से मिलते उनको।
 जो सत्कर्मी वेश, किये धारण शुभ मन को।।
कहें मिसिर कविराय, जगत यह केवल माया।
जीवन है वरदान, मिले यदि दैवी साया।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

अभय सक्सेना एडवोकेट

कुंडलियां छंद
*************
आषाढ़ की बारिश
******************
अभय सक्सेना एडवोकेट
      ######
आषाढ़ की बारिश तपती धरा को शांत करती
धरा प्रफुल्लित मन से फिर सोलह श्रृंगार करती
सोलह श्रृंगार करती सभी को लुभाने लगी
पशु पक्षियों के संग गीत वो गाने लगी
अभय के अल्फाजों से होती बारिश फूलों की   
सभी को शीतलता देती बारिश आषाढ़ की।
************************
अभय सक्सेना एडवोकेट
48/268, सराय लाठी मोहाल
जनरल गंज,कानपुर नगर।
9838015019,8840184088
saxenaabhayad@gmail.com
स्व-रचित/मौलिक/ अप्रकाशित/सर्वाधिकार सुरक्षित

अमरनाथ सोनी अमर

लोकगीत- हिंडुली! 

बरसत पनिया असढबा महीनबा, 
चला हो चली ना, 
सखियाँ अपने हो खेतबा,       चला हो चली ना! 

धनिया का बिजहा ,                  ले चलीअपने खेतबा, 
बोबाँ हों संँइया ना, 
जब ता जामइ हो धनिया, 
नीका हो लागइ ना! 
बरसत पनिया असढबा महिनबा........ 

धनिया निराबइ ता ,            चलबइ हो सखियाँ, 
नीका हो लागइ ना, 
फुरफुर परइ हो, 
फुहरबा नीका हो लागइ ना! 
बरसत पनिया असढबा महिनबा......... 

धनिया ता उपजइ,              फसल बहु कटबइ, 
कुठिला भरी ना, 
अब ता माला माल होबइ, 
कुठिला भरी ना! 

बरसत पनिया असढबा महिनबा, चला हो चली ना, 
सखियाँ अपने हो खेतबा, 
चला हो चली ना!!! 


अमरनाथ सोनी "अमर "
9302340662

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम

विधा-कविता
विषय-जीवनयात्रा

जीवन यात्रा बड़ी अजब होती 
सुख अरु दुख का यह संगम होती।

यात्रा में मानव  बढ़ता जाता,
कभी हँसता कभी रोता जाता।
पर सच है साथी मेरे प्यारे,
हर पल यात्रा से सीखता जाता।
यात्रा एक शिक्षक होती है,
सुख अरु दुख का यह संगम होती।


कोई भी ग्रंथ उठा कर देखो,
वेद पुराणों में भी पाओगे। 
यात्रा एक हमसफर होती,
आदि से अंत तक इसे पाओगे।
यह मृत्यु के साथ बंद होती है,
सुख अरु दुख का यह संगम होती।

जीवन यात्रा बड़ी अजब होती 
सुख अरु दुख का यह संगम होती।

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम
तिलसहरी, कानपुर नगर

रामकेश एम यादव

मोहब्बत !    ( नज़्म )

बादलों को मोहब्बत है धरा से,
और धरा को मोहब्बत है बादल से।
दोनों को मोहब्बत है इस जहां से,
औ जहां को मोहब्बत है हरेक कण से।
मोहब्बत के बूते चल रही ये दुनिया,
प्रेम के धागे से बँधी है ये दुनिया।
बिना बादल के संसार रहेगा कैसे,
मोहब्बत बिना यह संसार चलेगा कैसे।
समर्पण है देखो! दोनों के अंदर,
इश्क भी तो है दोनों के अंदर।
जहां में जिस्म किसका टिका है,
जवानी का ज्वार कहाँ रुका है।
धरा के गर्भ से नवांकुर है फुटता,
फूल -फल से ही जग महकता।
छूता जब कोई रोम-रोम सिहरता,
अंग -अंग न वो बस में तब रहता।
मोहब्बत अगर परवान न चढ़ती,
इतनी हसीन ये दुनिया न रहती।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

अमरनाथ सोनी अमर

!! 
चौपाई- नया जमाना! 

नये जमाने अब तो आये! 
बेटी बाला  बहु  हरषाये!! 
घर  बैठे  शादी  हो  जाये! 
बिन श्रम बेटी दूल्हा पाये!! 

बेटी   पिता  अहं  में  छाये! 
बिन मन से उनकों बैठाये!! 
पूँछें   हाल  कहाँ  से  आये! 
फिरअभिवादन सादरपाये!! 

चाय, नाश्ता अतिथि करायें! 
असली खबरें अब तो पायें!! 
सुतविवाह हित हम तोआये! 
बेटी   हाथ   माँगने   आये!! 

मुझ दहेज लेना  नहिं भाये! 
केवल कन्या को हम पायें!! 
जो कुछ खर्चा आप बतायें! 
हम लेकर हाजिर हो जायें!! 
 
अमरनाथ सोनी" अमर "

9302340662

प्रवीण शर्मा ताल

*भक्ति रस रोला छन्द*

कृष्णा माखनचोर,सुदामा से यह बोला।
आज चले हम मित्र,माँगने लेकर झोला।।
आटा -चावल- दाल,मिले मैया को देते।
भोजन का आनंद,मस्त होकर हम लेते।।1

मीरा का गोपाल,चराते जंगल गैया।
मीरा की ही भक्ति,सुनो मेरी ही मैया।
वीणा - सुर में ताल,भजन में कृष्णा गावे।
रहकर भूखी-तृषा ,मुझे ही दही खिलावें।।2

मेरे  प्रभु गोपाल,धरा पर फिर से आओ।
 भूखी प्यासी गाय,हरा तुम चारा लाओ।
गो है आज अनाथ ,चराने फिर से  आओ।
एक बार  प्रभु रूप,  ग्वाल फिर से दिखलाओ।।3


मीरा कहती नाथ,मलाई माखन खाओ।
काठी मथनी डोर, खींचने तो घर आओ।
मैं देखूं गोपाल,तुझे ही माखन खाते।
छुपके- छुपके द्वार,गाय को घास खिलाते।।4

जग में सूरज चाँद, धरा जगदीश बनाए।
धरती पर ही जीव,यही प्रभु गिरधर  लाए।।
कण -कण में ही ईश,बसे रचते है माया।
नैया है मझधार ,उबारो दुख में  काया।।5

कहता है यह कौन,नहीं प्रभु कृष्णा आते।
मीरा जैसा गान,जरा सुर मय तो गाते।
कहता है यह कौन,नहीं प्रभु तो कुछ खाते।
शबरी के ही बेर,प्रेम से मनन खिलाते।।6

सुनकर आए कृष्ण, द्रोपदी दिल से बोली।
भरी सभा के बीच ,आज फैलाई झोली।
प्रभु साड़ी को खींच, रहा है चीर बढ़ाओ।
हे प्रभु !दीना नाथ, आज मम लाज बचाओ।।7

आओ मेरे नाथ,द्वारकाधीश को पुकारी
सुबह -शाम यह  कृष्ण,बाल बलराम दुलारी।
करती मीरा भजन,हर्ष से माखन देती।
 वो माखन का भोग, प्रसाद स्वयं भी लेती।।8

*✍️प्रवीण शर्मा ताल*
*@स्वरचित मौलिक रचना*

सुधीर श्रीवास्तव

************
आइए ! बीती बातों को बिसारें
अपना आज सँवारें।
जो बीत गया उसे 
सुधार तो नहीं सकते
फिर उसी चिंता में क्यों घुलते?
अब तो बस आज की ही सोचिए
कल की कमियों को 
अब से दूर कीजिए,
कल फिर न पछताना पड़े
ऐसा कुछ कीजिए।
जीवन चलने का नाम है
सदा आप भी चलते रहिए,
रात गई बात गई आगे बढ़िए
बेकार की चिंता में डूबे रहने से
कुछ हासिल तो होगा नहीं।
माना कि बीता कल अच्छा नहीं था
उसे सपना समझ भूल जाइए
उठिये, बुलंद हौसले के साथ
हँसते मुस्कुराते हुए
आज को सँवारिए।
● सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
© मौलिक, स्वरचित

रवि रश्मि अनुभूति

         एक प्रयास 
*********
बह्र ----
2122    1212    22

हिंद की यह धरा सुहानी है .....
प्यार की ये सदा कहानी है .....

खुशनुमा आज तो हैं सब राहें .....
हर डगर प्यार की निशानी है .....

रोक दें राह दुश्मनी की हम .....
राह प्यारी अभी दिखानी है .....

रूप मलिका यहाँ रही देखो .....
वाह हर ओर शादमानी है .....

रंजिशें छोड़ कर बढ़ो आगे .....
प्यार से हर अदा सजानी है .....

कोकिला कंठ से ज़माने में .....
कूक न्यारी अभी लगानी है .....

देश के गीत हम सुनो गायें .....
एकता की नज़्म सुनानी है .....

आज भारत विजय करें हम तो ..... 
चीन की चीज़ हर जलानी है । 
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(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '
मुंबई   ( महाराष्ट्र ) ।
######################
●●
C.
🙏🙏समीक्षार्थ व संशोधनार्थ ।🌹🌹

डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी

*राम बाण🏹अपनों से ही द्वंद कराये*

        अपनों से ही द्वंद करायें।
     बिना युद्ध के जंग करायें।।
 घऱ-घर ज्वाला धधक रही है।
    आग लगी है कौन बुझाये।।

 गली सड़क में भीड़ लगी है।
      चौपालो में होड़ लगी है।।
          महारोग फैला है ऐसे।
        मँहगाई बढ़ती है जैसे।।
         मौतें कैसी बढ़ते जाये। 
 काल खड़ा है मुँह को बाये।।

        कोई टीका लगा रहे हैं।
       सोये को वे जगा रहे हैं।।
    कहीं दोगली भाषा चलती।
    मौतों में भी आशा पलती।।
      आशाओं के बादल छाये।
    बहती लाशे उन्हें दिखाये।।

       समझौते में दल थे आगे।
     छिपते हैं अब भागे-भागे।।
          मौके पर वे बात करेंगे।
      कथा कहानी और गढ़ेंगे।।
   भ्रम के सेवक भूख दिखाये।
        दर्द दवा के रोग लगाये।।

    कहीं वैक्सीन की है चोरी।
     कोई करता सीना जोरी।।
    पैसों ने क्या खेल किये हैं।
    हवा बेचकर बेल लिये हैं।।
  हक माँगों की आश जगाये।
   कौम खड़ी है घात लगाये।।

        राम कहेंगे देश सँवारो।
  भ्रमजीवी को दूर निकारो।।
  सही राह के पथिक नहीं है।
जो है पर वे व्यथित नहीं हैं।।
    श्रम सेवा के भाव जगाये।
   सोच बदलने द्वार सजाये।। 
*डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी*

मधु शंखधर स्वतंत्र

*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*
      *माली*
---------------------------------
◆ माली सीचें बाग को, कुसुमित होते फूल।
शोभित सुंदर वाटिका,धन्य धरा शुभ मूल।
धन्य धरा शुभ मूल, हरित तरुवर  बहु भाए।
फल आच्छादित वृक्ष,  देख मन बहु हर्षाए।
कह स्वतंत्र यह बात, धरा हो कहीं न खाली।
एक मंत्र ही याद , सतत् रखता है माली।।

◆ माली अभिभावक बना, पालन शुभ कर्तव्य।
संकल्पित नव भाव से, रूप बनाए भव्य।
रूप बनाए भव्य, ईश की कृपा समाए।
जीवन दाता धर्म, कर्म ही मन को भाए।
कह स्वतंत्र यह बात, पवन से झूमे डाली।
थिरके कुसुमित पुष्प, देख हर्षित  है माली।।

◆ माली कोमल भाव से, सदा लगाए बाग।
प्रेम, धैर्य  अरु साधना, अति शोभित अनुराग।
अति शोभित अनुराग, सतत् जीवन सुख पाता।
बीज लगाए पौध, पौध से वृक्ष बनाता।
कह स्वतंत्र यह बात, सभी यह प्रण लो खाली।
एक लगाओ वृक्ष, सीख देता यह माली।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज✒️*
*27.06.2021*

डॉ० रामबली मिश्र

कामना (सजल)

आप आये नहीं कामना के लिये।
क्यों न हिम्मत हुई सामना के लिये।।

कामना एक अंकुर धराधाम पर।
सींच इसको सदा भावना के लिये।।

मार देना नहीं मूल विकसित करो।
जीव बनना स्वयं साधना के लिये।।

पावनी चिंतना का यशोगान हो।
जाग जी भर मनुज वंदना के लिये।।

कामना को कुचलता नहीं है मनुज।
दनुज जीता सतत यातना के लिये।।

प्रिय जहाँ भाव में प्रेम का सिंधु है।
वह न जीता कभी वासना के लिये।।

कामना को समझ मत कभी वासना।
कामना जी रही शिवमना के लिये।।

शिवमना है जहाँ सत्य जीवित वहाँ।
सत्य जीता सहज सज्जना के लिये।।

कामना है बुलाती सकल विश्व को।
आप आओ रहो जन-धना के लिये।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*वर्षा*(चौपाइयाँ)
उमड़-घुमड़ नभ बदली छायी।
झूम-झूम  कर  वर्षा  आयी।।
सोंधी-सोंधी खुशबू आती।
हर कोना महि का महकाती।।

बूढ़ी नदी बहे इठलाती।
जल-जीवों को गले लगाती।।
धरा ओढ़कर धानी चुनरी।
लगे नवोढा सुंदर-सँवरी।।

दामिनि-दमक-चमक-नभ शोभित।
घन-मंडित-आभा मन मोहित।।
विरहन-विरही-हिय हुलसाता।
मधुर मिलन-भाव मन भाता।।

वन - उपवन - पर्वत  हर्षाते।
वर्षा-जल  में  मुदित नहाते।।
धरा  तृप्त  हो  पाकर  पानी।
सब ऋतुओं  की  वर्षा  रानी।।

पंक्ति-बद्ध दादुर की वाणी।
लगती वेद-ऋचा कल्याणी।।
धन्य-धन्य  हे  वर्षा  रानी।
बिना  दाम  ही  देती पानी।।
        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
           9919446372

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--
221-2122-221-2122
क़िस्मत जहां में होती ऐसी किसी किसी की 
ख़्वाहिश हरेक पूरी हो जाये आदमी की 

जिससे शुरू हुई थी बस बात दिल्लगी की
वो बन गयी है मूरत अब मेरी बंदगी की 

उसको चटक भटक की होगी भी क्या तमन्ना
महबूब कर रहा हो तारीफ़ सादगी की 

 वो चाँद आ रहा है बरसाता चाँदनी को 
आफ़त में जान आई अब देखो तीरगी की

हर शेर मेरा उसकी लिख्खा है डायरी में
दीवानी हो गयी है वो मेरी शायरी की 

साक़ी तेरी नज़र से पी पी के रोज़ साग़र
आदत सी हो गयी है अब हमको मयकशी की 

बस ख़्वाब ही दिखाता जाता हो जो बराबर
हमको नहीं ज़रूरत है ऐसी रहबरी की 

करते हैं लोग मेरी तारीफ़ पीठ पीछे 
सारी कमाई  *साग़र* बस यह है ज़िन्दगी की 

🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली
26/6/2021

मन्शा शुक्ला

परम पावन मंच का सादर नमन
       सुप्रभात
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
............................


माखन चोर  कन्हैया मेरों
चित्त चुराय के ले गयों मेरों
फोंड़ मटुकिया माखन खायें
ग्वाल बाल संग धूम मचायें
चित्र लिखित सी रही मैं थाड़ी
अधर मौन मुख आवें न वाणी.......2
माखन चोर...............................।

वेणू   मधुर  बजावें   मनहर
सुध बुध मेरी   लीन्ही  है हर
साँवली  सूरत  मोहनी मूरत
बलि बलि जाँऊ तुम पर गिरधर
भक्तन हित  प्रभु लीला  करते
प्रेम बशीभूत ओखल से बँधते.....2
माखन चोर.......................।

गेंद खेलन का करके बहाना
नागनाथ  बिष मन  का हरते
 लीला चीर हरण की करके
निति ज्ञान का  सन्देशा  देते
प्रबलप्रेम  के  पाले पड़कर
छाँछ हेतु नृत्य गिरधर करतें.....2
माखनचोर........................।।

मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर

सुधीर श्रीवास्तव

पथिक
******
पथ कैसा भी हो
कठिन हो या सरल हो
चलना आसान नहीं होता है,
फिर भी चलना ही होता है
आगे बढ़ना ही होता है,
सावधान भी रहना ही पड़ता है।
आसान पथ समझ
लापरवाह नहीं हो सकते,
मुश्किलों भरा पथ हो तो भी
डरकर रुक नहीं सकते।
जीवनपथ हो या यात्रा पथ
हरहाल में चलना ही पड़ता है,
पथिक हैं हम सब 
पथिक को पथ तो निरंतर
तय करना ही पड़ता है
आगे बढ़ना ही पड़ता है।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

रामबाबू शर्म राजस्थानी

हाइकु..
        🌾 नारी की महिमा🌾
     
                नारी से ही है
               पहचान जग में
                महिमा जानें ।
           🤷‍♀🤷‍♀🤷‍♀🤷‍♀🤷‍♀
                कभी न टूटे
             सरल कोमलता
               लक्ष्मी महिमा ।
           🕉🕉🕉🕉🕉
               तीर्थ समान
             समझे सब बात
              सेवा क्यों नहीं ।
           🙏🙏🙏🙏🙏
               जीवन लीला
             टूटे नही विश्वास
                यही संस्कार ।
          👫👫👫👫👫
                सर्व गुणों की
              यह मात स्वरूपा
                महिमा न्यारी ।
          👏👏👏👏👏👏
                पूजा की थाली
              यह बात निराली
                 मन को भाती ।
          🐚🐚🐚🐚🐚🐚
       ©®
          रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-4
क्रमशः......*पहला अध्याय*
संकरबर्ण होंय कुलघाती।
नरकहिं जाँय सकल संघाती।।
       पिण्डदान-जलक्रिया अभावहिं।
       केहु बिधि पितर मुक्ति नहिं पावहिं।।
अनंत काल रह नरक-निवासा।
होवहि जब कुल-धर्महि-नासा।।
      सुनहु जनर्दन हे बर्षनेया।
      कुल-बिनास नहिं लेबउँ श्रेया।।
मिलै न सुख निज कुल करि नासा।
सुनहु हे माधव,मम बिस्वासा ।।
      करिअ न जानि-बूझि बिषपाना।
       जे अस करै न नरक ठेकाना।।
राज-भोग,सुख-भोग न मोहा।
हम बुधि जनहिं न कछु सम्मोहा।।
       अस्तु,सुनहु हे मीत कन्हाई।
       अघ करि,जदि सुख, मोहिं न भाई।।
दोहा-रन-भुइँ जदि धृतराष्ट्र-सुत,सस्त्रहीन मोहिं जान।
        घालहिं,मों नहिं रोष कछु,तदपि चाहुँ कल्यान।।
        अस कहि के अर्जुन तुरत,जुद्ध मानि दुर्भाग।
        बान औरु धनु त्यागि के,बैठे रथ-पछि-भाग।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र
                          9919446372
                     पहला अध्याय समाप्त।

कुमकुम सिंह

तितली

मेरे सपने में आई रंगीन तितलियां ,
 तितलीयां  कहने लगी मुझसे चल हवा में उड़ ।
अपनी पंखों को फैला थोड़ी सी मुस्कुरा ,
तुम भी थोड़ा सा हंस लिया करो ।
अपने लिए भी जी लिया कर ,
खुद को इतना मत तड़पा ।
मेरी तरह हवा में लहरा,
 कुछ तो गुनगुना।
 बहुत खूबसूरत थी वह हसीन सपने,
 मानो जैसे मैं वादियों में उड़ने लगी।
 हवाओं में खुशबू बिखेरने लगीं,
 तितलियों की तरह इठलाती और बलखाती रही।
 कभी इस डाल दो कभी उस डाल को चुमती रही, मदमस्त होकर इधर से उधर घूमती रही ।
ना जाने कब आंख खुली,
 और सारे सपने टूट कर बिखर गए ।
मैं फिर से वापस वही अपने आप से मिली,
 कितने हसीन थे वो पल ।
 काश हम भी तितली होते,
 तो अपने पंखों को हवा में खूब लहराते।
 ऊंची ऊंची उड़ान भरते,
 कभी जमीन तो कहीं आसमान की ख्वाब देखते। लिखने को तो पूरी कायनात कम पड़ जाते हैं, 
परंतु आज सपने को यहीं छोड़कर कल कुछ और लिखते।
            कुमकुम सिंह

एस के कपूर श्री हंस

प्रेम।।*
*।।शीर्षक।।प्रेम से परिवार*
*बनता स्वर्ग समान है।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
परिवार छोटी सी   दुनिया
प्यार का  इक   संसार  है।
एक अदृश्य स्नेह प्रेम का
अद्धभुत सा   आधार   है।।
है बसा प्रेम  तो  स्वर्ग  सा
घर   अपना   बन    जाता।
कभी बन्धन रिश्तों का तो
कभी मीठी     तकरार   है।।
2
सुख  दुख  आँसू   मुस्कान
बाँटने का परिवार है  नाम।
मात पिता   के   आदर  से
परिवार बने है  चारों  धाम।।
आशीर्वाद,स्नेह,प्रेम ,त्याग
की डोरी से बंधे होते  सब।
प्रेम  गृह की छत  तले  तो
परिवार  है   स्वर्ग   समान।।
3
तेरा मेरा नहीं हम  सब का
होता    है     परिवार     में।
परस्पर  सदभावना बसती
है  यहाँ हर      किरदार  में।।
नफरत ईर्ष्या का  कोई भी
स्थान नहीं  घर  के  भीतर।
प्रभु स्वयं ही आ बसते बन
प्रेम की मूरत घर  संसार में।।


*।।जीवन ,,,,सहयोग व संघर्ष*
*का दूसरा नाम।।*
*।।विधा।।हाइकु।।*
1
सवाल भी है
यात्रा ऊपर नीचे
जवाब भी है
2
जीवन भाषा
बिना रुके चलना
ये  परिभाषा
3
रूठो मनाना
कभी खुशी या गम
जोश जगाना
4
भागती दौड़
यहाँ अनेक मोड़
मची है होड़
5
जिंदगी जंग
बहुत निराली है
होते हैं दंग
6
घृणा ओ प्यार
हर  रंग  इसमें
हो      एतबार
7
रूप अजब
अद्धभुत है यह
है ये गज़ब
8
दोस्ती संबंध
चले यकीन से ही
ये अनुबंध
9
ये हो दस्तूर
दुनिया में जीने को
प्रेम जरूर
10
ये इकरार
निभाना जरूरी है
नहीं इंकार
11
नहीं बिखरो
संघर्ष से संवरो
तुम निखरो
12
एक  दस्तूर
प्रेम हो भरपूर
ये हो जरूर
13
कीमती शय
यकीन की दौलत
टूटे  न   यह
*रचयिता।एस के कपूर*
*"श्री हंस"।बरेली।*
मो    9897071046
       8218685464

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

                                नृप होता यदि सारे जग का,                       क्षीर सिन्धु मा रहता।।                             मगरमच्छ सेनापति होता,                           ह्वैल को मन्त्री चुनता।।                         बाकी जीव का पहरा होता,                      पोत ना कतौ गुजरता।।                          सूर्य चाँद रखवाली नभ की,                   नित ध्रुव निशा चमकता।।                         आतंक कलह थल पर नहि होता,              रामराज्य डग भरता।।                                दैहिक दैविक ताप ना होते,                     भौतिक ना कहूँ जमता।।                       यमदूतों को कैद कराता,                        रावन कहीं ना जमता।।                         देवी देव मौज नभ करते,                        भैरव पहरा भरता।।                             खानपान की कमी ना होती,                      वयरस कतौ ना जमता।।                        जलनिधि सबु अगवानी करते,                   पर्वत  हामी भरता ।।                              चंचल राजकाज जग होता,                     मायाजाल ना रमता।।                           आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल। ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी ,अमेठी,उ.प्र.। मोबाइल.8853521398,9125519009।।

स्नेहलता नीर

माहिया छंद
*********
1
लगता सबसे न्यारा
दिल में  बसता  वो
साजन  मेरा प्यारा
2
तुम दूर नहीं  जाना
तुमको अब  मैंने 
अपना सब कुछ माना
3
जग बैरी सारा है
कैसे समझाएँ
ये पहरा कारा है
4
मदिरा की प्याली है
चंचल सी चितवन
अधरों पर लाली है
5
आया कोरोना है
भय कंपित सारा
जन -मन का कोना है।
6
विरहा की मारी हूँ
आ  जाओ साजन
मैं अति दुखियारी हूँ
7
तू जब मुस्काती है
जादूगरनी सी
ये चित्त चुराती है
8
कोयल की सी बोली है
चाल हिरनिया सी
सजनी तू भोली है
9
मिलने आया बादल
शोर मचाती क्यों
क्या पागल है पायल 
10
दुख की बदरी बरसी
दर्शन को उनके
उम्मीद बड़ी  तरसी

-स्नेहलता'नीर'
प्रीत विहार रुड़की,उत्तराखण्ड

सुधीर श्रीवास्तव

भूला इंसान
**************
बड़ा अजीब सा लगता है
कि हम विकास के पथ पर
आगे बढ़ रहे हैं,
आधुनिकता को विकास का
पैमाना मान रहे हैं,
पर हम अपनी ही संस्कृति
सभ्यता और परम्पराओं से भी
दूर हुए जा रहे हैं,
मगर अफसोस तक भी
नहीं कर रहे हैं।
अफसोस करें भी तो कैसे करें?
जब हम इंसानियत और
संवेदनाओं से बहुत दूर जा रहे हैं।
शिक्षा का स्तर बढ़ा
रहन सहन का स्तर भी,
परंतु बहुत शर्मनाक है कि 
हमारी संवेनशीलता का स्तर
लगातार गिर रहा है,
गैरों के लिए तो किसी को
जैसे दर्द ही नहीं हो रहा है,
अपनों के लिए भी अब इंसान
लगता जैसे गैर हो रहा है।
इंसान इंसानियत भूल रहा
सच कहूँ तो ऐसा
बिल्कुल नहीं है,
बल्कि सच तो ये है कि
इंसान शायद भूल रहा है कि
वो भी एक अदद इंसान है।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा, उ.प्र.
      8115285921
©मौलिक, स्वरचित

डाॅ० निधि त्रिपाठी मिश्रा

*मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय* 

मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय,
गठरिया सम्भले ना सम्भराय।

पाप- पुण्य की बँधी गठरिया,
धरी शीश पर झुकी कमरिया ,
ओढी-ढाँकी सगरी करनिया,
मटमैली हुई उजली कमरिया,
ओढी़ नहि पुनि जाय,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय।

कोख में प्रभु ने भेजा जब था,
नाम उसी का रटता तब था ,
आँख खुली जब देखी दुनियाँ,
सब भूली पिजरे की चुनियाँ,
मोह विवश होइ जाय,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय।

माया ने क्या खेल रचाया,
जग व्यवहार समझ नहि आया,
मोह पाश अतिशय है भाया,
और घेरती जाती माया,
माया हिय भरमाय,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय।

भव बन्धन में जकड़ गया जब,
तृष्णा अगन में झुलस गया तब,
ये माया कब पीछा छोडे़,
विपदाओं से नाता जोडे़,
ठगा ,लखत रहि जाय ,
मुसाफिर खडा़ खडा़ लुट जाय।


हिरनी जैसा मन अति व्याकुल,
भटकत निसदिन होकर आकुल,
मन सन्तोष परम धन नाही,
धीरज धरत नाहि मन माही
हाथ मलत रहि जाय,
मुसाफिर खडा़-खडा़ लुट जाय।

प्रियतम का घर पीछे छूटा,
प्रेम का बन्धन लगता झूठा,
कौन है ?अपना कौन पराया,
जग व्यवहार समझ नहि आया ,
संग में कुछ ना जाय ,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय...

बहुत विचारा ,सोचा समझा,
उलझन मन की सका न सुलझा,
अन्त समय जब निकट है आया ,
हरि सुमिरन ही अधिक सुहाया,
अँखियन नीर बहाय,
मुसाफिर खडा़ खडा़ लुट जाय।
गठरिया सम्भले ना सम्भराय।


.स्वरचित-
डाॅ०निधि त्रिपाठी मिश्रा,
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर ।

अरुणा अग्रवाल


शीर्षक "श्रीकृष्णजी की बांसुरी"

श्रीकृष्ण की बाँसुरी सुरीला,
आवाज मात्र से तन-मन,मचले,
चाहे राधा हो या मीरा या गोपी,
दौड़ा चला आऐ,कृष्ण ने बुलाऐ।


किसन की बांसुरी मोहन,
मधुर,सरगम,तान है सुनाऐ,
गोप,गोपा का मन चंचल-भाऐ,
न रह सकें धावन बिना,सुनके,रास।।



चाहे यमुना का तट हो या गंगा,
हर छोर से माधुर्यभरा सूर सुनाऐ,
अहोभाग्य है जो बेणु रहके बजाऐ
माखनचोर,नंदकिशोर बेणुधर कहलाऐ।।



श्रीकृष्ण हैं चपल,चंचल भाव से,
रह रह के मुरलीगंज,आप्लावित,
सुन गोपागंना,मटका छोड़,धं।ऐ,
कवि देखके सुन्दर नजारा,कलम,उठाऐ।।



श्रीकृष्ण लीला-माधव लीला रचे,
श्रीराधा,मीरा,रुक्मणी दौड़ लगाऐ
ऐसा पावन नजारा मनको है भाऐ
कृष्णचन्द्र हैं प्रेमानंद,लीलाचोर,कहलाऐ।।


अरुणा अग्रवाल।
लोरमी,छःगः,
🙏🌹🙏

सुधीर श्रीवास्तव

अपने
++=++
कौन अपना कौन पराया
सोचना है सोचते रहिए
ये बेकार की बातें।
न कोई अपना न ही पराया
जो हमें अपना समझे ही नहीं
सुख दु:ख भी मिलकर बाँटे,
अच्छा बुरा समझाये
हमारे गलत कामों की राहों में
दीवार बन जाये,
अच्छे कामों में 
समय के अनुकूल
साथ निभाये, हौसला बढ़ाये
वो ही अपना कहलाये।
अपना होने का दँभ भरे
स्वार्थ का लबादा ओढ़े
अपना अपना रटता हो
विश्वास दिलाता रहे
नुकसान भी पहुँचाता रहे
गलत राहों पर भी ले जाये
ऊपर से हौसला भी बढ़ाये,
अच्छे कामों और मेरी उन्नति में
रोड़ा अटकाए वो नहीं अपने।
अपने सिर्फ़ अपने होते हैं
आजकल तो अपने भी सपने होते हैं,
अरे अपने तो वो होते हैं
जो रिश्ते नातों में नहीं होते
फिर भी अपनों से भी अपने होते हैं,
अपना बनकर चालें नहीं चलते
दूर हो जायें तो सपना बन जाते हैं
आँखों में आंसू बन
हमेशा याद आते हैं,
सदा दिलों में बसे रहते हैं
बस ! वो ही अपने हैं।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
©मौलिक, स्वरचित

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