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अब मरने को जी करता है....

अब मरने को जी करता है....

साथ अगर तेरा मिल जाता, जाने क्या से क्या हो जाता।

देख  रहे  हो हालत मेरी, कैसे बदलें चाहत तेरी।

जीवन की पथरीली राहों पर, चलने से मन डरता है।

अब मरने  को जी करता है।।


ख़ुद्दारी  की  ऐसी  दृष्टि, नफरत की हर ओर से वृष्टि।

शोक हमारा हृदयकुंज है, तमस भरा दिख रहा पुंज है।

निर्धनता-निर्बलता का अपराध बोध पल-पल करता है।

अब मरने को जी करता है।।


नाश नगर में घूम रहा हूं, ख़ुद को खुद में ढ़ूंढ़ रहा हूं।

छल प्रपंच के अमर बेल में, जानें कैसे झूल रहा हूं।

जिंदाशव हू़ं नवजीवन को ढूंढ रहा हूं, छलक अश्रु से सब दिखता है।

अब मरने को जी करता है।।


जीवन के पथ पर चलते, रासरंग से यौवन के उन्माद भरे थे।

ख़ुद के भूलों के अनुभव पर, यूं अधूरी अंधेरी सी रात भरे थे।

सपने हों साकार सभी, स्मृति की चांदनी में सब उभरता है।

अब  मरने  को  जी  करता  है।।

  दयानन्द त्रिपाठी दया

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

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