एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।हर लफ्ज़ तेरा बन जाये मशाल*

*कलम से अपने वह फरमान लिखना।।*


जो मन  को  खुश  कर   सके

हमेशा   वह  सकून   लिखना।

जो गिरा सके दीवार भेदभाव 

की   वह    कानून   लिखना।।

मुरझाए न कभी  किसी चेहरे

की   रोशनी    और     रौनक।

कलम से  अपनी हमेशा  ऐसा

जज्बा जोशो  जनून  लिखना।।


पहले इंसान बनना और  फिर

आगे तुम    कलमकार  बनना।

अपने से छोटे और बड़ों दोनों

के लिए तुम सरोकार   बनना।।

बस लिखना  ही काफी  नहीं

शुरुआतअपने आचरण से हो।

जो सिल   सके   हर टूटे रिश्ते 

की तुरपाई वो दस्तकार बनना।।


दृढ़ता,करुणा,ज्ञान, निर्णय,हर

गुण लिखना   अपने लेखन में।

बुद्धि,विवेक,दूजों को  समझने

का सुर दिखनाअपने लेखन में।।

कभी अहंकार , प्रतिशोध, ईर्ष्या

आने नहीं पाये तेरी शब्दावली में।

कदापि झूठ के  हाथों  सच  मत

बिकना     अपने    लेखन     में।।


हर कदम पर मिटे   बुराई  कुछ

ऐसा तुम     व्याख्यान  लिखना।

शब्द बने मशाल  तुम्हारे   कुछ

ऐसा तुम    फरमान     लिखना।।

लफ़्ज़ों में   तुम्हारे   हो   ताकत

सारी     तस्वीर     बदलने   की।

जो नहीं कह   पाया हर आदमी

दिल के तुम वहअरमान लिखना।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।*

मोब                9897071046

                      8218685464

निशा अतुल्य

 बालगीत

28.12.2020



चलो चले हम राह बनाए 

शिक्षा का एक दीप जलाए ।

नौनिहाल कुछ बन कर निकले 

ऐसी मिल कर अलख जगाए ।

चलो चले हम राह बनाए 

शिक्षा का एक दीप जलाए ।।


नन्हे बालक स्वस्थ रहें सदा 

नए नए आयाम बनाए ।

स्वस्थ राह पर इन्हें चलाए 

इनको हम ही योग सिखाएं ।

चलो चले हम राह बनाए 

शिक्षा का एक दीप जलाए ।।


घर घर फिर उजियारा होगा 

शिक्षा का जब सूर्य उगेगा ।

बेटी बेटा बनगे अफसर 

मिल कर हम प्रण दोहराएं ।

चलो चले हम राह बनाए 

शिक्षा का एक दीप जलाए ।।


रोग शोक मुक्त रहे जीवन

अध्यात्म की राह चले सब ।

सभ्यता संस्कृति हमारी 

नव पीढ़ी को हम समझाए ।

चलो चले हम राह बनाए 

शिक्षा का एक दीप जलाए ।।


स्वरचित

निशा"अतुल्य"

डॉ० रामबली मिश्र

 माँ सरस्वती वंदना


माँ विद्याधर को प्रणाम कर।

वंदन कर नित अभिनंदन कर।।


वही ज्ञान की सृष्टि विधाता।

उन्हें देख काम जल जाता।।


परम सौम्य शांत मधु वाणी।

माँ को पा खुश सारे प्राणी।।


सद्विवेकिनी बुद्धिदायिनी।

ज्ञानावस्थित महा भवानी।।


बैठी हंस जगत विख्याता।

हंसवाहिनी बहु सुखदाता।।


पुस्तक स्वयं दिव्य निर्झरणी।

अक्षर शव्द सुवाक्य सुवरणी।।


शरद कालमय शरदोत्सव हो।

महा ज्ञानिनी ज्ञानोत्सव हो।।


वक्ता परम मधुर वचनामृत।

सुष्ठ पुष्ट सुगठित रचनामृत।।


शीतल अतिशय पावन रसना।

महा काव्यमय शिव शुभ रचना।।


दिग्दर्शिका आर्य पंथ की।

सहज रचयिता वेद ग्रन्थ की।।


तुम बैठी हो वेदव्यास में।

तुम कबीर में तुलसिदास में।।


तुम्हीं सर्व सर्वत्र विचरती।

ज्ञान -इत्र बन सतत गमकती ।।


हो प्रसन्न वर दे हे माता।

बुद्धि प्रदान करो सुखदाता।।


दोहा-

 सदा प्रेम अरु ज्ञान का, दो माँश्री वरदान।

सुखी रहे सारा जगत,मिटे तिमिर अज्ञान।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

रवि रश्मि अनुभूति

 9920796787****रवि रश्मि 'अनुभूति '


    🙏🙏


  स्वदेश प्रेम         गीत   16 , 16

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देश कई हैं इस धरती पर , मेरा देश सभी से न्यारा .....

इसके लिए सब जान देंगे , मेरा देश सभी से प्यारा .....


सागर प्यारा लहराता है , माँ के पाँव पखारे हर पल 

पावन नदियाँ , पावन गंगा  , मीठा ही होता जिसका जल 

पूरे सपन यहाँ होते है , बहती सदा प्रेम की धारा .....

देश कई हैं इस धरती पर , मेरा देश सभी से न्यारा .....



समता की हम ज्योति लगायें ,भेदभाव तो हम सब भूलें 

मिलजुल कर यहाँ रहें हम सब  , सपनों के नभ को हम छू लें 

भाईचारे की बात करें , बहे प्रेम की ही रसधारा .....

देश कई है इस धरती पर , मेरा देश सभी से प्यारा .....


सब मिल हम त्योहार मनायें , होली रहे या फिर दिवाली 

उसी लीक पर हम चलो चलें , शिक्षा ली सुनो गुरुओं वाली 

एक बनें हम नेक बनें हम , लगता मानवता का नारा .....

देश कई हैं इस धरती पर , मेरा देश सभी से न्यारा .....


ऋषियों - मुनियों का है देश यह , जन्मे यहाँ पर माँ के लाल 

जिनसे हुआ अभी तक सुन लो , ऊँचा सदा भारत का भाल 

हरा भगा दिया दुश्मनों को , कोई कभी सैनिक न हारा .....

देश कई इस धरती पर , मेरा देश सभी से न्यारा .....


इसके लिए हम जान भी देंगे , मेरा देश सभी से प्यारा .....

देश कई इस धरती पर , मेरा देश सबसे न्यारा .....

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(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '

25.12.2020 , 4:42 पीएम पर रचित  ।

मुंबई  ( महाराष्ट्र ) ।

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C.c.

डॉ० रामबली मिश्र

 जाड़े की धूप    (दोहे)


सर्दी की मधुधूप का, लेते जा आनंद।

 पाता यह आनंद रस, अंधा य भी मतिमंद।।


जाड़े की इस धूप को, सुखदा औषधि जान।

कामदेव से भी बड़ा, यह अति ऊर्जावान।।


बंटती यह ऊर्जा सहज, नैसर्गिक निःशुल्क।

दे सकता कोई नहीं, इसका कथमपि शुल्क।।


धूप अगर मिलती नहीं, मर जाता इंसान।

कांप-कांप कर ठंड से, खो देता पहचान।।


जाड़े की यह धूप है, ईश्वर का वरदान।

मानव पाता मुफ्त में, ठंडक में यह दान।।


करे शुक्रिया ईश को, अदा सदा इंसान।

माने इस एहसान को, रखे ईश का मान।।


ईश्वर विरचित दिव्य है, सुंदर सुखद निसर्ग।

छटा निराली प्रकृति में, बसा हुआ है स्वर्ग।।


सकल प्राकृतिक संपदा, है ईश्वर की देन।

करना रक्षा प्रकृति की, यही देन अरु लेन।।


सीख प्रकृति से दान का, शिव पुरुषोत्तम मंत्र।

इस संस्कृति से खुद रचो, बनकर पावन तंत्र।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ. हरि नाथ मिश्र

 *संघर्ष*

पत्थर लुढ़क-लुढ़क के भगवान बनता है,

शैतान खा के ठोकर,इंसान बनता है।

करके मदद यतीमों की निःस्वार्थ भाव 

इंसान अपने मुल्क़ की पहचान बनता है।।

    होती हिना है सुर्ख़,पत्थर-प्रहार से,

    धीरज न खोवे सैनिक,सीमा की हार से।

    अपने वतन की माटी पर,प्राण कर निछावर-

    बलिदान की मिसाल वो, जवान बनता है।।

माता समान माटी, माटी समान माता,

परम पुनीत ऐसा संयोग रच विधाता।

जीवन में हर किसी को,मोकाम यह दिया है-

कर के नमन जिन्हें वो,महान बनता है।।

    लेना अगर सबाब, तुमको ख़ुदा का है,

    उजियार कर दो मार्ग जो,तम की घटा का है।

    भटके पथिक को रौशनी,दिखाते रहो सदा-

    करने वाला ऐसा ही निशान बनता है।।

वादा किसी को करके,मुकरना न चाहिए,

पद उच्च कोई पा के,बदलना न चाहिए।

धन-शक्ति के घमण्ड में,औक़ात जो भूला-


इंसान वो समझ लो,हैवान बनता है।।    महिमा कभी भी सिंधु की,घटते नहीं देखा,

    घमण्ड को समर्थ में,बढ़ते नहीं देखा।

   देखा नहीं सज्जन को कभी,कड़ुवे वचन कहते-

   नायाब इस ख़याल से ही,ईमान बनता है।।

जल पे लक़ीर खींचना, संभव नहीं यारों,

पश्चिम उगे ये भास्कर,संभव नहीं यारों।

आना अगर है रात को तो आ के रहेगी-

निश्चित प्रभात होने का,विधान बनता है।।

    ऐसे ही ज़िंदगी की गाड़ी को हाँकना,

    चलते रहो बराबर,पीछे न झाँकना।

    दीये की लौ समक्ष,तूफ़ान भी झुकता-

    तूफ़ान भी दीये का,क़द्रदान बनता है।।

पत्थर लुढ़क-लुढ़क के भगवान बनता है।।

                   ©डॉ. हरि नाथ मिश्र

                    9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 लोग नहीं क्यों बोलते ?   (दोहे)


लोग नहीं क्यों बोलते, बहुत अहं या दर्प?

मानव हो कर किसलिये ,बन जाते हैं सर्प??


मानव बनना अति कठिन, शैतानी आसान 

मानव बनने के लिए, हों समक्ष भगवान।।


बिन सुंदर आदर्श के, मानव बनता कौन?

पूछ रहा हरिहरपुरी, सारी दुनिया मौन।।


जिसको सत्संगति मिली, वही बना इंसान।

सदा कुसंगति में छिपी,बहुत भयंकर जान।।


मद में चकनाचूर मन, बन जाता शैतान।

करता रहता सहज मन, मानव का सम्मान।।


अपने को सब कुछ समझ, जो करता व्यवहार।

ऐसा दंभी मनुज ही, करता अत्याचार।।


मानव सार्थक है वही, जो करता संवाद।

जिसे प्यार संवाद से, वह शिव सा आजाद।।


हो कर मानव जो नहीं, करत मनुज से प्रीति।

इस नालायक के लिए, कुछ भी नहीं अनीति।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

सुनीता असीम

 नशे में चूर होते जा रहे हैं।

यही दस्तूर होते जा रहे हैं।

*****

कृपा तेरी हुई जिनपर कन्हैया।

वही   पुरनूर   होते  जा रहे हैं।

*****

हमें तो भा रहा है संग तेरा।

ग़मो से दूर होते जा रहे हैं।

*****

ये दुनिया तंज कहती है जो हम पर।

बशर  सब  क्रूर       होते जा रहे हैं।

*****

दिवाना वो हमारा हम हैं उसके।

सितम  बेनूर होते    जा रहे हैं।

*****

डराते थे सुनीता को जो डर भी।

चले   काफूर   होते   जा रहे हैं।

*****

सुनीता असीम

डॉ०रामबली मिश्र

 प्रीति-संगम    (सजल)


सदा प्रीति का संगम होगा।

प्रेम नीति का सरगम होगा।।


धोखे का व्यापार नहीं है।

लगभग दो का जंगम होगा।।


एक दूसरे को पढ़ लेंगे।

दृश्य सुहाना अंगम होगा।।


रट लेंगे हम सहज परस्पर।

एकीकरण शुभांगम होगा।।


नित नव नवल कला से भूषित।

दृश्य निराल विहंगम होगा।।


जग देखेगा सिर्फ एक को।

ऐसा अप्रतिम संगम होगा।।


जग की दृष्टि बदल जायेगी।

श्रव्य मनोहर सरगम होगा।।


यह आदर्श बनेगा पावन।

जल-सरोज का अधिगम होगा।।


डूब-डूब कर थिरक-थिरक कर।

मस्त मनुज मन चमचम होगा।।


पागल द्रष्टा योगी में भी।

दिव्य काम का उद्गम होगा।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 निर्मला शर्मा

 संघर्ष

सोना आग में तपकर 

ही कुंदन बनता है

लोहे को तपाते जितना

आकार में ढलता है

तितली करती संघर्ष

तो नवजीवन मिलता है

निज संघर्ष के कारण

सुदृढ़ उसको तन मिलता है

जीवन के संघर्ष 

मजबूत बनाते हैं

जीवन जीने की कला में

मनुज को दक्ष बनाते हैं

हुआ सफल वही जिसने

तूफानों को झेला है

चलता है जो साथ सभी के

कभी न रहे अकेला है


डॉ0 निर्मला शर्मा

दौसा राजस्थान

नूतन लाल साहू

 आव्हान


ना किसी के अभाव में जियो

ना किसी के प्रभाव में जियो

जिंदगी आप की है

बस अपने मस्त स्वभाव में जियो

खुद अपने हाथ से

खींचे भाग्य लकीर

क्योंकि ठेके पर कहां मिलती हैं

इंसानों की तकदीर

सिर्फ सदगुरु से प्रेरणा लेकर

लिख दो जीत का एक नया अध्याय

सहज नहीं हैं,समझ पाना

तकदीरो का राज

चिंता न करें,भविष्य की

और न ही बीते हुए पल पर रो

बड़ा खुशनसीब होता है वो इंसान

जो आज पर ही जीता है

ना किसी के अभाव में जियो

ना किसी के प्रभाव में जियो

जिंदगी आपकी है

बस अपने मस्त स्वभाव में जियो

नहीं बनाओ बहुत सारी योजना

समय इशारा करता है

इंसानों का सोचा हुआ सब कुछ

पूरा कहां होता है

जग में अनेकों ने कोशिश किया

धरा रह गया ज्ञान

परम पिता परमेश्वर जी को

अपने मन मंदिर में बसा ले

तेरा बिगड़े काम बन जायेंगे

ना किसी के अभाव में जियो

ना किसी के प्रभाव में जियो

जिंदगी आपकी है

बस अपने मस्त स्वभाव में जियो

नूतन लाल साहू

डॉ0हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-24

करन लगे मर्दन कपि दोऊ।

रिपुहिं पछारि-मारि तहँ उभऊ।।

    लातन्ह-घूसन्ह धूसहिं सबहीं।

    झापड़ मारि क थूरहिं तहँहीं।।

तोरि मुंड कहु-कहु कै दोऊ।

रावन आगे फेंकहिं सोऊ।।

     फुटहिं मुंड दधि-कुंड की नाई।

     लंक-भूमि जिमि दधिहिं नहाई।।

फेंकहिं पैर पकरि मुखियन कहँ।

गिरहिं ते जाइ राम-चरनन्ह पहँ।।

    जानि बिभीषन तें सभ नामा।

    भेजहिं राम तिनहिं निज धामा।।

बड़ भागी ते आमिष-भोगी।

लहहिं राम जे पावहिं जोगी।।

    अधिक उदार राम करुनाकर।

     ममता-समता,नेह-गुनाकर।।

प्रबिसे तब अंगद-हनुमंता।

लंक पुरी अस कह भगवंता।।

     मरदहिं लंक जुगल कपि ऎसे।

     सिंधु मथहिं दोउ मंदर जैसे।।

यावत दिवस लरे तहँ दोऊ।

आए तुरत साँझ जब होऊ।।

     तुरतै आइ छूइ प्रभु-चरना।

     पाए प्रचुर कृपा नहिं बरना।।

भए बिगत श्रम लखि प्रभु रामा।

सुमिरत कष्ट कटै जेहि नामा।।

     साँझ परे निसिचर-बल जागा।

     किए चढ़ाई ते वहिं लागा।

लखि निसिचर आवत कपि बीरा।

कटकटाइ दौरे रनधीरा ।।

    भिरे दोउ दल बड़ गंभीरा।

     मानहिं हार न कोऊ बीरा।।

निसिचर सभें होंहि मायाबी।

आमिष-भोगी जबर सराबी।।

    माया-बल तहँ करि अँधियारा।

    करन लगे बहु बृष्टि अपारा।।

पाथर-रुधिर-राख तहँ बरसहिं।

देखि निबिड़ तम कपि सभ भरमहिं।।

    जाने मरम जबहिं प्रभु रामा।

     भेजे हनु-अंगद तेहि धामा।।

कपि-कुंजर तब गे तहँ धाई।

पावक-सर रघुनाथ चलाई।।

     भे उजियार सहज तब तहवाँ।

     रह अग्यान-भरम-तम जहवाँ।।

तिल कै ताड़ तुरत प्रभु करहीं।

तिलहिं समान ताड़ अपि भवहीं।।

     पा प्रकास भे कपि-दल हरषित।

     निसिचर सभें भए बहु लज्जित।।

सुनि हुँकारि अंगद-हनुमाना।

भागि गए रजनीचर नाना।।

      पकरि-पकरि तब कपिदल निसिचर।

      डारहिं सागर,हरषित जलचर ।।

दोहा-खाहिं तिनहिं मछरी-उरग,खा-खा मगर अघाहिं।

         टँगरी पकरि क निसिचरन्ह,फेंकहिं कपि जल माहिं।।

                    डॉ0हरि नाथ मिश्र

                       9919446372

राजेंद्र रायपुरी

 😊  विनती नये वर्ष से  😊


लगी उम्मीद जो  तुमसे,

  उसे तुम तोड़ मत देना।

    भरी कुछ है खुशी झोली,

      उसे तुम  छोड़ मत देना।


नये ओ  वर्ष तुमसे  बस,

  यही   विनती  हमारी  है।

    बढ़े  मत  दूर अब  ये हो,

      जकड़ी  जो  बीमारी   है।


सताया   खूब   ही   इसने,

  करोना   नाम  है  जिसका।

    जमाया   पैर   इसने    जो,

      अभी तक है कहाॅ॑ खिसका।


चले  आओ न  दुख लाओ,

  दुखों  की   पीर  भारी   है।

    नये  ओ   वर्ष   तुमसे  बस,

      यही   विनती   हमारी    है।


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल


ग़ज़ल में मेरी उसका ही नूर है

सनम मेरा इससे ही मसरूर है


वो गाती तरन्नुम में मेरी ग़ज़ल

इसी से नशा मुझको भरपूर है


सुने बात मेरी वो कैसे भला

अदाओं के नश्शे में जब चूर है


मेरे फोन में उसकी डीपी लगी

 इसी की ख़ुशी में वो मग़रूर है 


किसी और जानिब भी क्या देखना 

नज़र में मेरी इक वही हूर है


ज़माने के तंज़ों की परवाह क्या

हमेशा से इसका ये दस्तूर है


ये ग़म जान ले ले न मेरी कहीं

मेरी हीर मुझसे बहुत दूर है


ख़ुशी से लगाती है वो माँग में

मेरे नाम का अब भी सिंदूर है


दुआएं गुरूवर की *साग़र*  हैं यह

मेरी हर ग़ज़ल आज  मशहूर है


🖋️विनय साग़र जायसवाल

मसरूर-प्रसन्न ,ख़ुश

जानिब-दिशा 

मग़रूर ,अभिमान ,घमंड

22/12/2020

बहर-फऊलुन फऊलुन फऊलुन फ्अल

डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 दिनांकः २५.१२.२०२०

दिवसः शुक्रवार

विधाः गीत 

विषयः कवि अटल

शीर्षकः अटल पुरोधा नमन करूँ


राजनीति   सदा    साहित्य.   कालजयी ,

अटल    पुरोधा   सादर  शत् नमन करूँ।

स्वर्णिम  भारत    माँ  इतिहास    बिहारी  

विनत अमर गायक  नायक  नमन करूँ। 


कविकुलभूषण राष्ट्र विनायक  अविचल,

नित समरसता    परिपोषक  नमन करूँ।

त्यागी     न्यायी    सत्कर्म        यायावर,   

भारतरत्न  पद्मविभूषित   नमन     करूँ।  


अजातशत्रु   सम   कालांतक   शत्रुंजय,

राष्ट्रवाद  उन्नायक  संघर्षक  नमन करूँ।

वाग्निपुण सारस्वत जन गण अधिनायक, 

भारत अटल  नायक सपूत   नमन करूँ। 


रीति   सम्प्रीति    नीति   मानवमूल्यक,

सौहार्द्र  हृद   बिहारी   मैं  नमन   करूँ।

राजनीतिक  महार्णव  रणनीति कुशल,

संकल्पित स्थितप्रज्ञ अटल नमन करूँ।  


सहज सौम्य सरल प्रकृति बरगद विराट,

निर्णेता    जेता   नेता    नमन      करूँ।

मृदुभाष  सदय  पर अद्भुत रण कौशल,

कारगिल   प्रणेता   विजयी  नमन करूँ। 


परमाणु   विस्फोट   दृढतर   निर्णायक,

रणबाँकुर रिपुसूदन  नित  नमन  करूँ।

धीर वीर  गंभीर प्रकृति साहस  सबल,

कूटनीतिज्ञ   रथयूथपति   नमन करूँ। 


कर निर्बाध सुगम  बाधित  दुर्गम पथ,

अटल  रण  महायोद्धा  मैं नमन करूँ।

अक्लान्त श्रान्त नित  भाग्य  विधाता,

निर्माता  नवभारत   युग  नमन  करूँ। 


बदले लकीर  ख़ुद  काल कपाल भाल,

आतुर स्वर्णिम कवि अतीत नमन करूँ।

अरुणिम प्रभात प्रगति सतरंग चहुँदिक,

गणतंत्र   शिरोमणि  सांसद नमन करूँ।


महापुरुष   पुरुषार्थ    विजेता नायक,

कोमल चारु  कविवरेण्य  नमन करूँ।

भारत माँ जयगान मुदित मन गायक,

ध्वज कीर्ति तिरंगा वाहक नमन करूँ।


चतुर्भुज  भारत  मार्ग  निर्माणक जय,

हिन्दी  गर्वोक्ति हृदय को  नमन  करूँ।

शाश्वत अनन्त धवल  हो कीर्ति नवल,

अमर गीत अटल बिहारी  नमन करूँ।


राष्ट्रवादी कवि✍️

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

रचनाः मौलिक (स्वरचित)

नई दिल्ली

डॉ.राम कुमार झा निकुंज

 दिनांकः २५-१२-२०२०

दिवसः शुक्रवार

विधाःकविता (गीत)

विषयः नववर्ष अटल 

शीर्षकः ❤️प्रीति मधुर नवनीत उदय🌅


पावन      मोक्षदा    एकादशी,

तुलसी  पूजन  पुण्य दिवस है।

अवतरण दिवस प्रभु यीशू का,

अटल खुशी उल्लास दिवस है।


आंग्ल   नूतन वर्ष  सुखमय हो,

जगदीश्वर शिव विष्णु सदय हों,

हो   जगत्पिता   मंगल   वर्षण,

नव शक्ति कृपा घर खुशियाँ हो।


नित सत्य शिवम सुन्दर मन हो,

लक्ष्य  अटल नित मंगलमय हो,

सिद्धान्त  सदा  सत्कर्म  अटल,

स्व विश्वास   निर्भीत  सबल हो।


निर्भेद  नीति  सद्भाव  हृदय  हो,

सहयोग  परस्पर मीत  सदय हो,

कर्तव्य निष्ठ   जन     भारतमय,

प्रीति मधुर  नवनीत   उदय   हो।


शुभ दिन  सुभग नित  हर्षित हो,

संकल्प  अटल  प्रगतिपरक  हो,

हो  अन्नपूर्ण   सब   गेह   वसन, 

जीविका   देय  नित  शिक्षा  हो।


रोग   शोक   आतंक  विरत  हो,

किसान मुदित  जय  जवान  हो,

विज्ञानपरक   चहुँदिक  विकास,

मुस्कान  सरस शुभ प्रकाश  हो। 


नव विहान    नववर्ष  अटल  हो,

पौरुष   बल  सौहार्द्र   साथ  हो,

मानवता   रक्षण  नैतिक    पथ,

पूरी   वसुधा  मन   कुटुम्ब   हो। 


क्षमा दया  शरणागत    मन  हो,

करुणा  ममता  भाव विमल हो,

परमार्थ   निरत  जन  सेवा मन,

बलिदान  वतन  तन  अर्पण हो। 


दीनार्त  क्षुधित  तृषार्त   न   हो,

न स्वतंत्र वतन  सत्ता सुख   हो,

निर्भीत   सबल  बेटी   शिक्षित,

नवशक्ति  पूज्य   नारी  जग हो। 


पिकगान मधुर   समरसता   हो,

मधुप  माधवी शान्ति  प्रदा    हो,

सुखद समुन्नत प्रमुदित जग मन,

विधिरेख श्रीश  शिव  सुन्दर  हो।


शुभकाम    हृदय   वर्धापन   हो,

नववर्ष अरुणिमा  मधुरिम     हो,

निर्माण      राष्ट्र    कल्याण  सर्व,

गूंजित  निकुंज पशु    विहंग  हो।


राष्ट्रवादी कवि✍️ 

डॉ.राम कुमार झा "निकुंज'

रचनाः मौलिक (स्वरचित)

नवदिल्ली

डॉ० रामबली मिश्र

 देखो…(चौपाई)


देखो घूर-घूर कर भाई।

यही प्रेम की शुद्ध दवाई।।


आँख न मूँद देख जगती को।

सींचो नयनों से धरती को।।


लाओ हरितक्रांति प्रिय वंदे।

प्रेमक्रांति अंतस में वंदे।।


घूरो किन्तु प्रेमवत प्यारे।

जैसे लगे प्रेम है द्वारे।।


असहज बनकर नहीं देखना।

सहज भाव से मिलकर रहना।।


सहज भाव में है परिवारा।

देख सहज बनकर संसारा।।


सदा सहजता में अपनापन।

नब्बे वर्षों में भी बचपन।।


उठतीं प्रेम तरंगें झिलमिल।

होती चाह रहें सब हिलमिल।।


रहे दृष्टि अति  सुंदर निर्मल।

साफ-स्वच्छ अति पावन उज्ज्वल।।


घूर-घूर कर खूब देखिये।

राही बनकर खूब पीजिये।।


मन-काया में दाग लगे ना।

काम वासना कभी जगे ना।।


यह शाश्वत सन्तों की वाणी।

देख प्रेम से सारे प्राणी।।


चाहे घूरो या कि निहारो।

सबको ईश्वर समझ पुकारो।।


इसी दृष्टि को विकसित कर लो।

खुद की जग की पीड़ा हर लो।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801


प्रेम करोगे।   (तिकोनिया छंद)


प्रेम करोगे,

सुखी रहोगे।

विश्व रचोगे।।


सुंदर मन बन,

स्वस्थ करो तन।

श्रम से अर्जन।।


घृणा न करना,

संयम रखना।

शीतल बनना।।


दिल से लगना,

मधुर बोलना।

इज्जत करना।।


रच मानवता,

दिव्य एकता।

सतत सहजता।।


बन आत्मवत,

रहो प्रेमवत।

खिलो सत्यवत।।


रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

सुनीता असीम

 बात दिल में जब बिठा ली जायगी।

आह मन की तब निकाली जायगी।

******

बद्दुआ दिल से किसी को दो नहीं।

क्या समझते हो कि खाली जायगी।

******

रूठकर मुँह फेरने की रीत भी।

ये नहीं हमसे संभाली जायगी।

******

हम गए जो रूठ तो ये आपकी।

साख भी कब तक बचाई जायगी।

******

किस तरह से कह रहे हो बात ये।

चार लोगों में     उछाली जायगी।

******

 हिज़्र की रातें    कटें गी ही नहीं।

प्रेम की होली ही जलाली जायगी।

******

 वक्त  जाने में      सुनीता है अभी।

कृष्ण छवि मन में बसाली जायगी।

******

सुनीता असीम

25/12/2020

दयानन्द त्रिपाठी दया

 आओ_दिसम्बर_25_को_तुलसी_पूजन_दिवस_मनायें...


तुलसी इस धरा का है वरदान,

धनुर्मास के बीच में करे लें इनका ध्यान।

मानव मात्र के लिए है अमृत समान,

भगवत्प्रीतिर्थ कर्म विशेष है इनका सम्मान।।


जो नर दर्शन तुलसी का करें,

हो   सारे   पापों   का   नाश।

जल    सिंचित   मानव   करे,

यमराज   ने    आयें    पास।।


अनुसंधानों   में   सिद्ध   हुई   है,

एंटी आक्सीडेंट  गुणधर्म  भरे हैं।

रोगों जहरीले द्रव्यों के विकारों से,

स्वस्थ  करने की  रसायन धरे है।।


जिस घर में  तुलसी  करती बास,

यमदूतों  का  नहीं  वहां  निवास।

पूजा में बासी फूल जल हैं वर्जित,

तुलसीदल-गंगाजल हैं परिगृहीत।।


मृत्यु    सम्मुख    हो    खड़ी,

तुलसी  का  करायें  जलपान।

पापों    से   झट   मुक्त   करे,

विष्णुलोक  में  मिले  स्थान।।


   दयानन्द_त्रिपाठी_दया

डॉ0हरि नाथ मिश्र

 नीति-वचन

         *नीति-वचन*-17

देहिं जलद जग अमरित पानी।

सुख-सीतलता बुधिजन-बानी।।

   संत-संतई कबहुँ न जाए।

   कीच भूइँ जस कमल खिलाए।।

नीम-स्वाद यद्यपि प्रतिकूला।

पर प्रभाव स्वास्थ्य अनुकूला।।

    गर्दभि गर्भहिं अस्व असंभव।

    खल-कर सुकरम होय न संभव।।

नहिं भरोस कबहूँ बड़बोला।

खल-मुस्कान कपट मन भोला।।

    दूध-दही-मक्खन-घृत-तेला।

    जदपि स्वाद इन्हकर अलबेला।।

पर जब होय भोग अधिकाई।

हो प्रभाव जस कीट मिठाई।।

   आसन-असन-बसन अरु बासन।

   चाहैं सभ अनुकूल प्रसासन।।

बट तरु तरि जदि पौध लगावा।

करहु जतन पर फर नहिं पावा।।

दोहा-रबि-ससि-गरहन होय तब,महि जब आवै बीच।

         बीच-बिचौली जे करै,फँसै जाइ ऊ कीच ।।

                   डॉ0हरि नाथ मिश्र

                   9919446372

नूतन लाल साहू

 आत्मविश्लेषण

   सावधान


गलत वह नहीं थे

जिन्होंने धोखा दिया

गलत हम ही थे

जिन्होंने मौका दिया

अचानक रात के 10 बजे

हमारे मोबाईल की

रिंग टोन बजी

हमने उठाया तो

आवाज़ आई

बैंक का मैनेजर बोल रहा हूं

खुशियों का न रहा ठिकाना

बातों ही बातों में मैंने

बैंक खाते का डिटेल बता दिया

जब हो गया लाखों रुपए गायब

तब आया होश ठिकाना

गलत वह नहीं थे

जिन्होंने धोखा दिया

गलत हम ही थे

जिन्होंने मौका दिया

कहते हैं सागर की अपनी

होती हैं मर्यादा

सागर अपनी मर्यादा से

अब तक नहीं हिला है

पर हम प्रकृति से खिलवाड़ कर रहे हैं

कहने को सच कड़वा होता है

किंतु सत्य को कहना ही पड़ता हैं

जब चाहा विस्फोट कर रहा है

चंदन सी माटी पर

कोई भी पढ़ लेना

अंकित है सारी घटनाये

कोई भी हमें बता दें

प्रकृति की गोद में

हम,क्या सुरक्षित हैं

गलत वह नहीं थे

जिन्होंने धोखा दिया

गलत हम ही हैं

जिन्होंने मौका दिया


नूतन लाल साहू

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।हर क्षण,हर पल जीवन को*

*अच्छा आप     बनाते   चलें।।*


जिन्दगी का साथआप बस

हमेशा     निभाते    चलिये।

हर घड़ी जीवन को बढ़िया

आप        बनाते     चलिये।।

अशांति और क्लेश जीवन

में कभी  न कर पाएं प्रवेश।

क्षमा गुण     से     समस्या 

हर आप  सुलझाते  चलिये।।


सीखिये लहरों से     गिरना

भी      और      फिर उठना।

सीखिये सदा अच्छा सच्चा 

बोलना    और फिर  सुनना।।

सरल विनम्र  शांत बने  कि 

यह  ही है    जीवन प्रबंधन।

सीखियेअनुभव से सीखना

और उसको  फिर     गुनना।।


नाकामी की उतार कर जोश

की इक      चादर    ओढ़ लें।

भरे आग सीने के अंदर और

घोर      निराशा     छोड़   दें।।

परिस्तिथि कैसी भी   हो मन

स्तिथि      न    बिगड़े  कभी।

और हाँ, मैं से हम   की  ओर

राह          अपनी    मोड़  लें।।


जान लें कि  अच्छे   व्यवहार

का वैसे कोई       मूल्य  नहीं।

कोई भी अन्य सद्गुण  इसके

जैसे है       तुल्य           नहीं।।

सुंदर वाणी में क्षमता  है सारे

दिलों   को     जीतने       की।

ये है सारांश  कोई अन्य पूंजी

व्यक्तित्व जैसे   अमूल्य  नहीं।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।*

मोब।।           9897071046

                    8218685464

डॉ०रामबली मिश्र

 नियम बनाओ  (तिकोनिया छंद)


नियम बनाओ,

चलते जाओ।

सबक सिखाओ।।


नियम सुखद हो,

सहमति से हो।

सदा शुभद हो।।


एक सूत हो,

सब सपूत हों।

सब अच्युत हों।।


नियम बनेगा,

सदा रहेगा।

जग सुधरेगा।।


नियम चलेगा,

प्रेम खिलेगा।

कलह मिटेगा।।


नियम नियामक,

व्यक्ति सुधारक।

कष्ट निवारक।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ०रामबली मिश्र

 लगी लगन    (सजल)


लगी लगन तो प्रेम हो गया।

पूरा अंतिम ध्येय हो गया।।


अवसर पाया मधुर मिलन का।

हल्का सारा खेल हो गया।।


नहीं रही अब कोई चिन्ता।

चिन्ताओं को जेल हो गया।।


भाग्य प्रबल था यही सत्य है।

दिल से दिल का मेल हो गया।।


सोचा कभी नहीं ऐसा था।

अचरज रेलमपेल हो गया।।


शरणागत के प्रभु जी दानी।

पा कर प्रीति दुकेल हो गया।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 निर्मला शर्मा

 गुब्बारे सतरंगी


 रंग बिरंगे बड़े अतरंगी 

गुब्बारे ले लो सतरंगी 

नीले पीले हरे गुलाबी 

बच्चों की खुशियों की चाबी 

आओ बाबू! एक तो ले लो 

इन गुब्बारों से तुम खेलो 

खेले खेल ये कैसा मुझ संग

तुम्हें खिलाऊँ खेलूँ ना इन संग

 बाबा की मैं प्यारी गुड़िया

 मेहनत करूं चलाऊँ दुनिया

 आँखों में छोटे से सपने 

सुखी रहे बस मेरे अपने

 उनकी खातिर करुँ चिरौरी 

आज ना खाएं रोटी कोरी 

सतरंगी फूलों सा बचपन 

खोया कहाँ बनी क्या अटकन 

एक बेचे एक सामने खेले

 जीवन की सच्चाई बोले


डॉ0 निर्मला शर्मा

 दौसा राजस्थान

डॉ०रामबली मिश्र

 अभिवादन    (तिकोनिया छंद)


अभिवादन कर,

सम्मानित कर।

सदा प्रेम कर।।


श्रद्धा रखना,

इज्जत करना।

उन्नति करना।।


विद्वान बनो,

 बलवान बनो।

गहना पहनो।।


बनो यशस्वी,

दिखो तपस्वी।

रह ओजस्वी।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

दयानन्द त्रिपाठी दया

 पंचायत_चुनाव 

बजा चुनावी बिगुल, लड़ने को तैयार खड़े।

जितेंगे जिलापंचायत औ परधानी, लिए हाथ में हार खड़े।।

अपना होगा सुन्दर सपना, देख रहे सब अपना-अपना।

घुरहू औ कतवारू से देखो, हाल चाल दिन रात बना।।

अबकी बारी अपनी ही है, हैं सबसे सबल तैयार खड़े।

जितेंगे जिलापंचायत औ परधानी, लिए हाथ में हार खड़े।।


जिनकी जमीं बनी हुई है, उनके भी हैं क्या कहने।

अबकी देखो कितने छुट भैईये, दौड़ रहे दिन-रात हैं सपने।।

यहां वहां सब फंसा रहे हैं, कितनों को ही लड़ा रहे हैं।

चलो ताव में हम देखेंगे, साहब संग फोटू दिखा रहे हैं।।

अपनी तो सरकारी लगी नहीं, देंगे सरकारी दे रहे विचार खड़े।

जितेंगे जिलापंचायत औ परधानी,लिए हाथ में हार खड़े।।


अपनी तो फांके मस्त हुए हैं, हर घर सपने दिखा रहे।

हाथ जोड़ चाय पिला, बातों में सबको उलझा रहे।।

हाथ जोड़कर लगा है पोस्टर, काम करायेंगे डटकर।

ऐसा वादा उनका है, बातें बना रहे हैं हटकर।।

रूपया  पैसा  खर्चेंगे, कई  नसेड़ी  द्वार  खड़े।

जितेंगे जिलापंचायत औ परधानी, लिए हाथ में हार खड़े।।


जयकारा झूठों का होगा, सच्चे कार्य दिखायेंगे।

मां - मां  की  कसमें  होंगीं, बातों का अम्बार लगायेंगे।।

हर पल हर क्षण अब देखो, जासूस गांव-गांव दौड़ायेंगे।

मूरख भी बातें ऐसे करते, खुद को चाणक्य बतायेंगे।।

जिनके भाव कभी ना मिलते, आंख झुकाये आयेंगे।

दया कहे, माता औ बहिनों के चरणों शीश में नवायेंगे।।

कई खड़े हैं अनुभव वाले, कितने तो पहली बार खड़े।

जितेंगे जिलापंचायत औ परधानी, लिए हाथ में हार खड़े।।



       - दयानन्द_त्रिपाठी_दया

दयानन्द त्रिपाठी दया

मृत्यु 

जीवन में अवसान सत्य है

नवजीवन का सम्मान सत्य है।

आये हो निज जीवन लेकर

जाने का सम्मान सत्य है।।


तेरी माया से  हार चला हूं 

सम्बन्धों को त्याग चला हूं।

मृत्यु का भी क्या है कहना

जीवन का अनमोल है गहना।।


आना ही जीवन पर हंसता, 

जाना ही जीवन पर हंसता।

दो  पाटों  के  बीच में देखो,

जीवन ही आखिर है पीसता।। 


जीवन भरी मधुशाला है,

मृत्यु अमृत का प्याला है।

जीवन पर सब न्यौछावर कर,

मृत्यु के चरम सुख वरण कर।।


मृत्यु  निहार  रही  है  द्वारे,

भव से सबको  पार  उतारें।

नहीं मांगता स्नेह को तुमसे,

आओ  पुण्यवेदी   पर  वारें।।


जीवन कभी हताशा है,

मृत्यु बड़ी ही आशा है।

पत्तों पर पानी का गिरना,

बूंद रुके उत्तम है कहना।।


पत्ते    को   बूंदों   ने   पाकर,

ठहर जीवन का अनुभव कर।

आओ अन्दर खामोशी रो पड़ी है,

मृत्यु ही सुखद जीवन की अमिट घड़ी है।।



  दयानन्द_त्रिपाठी_दया

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।सफल जीवन के कुछ सिद्ध मन्त्र।।*


मन से       करो  कोशिश तो जीत

का उपहार मिलता है।

ना भी मिल      पाए  तो   अनुभव

का आधार मिलता है।।

दिल में कसक     नहीं रह   जाती

है प्रयत्न न करने की।

कुछ भी हो परिणाम शांति संतोष

सुख करार मिलता है।।


प्रारब्ध भरोसे छोड़    नहीं सकते

कर्म   बहुत   जरूरी   है।

अंतिम सीमा तक      करो प्रयास

ऐसी भी क्या मजबूरी है।।

संतोष का अर्थ    कदापि  प्रयत्न

ना    करना   नहीं होता।

आलोचना से मत    डरो  मिलती

इससे शक्ति भरपूरी है।।


दुःख को भी मानो   सच्चा साथी

खूब सबक सिखाता है।

जब होता यह विदा   तो सुख ही

देकर        जाता     है।।

जीवन काँटों वाला   फूल     पर

खूबसूरती की कमी नहीं।

प्रेम से बलशाली   कुछ नहीं यह

सब को ही झुकाता है।।


झूठ में आकर्षण होता पर  इसके

पाँव    नहीं   होते    हैं।

सत्य में होती    स्थिरता      इसमें

दाँव    नहीं    होते     हैं।।

शब्द के भाव से ही     मन्त्र    या

गाली   जाती      है बन।

जीवन पूर्ण सफल ना बनता जब

तक धूप छाँव नहीं होते हैं।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"।।*

*बरेली।।*

मोब।।            9897071046

                     8218685464



।।रचना शीर्षक।।*

*।।मत हारो मन तो जीत पक्की*

*हो जाती है।।*


दीपक बोलकर नहीं प्रकाश 

से परिचय  देता है।

चेहरा नहीं चरित्र ही  व्यक्ति 

को    लय   देता   है।।

न हारने का वादा   जो  कर    

लेते     जिंदगी     से।      

कर्म में करते  विश्वास    यही

अंतिम विजय देता है।।


कोशिश रखें जारी  जब  तक

जीत   न मिल      जाये।

निरंतरअभ्यास करो कि फूल

आशा का न खिल जाये।।

हर समस्या   आती है  जीवन

में     समाधान     लेकर।

करते रहें प्रयत्न जब तक राह

का पत्थर न हिल जाये।।


दृढ़ इच्छाशक्ति के सामने हार

हक्की बक्की हो जाती है।

मन से मत हारो तो   सफलता

पक्की हो    ही जाती है।।

आत्मविश्वास से  लिखा जाता

है जीत    का   इतिहास।

जो ठान लेते हैं इरादा तो   हर

बाधा नक्की हो जाती है।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।*

मोब।।           9897071046

                    8218685464

राजेंद्र रायपुरी

 😊   सार छंद पर एक गीत   😊


देखो देखो देखो देखो,

                  कली-कली मुस्काई।

मस्ती में गाते हैं भॅ॑वरे, 

                 ऋतु बसंत जो आई।


बगियन में अब चहल-पहल है,

                  जागी   है   तरुणाई।

अठखेली करने को देखो,

                 सखियाॅ॑  दौड़ी  आईं‌।

प्रेमालाप कली-भॅ॑वरों की,

                 उनके मन को भायी।

मस्ती में गाते हैं भॅ॑वरे,

                 ऋतु बसंत जो आई।


तितली रंग-बिरंगी उड़-उड़, 

                   डाली  डाली  जाऍ॑।

कोशिश बच्चे लाख करें पर,

                 उनको पकड़ न पाऍ॑।

धमाचौकड़ी यह बच्चों की,

                 किसे  न  भाए  भाई।

मस्ती में गाते हैं भॅ॑वरे, 

                 ऋतु बसंत जो आई।


गई शरद क्या शिशिर गई अब,

                   हवा  चली  पुरवाई।

गीत गा रही कोयलिया अब,

                   देखो  हर  अमराई।

सरसों के पीले फूलों से,

                    खेत  भरे  हैं  भाई।

मस्ती में गाते हैं भॅ॑वरे,

                 ऋतु बसंत जो आई।


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।

डॉ0हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-20

साँझ परे बिलखत दसकंधर।

भवन परा असांत भयंकर।।

      जाइ तहाँ पुनि कहै मँदोदर।

      राम बिरोधहिं कंत न अब कर।।

जासु दूत अस करि करनामा।

दियो तोरि सभ तव अभिमाना।।

    भल तुम्ह जानो राम-प्रतापू।

     जानि गरल मत पीवहु आपू।।

जानउ तुम्ह मारीच-कहानी।

किया जयंत याद निज नानी।।

    हत बाली सुग्रीव बचावा।

    सिव-धनु तोरि प्रभाव दिखावा।।

सूपनखा-गति जानउ तोहीं।

खर-दूषन-कबंध जे होंहीं।।

     अस रामहिं सँग करउ मिताई।

      यहि मा तव मम होय भलाई।।

बान्हि क सिंधु कपिन्ह अलबेला।

पहुँचे सेन समेत सुबेला ।।

     पुनि न कहहु तेहिं नर हे नाथा।

     प्रभु पहँ  जा झुकाउ निज माथा।।

मरन-काल जब आवै नियरे।

मन हो भ्रमित होय जस तुम्हरे।।

दोहा-जेहि कारन सुनु नाथ गे,पुत्र दोउ सुर-धाम।

         अब बिरोध तिसु नीक नहिं,सुमिरउ रामहिं नाम।।

                            डॉ0हरि नाथ मिश्र

                              9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *बाल-गीत*

कीशू,बिटिया रानी सुन लो,

ऊनी टोपी से सिर ढँक लो।

अपना स्वेटर अभी पहनना-

नंगे पैरों नहीं टहलना।।


देखो,दादी काँप रही है,

कंबल से तन ढाँक रही है।

बैठे ओढ़ रजाई दादा-

कहते ठंडक पड़ती ज्यादा।।


अंकुर बेटे तुम भी सुन लो,

जाकर अपनी कोट पहन लो।

कान भी अपना ढाँके रखना।

मानो सदा बड़ों का कहना।।


ठंडक से अब बच कर रहना,

खेल-कूद कुछ कम ही करना।

घर में बैठे करो पढाई-

इसमें सबकी छुपी भलाई।।


सूरज की भी बँधी है घिघ्घी,

कुहरा आया चढ़ कर बग्घी।

दिन में छाया रहे अँधेरा-

जैसे लगता अभी सवेरा।।


आलू-गोभी और टमाटर,

सोया-मेंथी-धनिया लाकर।

पालक लेकर साग पकाओ-

सभी इसे मस्ती से खाओ।।

         © डॉ0 हरि नाथ मिश्र

              991944 6372

डॉ. रामकुमार चतुर्वेदी

 *राम बाण🏹* बोल बचपन😄

212   212   212   212


      कर रहे हैं गजब बोल बानी यहाँ।

       सूरमा खुद बने हैं जुबानी यहाँ।।


    आप अपनी कहें हम हमारी कहें।

कौन सुनता किसे क्या कहानी यहाँ।।


    आज नेता मिले हैं विरासत लिये।

    हुक्म उनके चले खानदानी यहाँ ।।


बोलते कुछ नहीं पर बोलते हैं कहीं।

  बोल बचपन दिलाती,नदानी यहाँ।।


 जब सियासत उन्हें बंद होती दिखे।

  याद आती उन्हें आज नानी यहाँ।।


   राम कहते तुम्हें जाग जाओ जरा।

आम जनता तुम्हें अब जगानी यहाँ।।

       डॉ. रामकुमार चतुर्वेदी

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल 


दिल का वो मोतबर नहीं होता

तो मेरा हमसफ़र नहीं होता 


गुफ्तगू उनसे जब भी होती है 

होश शाम-ओ-सहर नहीं होता 


राह लगती  तवील है उस दम 

जब वो जान-ए-जिगर नहीं होता 


संग दिल है मियाँ हमारा सनम

वो इधर से उधर नहीं होता


जुस्तजू उसकी गर नहीं होती 

मैं कभी दर ब दर नहीं होता


ढूँढ लेता मैं अपनी ख़ुद  मंज़िल

साथ गर  राहबर नहीं होता


दर्द उस पल बहुत अखरता है

पास जब चारागर नहीं होता 


ज़िन्दगी उसको बोझ लगती है

जिस पे कोई हुनर नहीं होता 


अब तो साग़र चले भी आओ तुम

मुझसे तन्हा गुज़र नहीं होता 


विनय साग़र जायसवाल

19/12/2020

डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 दिनांकः २०.१२.२०२०

दिवसः रविवार

विषयः मानव की अभिलाषा

विधाः कविता(गीत)

शीर्षकः मानव की अभिलाषा


मानव  की   जिजीविषा अनंत पथ,

केवल   जीवन  उड़ान  न   समझो।

नित अटल निडर निर्बाध लक्ष्य पथ,

ख़ुशियाँ  ज़न्नत   निर्माणक समझो।


उन्मुक्त   इबादत    आतुर    लेखन,

हर कीमत मन अभिलाषित समझो।

बन   धीर     वीर  योद्धा  रनिवासर,

साहस   अविरत   यायावर  समझो। 


संकल्प हृदय लेकर  पथ  अविचल,

आँधी   तूफान   उफ़ान  समझ लो। 

साम  दाम   भेद  नीति    दण्ड   से,

अविरत  पूरण अभिलाषी  समझो।


नव यौवन नव जोश प्रगति कर्म पथ, 

ऊर्जावान  नित मिहनतकश समझो। 

विश्वास लबालब मन   कार्य  सफल,

काबिल    स्वयंभू    मानक  समझो। 


मानव जिजीविषा नित  सागर  सम,

संघर्ष     जटिल  संवाहक   समझो। 

बाधक   हों   खाई  चट्टान    विषम,

प्रतिकार  सचेतक   जाग्रत  समझो।


उन्माद  चाह   अतिघातक   जीवन,

नव द्वेष घृणा शत्रु    सृजन  समझो।

रत  रोग शोक   क्रोधानल   हिंसक,

पर जिजीविषा   अभिलाषा समझो। 


सुखद शान्ति   चैन  आनंद   सकल,

बस अभिलाष तिमिर धुमिल समझो।

कहँ   मानवता   मूल्यक   नीति धर्म,

शैतान     दनुज   परिवर्तन   समझो।  


अब   ईमान   धर्म   परमार्थ   रहित,

कर्तव्यहीन  मनुज लालच    समझो। 

स्वराष्ट्र   मान मुहब्बत  क्या मतलब,     

बस  अभिलाष वृद्धि जीवन समझो। 


हाय हाय   सदा  धन  सत्ता  अर्जन,

विश्वास स्वयं इतर   खोता  समझो।

कर्ता    हर्ता   पालक   ख़ुद   ईश्वर,

मानव  ख़ुद  पातक हन्ता   समझो। 



मानव   की  जिजीविषा  सुरसा सम,

जीवन्त  मौत , पर  अन्त  न समझो।

खो   मति   विवेक  समरसता  रिश्ते,

बस अपयश अशान्ति नायक समझो


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" 

रचनाः मौलिक (स्वरचित)

नई दिल्ली

डॉ० रामबली मिश्र

मन मस्त है

मन मस्त है,

अरि त्रस्त है।

ग्रह पस्त है।।


मन मौन है,

तन बौन है।

धन कौन है??


मन प्यारा,

अति दुलारा।

जगत पारा।।


मन अति सरस,

न करो बहस।

खुद पर तरस।।


मन रसीला,

सुखद लीला।

बहु छवीला।।


मन निरखता,

नहिं विचलता।

मौन चलता।।


आत्मतोष,

अति संतोष।

बहु मदहोश।।


कहता नहीं,

करता सही।

चलता मही।।


ज्ञान सुंदर,

ध्यान रघुवर।

शान प्रियतर।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

निशा अतुल्य

 ये दुनिया कितनी नश्वर है 

20.12.2020


ये दुनिया कितनी नश्वर है 

समझ कर भी नासमझ है ।

मंजिल के लिए भटके हरपल

राहों की न कोई खबर हैं ।


साथ चले थे जो राही 

कब राहों में बिछड़ें कैसे

कहाँ खबर थी दिल को ये

कि दुनिया इतनी नश्वर है ।


सब साथ छोड़ चले जाते हैं 

बस धर्म कर्म ही सँग रहे 

शाश्वत तो बस प्रभु नाम

जिसके दम पर सब जीते हैं ।


कोई माने या न माने

वो कलाकार बड़ा उम्दा है 

कठपुतली हमें बना करके

वो नश्वर दुनिया में नचाता है ।


यूँ बीच राह में छूट जाए 

जब कोई अपना प्रियवर

ये दुनिया कितनी नश्वर है 

तब पता हमें चल पाता हैं ।


करो सत्य धारण मन से 

और राग द्वेष का त्याग करो

लोभ मोह तज कर मन से 

तुम नश्वरता से उठ ऊपर देखो ।


सकल संसार तुम्हारा है 

जो जीवन तुमने पाया है 

रहो कर्तव्य निष्ठ सदा बनकर

मन को फर्क नहीं पड़ता है 

कि ये दुनिया कितनी नश्वर है ।


स्वरचित

निशा अतुल्य

डॉ० रामबली मिश्र

 *नजरें चुरा कर ...(ग़ज़ल)*


नजरें चुरा कर चले जा रहे हो।

मुझको पता है कहाँ जा रहे हो।।


अब तक वफा की दुहाई थे देते।

हुआ क्या जो अब बेवफा हो रहे हो।


मंजिल मिलेगी नहीं यह समझ लो।

मंजिल की खातिर दफा हो रहे हो।।


मंजिल बदलने का मतलब दुःखद है।

मंजिल बदलकर बुरा कर रहे हो।।


करो जो लगे तुमको अच्छा सुहाना।

दुखा दिल किसी का ये क्या कर रहे हो??


नखरे-नजाकत दिखाकर बहुत ही।

निगाहें छिपा अब चले जा रहे हो।।


गलती इधर से हुई क्या बता दो?

वफा को बेईज्जत किये जा रहे हो।।


मासूम का क्यों तुम बनते हो कातिल।

निहत्थे की हत्या किये जा रहे हो।।


कोमल कली को मसल कर जमीं पर।

बेरहमी से फेंके चले जा रहे हो।।


मुस्कराती कली आज मूर्छित पड़ी है।

तुम मुस्कराये चले जा रहे हो।।


 एहसान तेरा भुलाना कठिन है।

दिल को रुला कर चले जा रहे हो।।


रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

रवि रश्मि 'अनुभूति

ज़िंदगी अधूरी है  

*******************

कदम - दर - कदम बढ़ते रहे आगे बढ़ना ज़रूरी है .....

पाँव के छालों को देख सोचा मंज़िल की अभी दूरी है .....


अरमानों की सदा सजाते ही रहे कई डोलियाँ हम तो 

पीछे मुड़ अभी तो कमी देखी ढेरी तो अभी घूरी है .....


सपने जो देखते ही रहे मिले तो पूर्णता पाने के 

क्या करें पूरे करें कैसे ज़ख़्म मिले अभी मजबूरी है .....


काँटों भरी राहों पर तुम भी तो निकल ही गये बहुत दूर    

दर्द - ए - दिल भी बढ़ता गया कि ज़िंदगी तुम बिन अधूरी है .....


सुबकते - सिसकते गये हम सुख पाने की ही ख़ातिर अब तक 

किया बर्बाद अपना यही हुस्न रहा जो अब तक नूरी है .....


झेले हैं हमने कितने ही झंझावात संघर्षों में ही 

करती जो न्याय अपनी किस्मत का कौन - सी यहाँ जूरी है .....


कौन - सा किया हासिल बेतहाशा वैभव तभी खटते रहे  

अभी तो ज़िंदगी अधूरी पल्ले पड़ी सिर्फ़ मज़दूरी है .....


अंतिम यह पड़ाव थके पाँव मिलन की ख़्वाहिश रही अब तो 

मिलें रहें एक साथ अब तो यह ज़िंदगी होती पूरी है .....


ये चाहतें , ये ख़्वाहिशें, ये अरमां भले रहे कसक भरे  

सच तो यही है कि ज़िंदगी में सबसे बड़ा सब्र सबूरी है .....

(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-21

सुनि मंदोदरि-बचन कुठारा।

होत प्रात पुनि सभा पधारा।।

    रावन बैठा तुरत सिंहासन।

     भूलि त्रासु सगर्व निज आसन।।

राम कहे सुनु बालि-कुमारा।

कस फेंके किरीट रिपु चारा।।

     हे अंगद मोंहि मरम बतावउ।

     किन्ह अइसन कस अबहिं जतावउ।।

अंगद कह प्रभु राम गोसाईं।

मुकुट न हों तुम्ह जानउ साईं।।

    धरमहिं-नीति-चरण ई चारा।

    करम करहिं नृप जे बिधि सारा।।

साम-दाम-अरु दंड-बिभेदा।

नृप-गुन चार कहहिं अस बेदा।।

     रावन दुष्ट हीन गुन चारी।

      प्रभु-पद-सरन लिए सुबिचारी।।

अस सुनि बिहँसि उठे रघुराई।

पुनि अंगद सभ बात बताई।।

    नाथ सुबिग्य-प्रनत-सुखकारी।

     रावन मुकुटहिं चरन पधारी।।

पाके समाचार रघुराई।

सचिवहिं सबहीं निकट बुलाई।।

     कहा लंक महँ चारि दुवारा।

     सोचहु कइसे लागहि पारा।।

तब कपीस-बिभीषन-जमवंता।

मन महँ सुमिरि राम भगवंता।

    दृढ़-प्रतिग्य चारि कपि-सेना।

     सेनापती बना तिन्ह देना।।

किए पयान लंक की ताईं।

करत नाद केहरि की नाईं।।

     प्रभु-चरनन झुकाइ सिर चलहीं।

    निज कर गहि गिरि-खंडन्ह धवहीं।।

जय-जय करत कोसलाधीसा।

लछिमन सँग जमवंत-कपीसा।

      प्रभु-महिमा-बल लेइ असंका।

     गरजत-तरजत चलहिं निसंका।।

घिर चहुँ-दिसि जिमि कज्जर बादर।

भेरि जावत मुखन्ह बराबर।

      जदपि अभेद्य दुर्ग बहु लंका।

       तदपि चलहिं सभ पीटत डंका।।

दोहा-आवत लखि कपि-रीछ-दल,मचा कोलाहल लंक।

        अस सुनि तब रावन अभी,बिहँसा होइ निसंक।।

                     डॉ0हरि नाथ मिश्र

                       9919446372

राजेंद्र रायपुरी

 😊😊 सैर, सुबह-सुबह की 😄😄


सुबह-सुबह की सैर से,

                      आलस होती दूर। 

और मिले सच मानिए, 

                       उर्जा भी भरपूर।


आलस अपना छोड़कर,

                   सुबह करें नित सैर।

नहीं जरूरत वैद्य की,

                    स्वस्थ   रहेंगे   पैर।


सुबह-सुबह की सैर ही,

                     रखती हमें निरोग।

एक नहीं यह बात तो, 

                   कहते   सारे   लोग।


पड़े रहें जो खाट पर,

                   जाऍ॑  सुबह  न सैर।

दुश्मन वे निज़ स्वास्थ्य के,

                    और  न  कोई  गैर।


हवा सुबह की मानिए,

                   ऊर्जा   से   भरपूर।

सेवन इसका कीजिए, 

                     रोग    रहेंगे    दूर।


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।

डॉ0 निर्मला शर्मा

 अंतर्यामी परमात्मा


सृष्टि के प्रत्येक कण में, व्याप्त है परमात्मा

झाँके मानव निज मन में, आत्मा ही परमात्मा

परमशक्ति, सर्वव्यापी प्रभु ,सबका पालनहार

जीवन नैया पार करे,सबका तारनहार

प्रह्लाद की श्रद्धा भक्ति से, खम्बे से प्रभु प्रकट हुए

कष्ट निवारे भक्तों के, संसार से सारे दुख हरे

वो अविनाशी घट घट वासी, परमपिता परमेश्वर हरि

हो जावे जब कृपा तिहारी, जीवन की तृष्णा हर मिटी

हे अभ्यन्तर दयनिधान माया मोह में मैं अनजाना

भ्रमित हुआ नित भूला जप तप, जीवन हुआ वीराना

ढली रात सम जीवन ढलता, जब ये भेद मैं जाना

प्रभु चरणों से नेह लगा कर, जीवन मरम को जाना


डॉ0 निर्मला शर्मा

दौसा राजस्थान

पेट न होता तो किसी से भेंट न होता - दयानन्द त्रिपाठी दया

 "पेट न होता तो किसी से भेंट न होता"


कैसी  तेरी  माया  प्रभु  है, 

तुने भी क्या  खेल  रचाई।

नहीं है भरता पेट दिया जो, 

लाख जतन करते हैं धाई।।


कैसी   तूंने    पेट    बनाई, 

हर दिन खाली हो जाता है।

लाख   करो   उपाय   मगर

अर्णव में सब समा जाता है।।


हर दिन पेट की ख़ातिर सब,

गलत  कार्य  भी   करते  हैं।

तेरी  पूजा  करने  के  हेतुक

तेरे घर को भी लूटा करते हैं।।


प्राणी ही प्राणी का दुश्मन,

पेट की ख़ातिर बन जाता है।

मंदिर मस्जिद का झगड़ा ले

आपस में ही लड़ जाता है।।


तेरी  बनाई   धरा   के  प्राणी

सबने  अपने  रूप  हैं  बदले।

तूं भी तो कुछ बदल दे माधव

नया स्वरूप दे पेट के बदले।।


जितना सत्य है नवजीवन का,

उतना सत्य है मृत्यु का आना।

पेट की ख़ातिर छल-प्रपंच कर

भूख पेट, उर का लगे मिटाना।।


तेरी बनाई धरा पर सब, 

होते हैं अपडेट यहां पर।

तूं भी कुछ अपग्रेड तो कर दे,

पेट हटा अब लेट न कर।।


बिकल   धरा   का   प्राणी   है   प्रभु,

पेट-सेट के चक्कर में ही है सब होता।

अब  तक  जो  मेरे   मगज़  में  आया,

पेट न होता तो किसी से भेंट न होता।।



                -दयानन्द त्रिपाठी दया

उषा जैन कोलकाता

 नाम-  उषा जैन कोलकाता

पिता का नाम-  स्वर्गीय जय नारायण अग्रवाल

माता का नाम -  स्वर्गीय पार्वती देवी अग्रवाल

 पति का नाम - मोहन लाल जैन


जन्मतिथि 12/11/1965


स्थाई पता

नाम    Usha jain

पता  12b balram dey street near  

Jorasanko post office

Kolkata 700006


पत्राचार पता   उपरोक्त


मो0 नम्बर-9330213661 /8240672341

 

ईमेल usha12b13@gmail.com


शैक्षिक योग्यता  -  Metric

रुचि कविता लिखना खाना बनाना भ्रमण करना सामाजिक कार्य में भाग लेना

भाषा ज्ञान - हिंदी बंगाली हरियाणवी अंग्रेजी गुजराती

पदनाम -   गृहिणी

प्रकाशित रचनाएं

सांझा संकलन अभ्युदय द्वारा प्रकाशित पुस्तक प्रतिबिंबित जीवन में

8 कविताएं प्रकाशित


*हस्ताक्षर*

 Usha jain


काव्य रंगोली आज का सम्मानित रचनाकार कॉलम हेतु







1.  रिश्ते और एहसास

रिश्ते तो मीठी चासनी कि चास हैं

 रूह से जुड़े हुए अनछुए एहसास है

दिल से दिल के तार हो जुड़े हुए

प्यार में फर्क नहीं पड़ता चाहे दूर या पास है

 अलग-अलग फूलों का गुलिस्ता अलग-अलग फूलों से निकली सुवास है


 हर वक्त यकीन दिलाने के लिए क्यों शब्दों का इजहार  हो

 क्या वह काफी नहीं कि आंखों  मे छलकता प्यार हो


 बूढ़ी होती उम्र में बूढ़े होते अल्बमो से

 ढूंढ रहे हैं कुछ रिश्ते धुंधली सी तस्वीरों से

 हाथ और आंखों से छू  उन चेहरों को टटोलते

उनसे जुड़ी हर बात को यादों में  खंगोलते


उनसे मिलने की ललक हर वक्त क्यों रहने लगी

 क्यों आंखें उनके चेहरे को हर चेहरों में ढूंढने लगी

 पर वरदान बन के आई है नई टेक्नोलॉजी उनके लिए

 जो तरस रहे थे एक झलक अपनों की देखने के लिए

 आज उनके हाथ में हैउनके अपनो की तस्वीरें

 चेहरा देखकर कर सकते हैं उनसे अपने मन की  तकरीरे 

  स्वरचित उषा जैन कोलकाता






2. सच्चा सुख

सुख की अदम्य चाह में तुम

क्यू  अपना आज तमाम करते हो 

सुख तो तुम्हारे अंदर है 

क्यों उसे बाहर तलाश करते हो

सुख तो है मरुस्थल की  मरीचिका 

एक छलावे से  छले  जाओगे 

एक प्यास अगर बुझ भी भी गई

 और भी प्यासे  तुम खुद को  पाओगे


ता उम्र मशक्कत करते  ही रहे 

सुख का साजो समान पाने में

भागते दौड़ते रहे तुम हरदम

 महंगी गाड़ी बंगले का सुख जुटाने में

दो पल सुकून का न पाया  कभी

मारे मारे फिरते रहे जमाने मे


आखिर  हासिल तो तुमने कर ही लिया

अपनी जिंदगी के सुनहरे पल खोकर

पहुंच गए  जिंदगी के उस पड़ाव में तुम

उम्र बीत गई इनके सुख  को भोग पाने की 

सच्चे सुख को गिरवी रख दिया तुमने

 झूठे सुख को उधार लेने मे

 खो गए सारे अरमान और ख्वाब तेरे 

जो तुमने  देखे थे किसी जमाने में

 तन में घर कर गए हैं मर्ज कितने

हाफ जाते हो कुछ दूर चलने में 

 सामने रखे हो तेरे  ढेरों पकवान 

पर उबला खाना है तेरी नियति मे

 अपनी नींदे सुकून से ले जो सको 

आश्रित तुम  दवा पर होते हो

बीत गई उम्र बहार की तेरी 

रात दिन मशक्कत  ही करते हुए

 बेमज़ा हो रही जिंदगी अब तो

खाली तन-मन का भार ढोने में


याद करो अपने गुजरे हुए लम्हों को

छोटी-छोटी बातों में खुशियाँ पाते थे

करके मेहनत जो लौटते थे तुम घर 

रोटी दाल में ही कितना  सुख पाते थे

फिर जो लगती थी दोस्तों की जमघट

सबके दिल खोल ठहाके लगते थे

वही तो सच्चे सुख थे  तेरे जीवन के

 भूल नहीं पाते क्यों उन पल वो जीवन के

फिर वही तरसना है गुजरे  हुए लम्हों की

  स्वरचित उषा जैन कोलकाता







3. अगले दिन

 दुनिया से जो लोग हमेशा को  चले जाते हैं

कुछ नहीं ले जाते हैं सब  छोड़ यही  चले जाते है  


अपना जोड़ा हुआ सामान और असबाब

 वो कपड़े वो ऐनक उनका वो साजो सामान

 अगले  ही दिन  वो  सब कबाड़ में   गिने जाते है


 वो पुरानी सी तस्वीरें कुछ पुराने से खत 

जिनको संजो के रखा था अलमारी में अब तक 

होकर लावारिस से वो रद्दी में बदल जाते हैं 


वो बड़ा सा गलीचा वो एक पुराना हारमोनियम सजती थी दोस्तों की महफिल गूंजती थी सरगम  पुरानी चीजों की बिक्री की कतार में नजर आते हैं


वो जो आंगन में रहती थी सदा एक चारपाई

जिसमें गर्मी की रातें और जाड़े की धूप गुनगुनाई

निकृष्ट वस्तुओं से  घर के बाहर निकाले  जाते है

घर के चौबारे में जो होती थी गोष्टीया अक्सर

अब वह चौबारा भी बेजार नजर आता है


छोड़ जाते हैं हैं विरासत में वो खट्टी मीठी यादें 

जिसको चाह कर भी लोग जहन से निकाल नहीं पाते

सिर्फ रह जाएंगी उनकी बातें और कहानी किस्से

जिनको लोग अक्सर अफसानो में बयां करते हैं

 स्वरचित उषा जैन कोलकाता



4. सत्ता और कुर्सी

सत्ता के गलियारे में कुर्सी का है खेल

कुर्सी को पाने की खातिर रचते नित नया खेल

 सत्ता ही सब कुछ है इनकी जीवनदायिनी है 

सत्ता ही तो माई बाप है सत्ता ही जीवनसंगिनी है झूठे वादे करते है कितना प्रपंच ये करते है 

खरीद फरोख्त की वस्तुओं जैसे चंद् रूपए में बिकते है 

 बेपेंदी के लोटे  जैसे लुढ़कते  ही चले जाते हैं

 इधर-उधर यह होते ही रहते सगे किसी के न होते हैं 

रुख हवा का  देखकर फिर यह अपनी चालें चलते हैं शर्म हया जमीर बेचकर कभी नहीं पछताते हैं 

भोली भाली जनता को ये सब्जबाग दिखाते है

अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से  लोगों को बहलाते हैं


 पंच वर्ष का बांध मंसूबा लोगों के घरों में जाते हैं हाथ जोड़ विनती करते और कितने स्वांग रचाते है

स्पर्श यदि उनका हो जाये तो घृणा से भर जाते है

बैठ आज उन्हीं के झोपढ़े मे उनकी रोटी खाते है

अंक लगाते उनके बच्चों को प्यार से उन्हें दुलारते है झूठे आश्वासन देते  हो और लल्लो चप्पो करते हैं


वोटो की गिनती के लालच मे ये  नराधम हो जाते है

धर्म का झण्डा हाथ में लेकर  ये देश में  सांप्रदायिक  दंगेभड़काते है

सत्ता पर काबिज होते ही  ये स्वयंभू  बन जाते है 

नए-नए कर कानून बनाकर कोष ये अपना भरते हैं

खून पसीना जनता बहाती ऐश यह नेता करते हैं 

दो वक्त की रोटी के लिए जनता कितनी मशक्कत करती है  

 उनकी  थाली के स्वाद को महंगाई लीले जाती है


 इन नेताओं का हर दौरा विदेश यात्रा का होता है अपने देश के गांवों में इनका कभी पदार्पण  नहीं होता है 

इनके पैसों की भूख कभी खत्म नहीं  हो पाती है देश का सौदा करने में भी इनकी आत्मा नहीं शर्माती है

बाशिंदे  तो भारत के हैं  पर महिमा  दूसरे  देश की करते हैं

   स्वरचित उषा जैन कोलकाता






5. आज का जीवन

जीवन की इस आपाधापी में जाने  क्या- पीछे छूट गया 

कहीं ह्रदय के तार जुड़े तो कहीं पर ये  दिल टूट गया 

भागते दौड़ते लोगों में अपने पराए खो गए

कैसे ढूंढे उनमें अपनों को सब बेगाने हो गए


घुटन बढ़ रही शाम ओ सहर  दिल अब कुंठित हो रहा 

चहुं दिशाओं में  स्वार्थ का जहर ही  सर्वत्र फैल रहा 

हाहाकार हो रहा ह्रदय में  अतंस मन व्यथित हो रहा

 परिवेश  यहां का देख देख कर कर आसमान भी रो रहा


रोटी के दो टुकड़ों की खातिर  मासूम बचपन  सिसक रहा 

पढ़ने लिखने की उमर  मे काम के बोझ से दब रहा

क्या कोई मसीहा आसमान से इनके लिए भी आएगा

 इनके नन्हे बचपन को इनका हक  दिलवाएगा


नन्ही नन्ही कोमल कलियों को हवस का दानव कुचल रहा 

भेड़ की खाल पहन के भेड़िया हर गांव शहर में घूम रहा

 इन वहशी हत्यारों को कोई ऐसी सजा दिलाएगा

 चौराहे पर सबके सामने सूली पर लटकायेगा

 हश्र देखकर इनका ऐसा रूह कांप उठे औरों की

  फिर से गूंजे गांव शहर में खिलखिलाहट बहन बेटियों की

 फिर कोई रावण छू न पाए दामन कभी किसी सीता का का 

फिर ना खिचनी पड़े  किसी लक्ष्मण को फिर से कोई लक्ष्मण रेखा

                स्वरचित उषा जैन


एस के कपूर श्री हंस

*।।रचना शीर्षक।।* *।।हर कदम जीवन में हमें कुछ* *सीख मिलती है।।* तलवार से हम जीत सकते किसी एक तकरार को। पर किरदार से जीत सकते सारे ही संसार को।। सही डगर पकड़ो मंजिल को पाने के लिए। जीवन में समस्त पा सकते बनायें व्यवहार को।। छोटी सी जिन्दगी तूफान क्यों बहुत है। रहो जरा शान्त चित कि काम बहुत है।। मैं से तुम,तुम से हम, यही है मन्त्र असली। कोशिश करो पर जो मिला इंतिज़ाम बहुत है।। सराहना से प्रेरणाआलोचना से सीख मिलती है। मानव सेवा,प्रभुआराधना से कृपा भीख मिलती है।। संघर्ष में गर दर्द है तो शक्ति भी आती इसी से। कर्म से ही जीवन में कोई जागीर मिलती है।। *रचयिता।।एस के कपूर" श्री हंस"* *बरेली।।।।।* मोब।। 9897071046 8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-19 अंगद-चरन न उठ केहु भाँती। भागहिं सिर लटकाय कुजाती।। जस नहिं तजहिं नेम-ब्रत संता। महि नहिं तजै चरन कपि-कंता।। भागे जब सभ लाजि क मारा। रावन उठि अंगद ललकारा।। झट उठि पकरा अंगद-चरना। अंगद कह मम पद नहिं धरना।। गहहु चरन जाइ रघुनाथा। प्रभुहिं जाइ टेकउ निज माथा।। रामासीष उबारहिं तोहीं। नहिं त तोर कल्यान न होंहीं।। सुनतै अस तब रावन ठिठुका। गरुड़हिं देखि ब्यालु जिमि दुबका।। तेजहीन रावन अस भयऊ। दिवस-प्रकास चंद्र जस रहऊ।। सिर झुकाय बैठा निज आसन। जनु गवाँइ संपति-सिंहासन ।। राम-बिरोधी चैन न पावहिं। बिकल होइ के इत-उत धावहिं।। रचना बिस्व राम प्रभु करहीं। प्रभु-इच्छा बिनास जग भवहीं।। तासु दूत-करनी कस टरई। प्रभु-महिमा कपि-चरन न हटई।। चलत सकोप अंगद कह रावन। रन महँ मारब तोहिं पछारन।। सुनि रावन बहु भवा उदासू। अंगद-बचनहिं सुनत निरासू।। होइ अचंभित निसिचर लखहीं। रिपु-मद रौंद के अंगद चलही।। दोहा-अंगद जा तब राम-पद,पकरा पुलकित गात। रौंद के रिपु कै सकल मद,सजल नयन हर्षात।। डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446372

कालिका प्रसाद सोमवाल

*हे माँ शारदे कृपा करो* ******************** माँ हमें अज्ञानता से तार दो तेरे द्वार पर आकर माँ खड़ा हूं, तेरे चरणों में आज पड़ा हुआ हूं ज्ञान का उपकार दे माँ, जन मानस को प्रकाश दे माँ हे शारदे माँ ,कृपा करो। हृदय वीणा को हमारी नित नवल झंकार दे दो माँ, तू मनुजता को इस धरा पर चिर संबल आधार दे माँ, प्रार्थना का हमें अधिकार दे हे माँ शारदे कृपा करो। हे दयामयि माँ शारदे तू हमें निज प्यार‌ दे माँ, तिमिर का तू नाश करती ज्ञान का दीपक जलाकर, हमें पुण्य पथ प्रशस्त करता दे हे माँ शारदे कृपा करो।। ******************** कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड

नूतन लाल साहू

बाल मजदूरी, छीनती बचपना हम दो हमारे दो शासन का हैं सुझाव पर यह कैसी लाचारी बढ़ रही है संख्या,अनाप शनाप करे गुजारा किस तरह नहीं कमाई खाश आज यहां तो कल वहां किये बहुत से काम पंद्रह दिवस जला बस चूल्हा मेहनत हुई महीने की मजबूरी ने दिखा दी बच्चों को मजदूरी की राह बाल मजदूरी छीनती बचपना इक्कीसवीं सदी में है,यह कैसी विडंबना सेहत बने,पढ़ाई हो ताकि आगे नहीं कठिनाई हो मिले संतुलित आहार,खूब स्वस्थ रहें पढ़े लिखे,प्रसन्न मस्त रहें सूखी जीवन की जब तैयारी है तब बच्चों के सीने में गम ही गम हैं आंख नम करके सितम ढा रहा है जाने क्यों तुम,समझ न पा रहा है झांक कर देख तो, बच्चों के मन मंदिर को उसके अंदर भी इक विधाता है सोचो अगर दुनियां में कानून न होता बोलो फिर क्या होता बाल मजदूरी, छीनती बचपना इक्कीसवीं सदी में है,यह कैसी विडंबना नूतन लाल साहू

डा. राम कुमार झा निकुंज

दिनांकः १८.१२.२०२० दिवसः शुक्रवार विधाः गीत शीर्षकः 👰सँजोए सजन मन❤️ अज़ब खूबसूरत , नज़ाकत तुम्हारी। नशीली इबादत , मुख मुस्कान तेरी। कजरारी आँखें , मधुशाला सुरीली। लहराती जुल्फें , बनी एक पहेली। गालें गुलाबी , गज़ब सी ये लाली। चंचल वदन चारु , लटकी कानबाली। दिली प्रीति मन में,नटखटी तू लजायी। मुहब्बत नशा ये , ख़ुद मुखरा सजायी। संजोए सजन मन , बयां करती जवानी। कयामत ख़ुदा की , मदमाती रवानी। अनोखी परी तू , निराली दीवानी। कयामत ख़ुदा की , मदमाती रवानी। खिलो जिंदगी में,महकती कमलिनी सी। निशि की नशा बन, हँसती चाँदनी सी। पूजा तू अर्चन , चाहत जिंदगी की। रुख़्सार गुल्फ़ाम ,चाहत प्रिय मिलन की। कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक (स्वरचित) नई दिल्ली

डा. राम कुमार झा निकुंज

दिनांकः १९.१२.२०२० दिवसः शुक्रवार विधाः गीत शीर्षकः दर्दिल ए दास्तां दर्द की इन गहराईयों में , हैं दफ़न कितने ही जख़्म मेरे। है अहसास झेले सितमों कहर, बस ज़नाज़ा साथ होंगे दफ़न मेरे। थे लुटाए ख़ुद आसियाँ अपने, गुज़रे इम्तिहां बेवक्त सारे। सहकर ज़िल्लतें अपनों के ज़ख्म, दूर सभी बदनसीबी जब खड़े। किसको कहूँ अपनी जिंदगी में, पहले पराये वे आज अपने। लालच में दोस्त बन रचते फ़िजां, गढ़ मंजिलें ख़ुद सुनहरे सपने। किसे दर्दिल सुनाऊँ दास्तां ये, शर्मसार दिली इन्सान मेरे। खड़े न्याय अन्याय बन सारथी, उपहास बस अहसास जिंदगी के। हैं असहज दिए दर्द अपनों के, विषैले बन कँटीले दिल चुभते। दुर्दान्ती ढाहते विश्वास निज, स्वार्थी ईमान ख़ुद वे भींदते। कितनी ही कालिमा हो दर्द के, हो ज़मीर ईमान ख़ुद पास मेरे। सत्पथ संघर्षरत रह नित अटल, अमर यश परमार्थ जीवन्त सपने। आदत विद्वेष की घायल करेंगे, साहसी धीरता आहत सहेंगे। तिरोहित होगें सब तार दिल के, राही दिलदार बन सुदृढ़ बढ़ेंगे। त्रासदी व वेदना हर टीस ये, आत्मनिर्भर संबलित सुपथ बढ़ेंगे। पहचान हों अपने पराये स्वतः, सुखद खुशियों के फूलें खिलेंगे। अहसास दिलों में हैं शिकवे, हर नासूर ज़ख्म दिल दफ़न किए। कुछ कर्तव्य वतन अनुभूति हृदय, खुश रहे खली बस,हर जहर पिए। कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक (स्वरचित) नई दिल्ली

डा0 रामबली मिश्र

*प्रेम और आँसू (सजल)* प्रेम और आँसू का बहना। दोनों को संयोग समझना।। कोई नहीं बड़ा या छोटा। विधि का इसे विधान जानना।। प्रेम बुलाता है आँसू को। बिन आँसू के प्रेम न करना।। आँसू नहीं अगर आँखों में। होता नहीं प्रेम का बहना।। जिसने प्रेम किया वह रोया। इसको शाश्वत नियम समझना।। आँसू से ही प्रेम पनपता। आँसू लिये संग में चलना।। आँसू है तो दुनिया तेरी। बिन आँसू के सब कुछ सपना।। आँसू बिना प्रेम घातक है। इसे प्रेम का मर्म समझना।। प्रेम हॄदय का शुद्ध विषय है। यह कोमल मधु क्षेत्र परगना।। कोमल मन-उर में शीतलता। हृदय देश से जल का बहना।। प्रेम गंग सागर अति निर्मल।। बनकर आँसू चक्षु से बहना।। चक्षु क्षेत्र गंगा सागर तट। प्रेम-अश्रु की धार समझना।। प्रेम-अश्रु का जहँ अभाव है। उसको दानव देश समझना।। बड़े भाग्य से आँसू बहता। जग की चाह प्रेम का झरना।। झरने से आँसू की बूँदों। का हो नित्य प्रेमवत झरना।। रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी 9838453801 *हुआ प्रेम...* हुआ प्रेम नियमित जरा धीरे-धीरे। बहकता गया मन बहुत धीरे-धीरे।। भरने लगीं कल्पना की उड़ानें। उड़ता गया मैं जरा धीरे-धीरे।। फिसलता रहा पग संभलता रहा भी। पिघलता रहा दिल जरा धीरे-धीरे।। बनकर दीवाना चला तोड़ बंधन। सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ा धीरे-धीरे।। रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी 9838453801

कालिका प्रसाद सोमवाल

*हे मां शारदे कृपा करो* ****************** आरती वीणा पाणी की जयति जय विद्यादानी की, तू ही जमीं तू ही आसमां है आबाद तुझसे सारा जहां है। शीश पर शुभ्र मुकुट धारण क्रीट कुंडल मन को मोहे, मेरे उर में ज्ञान की ज्योति जगा दो मां और सद् बुद्धि का मुझे दान दे दो मां हे मां शारदे लिए हाथ में पुस्तक और माला, तू स्वर की देवी है संगीत की भंडार हो हर शब्द तेरा हर गीत तुझमें है। हे मां वीणा धारणी वरदे हम है अकेले हम है अधूरे, अपनी कृपा से हमें तार दो तू ही जमीं हो तू ही आसमां हो। हे मां शारदे आबाद तुझसे सारा जहां है, हो जाय मुझसे कोई भूल मां मुझ दीन पर दया करना ।। ****************** कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड

नूतन लाल साहू

आत्मविश्वास क्या लुटेगा जमाना खुशियों को हमारी हम तो खुद अपनी खुशियां दूसरों पर लूटा कर जीते हैं कर्म ही हमारा भाग्य हैं कर्म ही है सबका भगवान समय देखकर कर्म करे तो होगा मानव का कल्याण हर मानव है अर्जुन यहां परम आत्मा है श्री कृष्ण आत्म ज्ञान से ही हल हुआ है मन के सारे प्रश्न क्या लुटेगा जमाना खुशियों को हमारी हम तो खुद अपनी खुशियां दूसरों पर लूटा कर जीते हैं जो बीता सो बीत गया सहले होकर मौन बार बार क्यों भूत को करता है तू याद जो जीते हैं आज में उसके सर पर हैं,खुशियों की ताज जो भी करता है,ईश्वर उसमें रख संतोष उनसे पंगा लिया तो खो बैठोगे होश जब तक मन में अहम है नहीं मिलेंगे भगवान जिसने जाना स्वयं को वहीं है सच्चा इंसान क्या लुटेगा जमाना खुशियों को हमारी हम तो खुद अपनी खुशियां दूसरों पर लूटा कर जीते है नूतन लाल साहू

डॉ० रामबली मिश्र

*चोरों की बस्ती में...(ग़ज़ल)* चोरों की बस्ती में घर ले लिया है। संकट को न्योता स्वयं दे दिया है।। नहीं जानता था ये चोरकट हैं इतने। पसीना बहाकर लहू दे दिया है।। पूछा न समझा कि बस्ती है कैसी? अज्ञानता में ये क्या कर दिया है?? दमड़ी की हड़िया भी लेनी अगर है। मानव ने ठोका ,बजाकर लिया है।। हुई चूक कैसे नहीं कुछ पता है। बिना जाने कैसे ये क्या हो गया है?? पछतावा होता बहुत है समझ कर। पछतावा से किसको क्या मिल गया है?? उड़ी चैन की नींद दिन-रैन जगना। चोरों से बचना कठिन हो गया है।। क्या-क्या करे बंद कमरे के भीतर। बाहर का सब चट-सफा हो गया है।। झाड़ू तक बचती नहीं यदि है बाहर। गैया का गोबर दफा हो गया है।। चोरों की बस्ती का मत पूछ हालत। अपना है उतना ही जो बच गया है।। रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी 9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-18 अंगद सुनि रावन कै बचना। हँसा होय अति हरषित बदना।। पकरउ धाइ कपिन्ह अरु भालू। खावहु तिनहिं न होउ दयालू।। करउ सकल भुइँ कपिन्ह बिहीना। जाइ करउ सेना-बल छीना ।। लाउ पकरि तापसु दोउ भाई। नहिं त होइ अब मोर हँसाई।। कह सकोप तब बालि-कुमारा। सुनहु अधम-खल,बिनू अचारा।। तुम्ह मतिमंद काल-बस भयऊ। डींग न हाकहु बहु कछु कहऊ।। एकर फल तुम्ह पइबो तबहीं। जबहिं चपेटिहैं बानर तुमहीं।। तुम्ह कामी-पथभ्रष्ट-निलज्जा। नर प्रभु कहत न आवै लज्जा।। जदि आयसु पाऊँ रघुनाथा। दाँत तोरि फोरहुँ तव माथा।। राम-बान तरसहिं तव रुधिरा। यहिं तें तुम्ह छोडहुँ कनबहिरा।। सुनि अस तब रावन मुस्काना। कह लबार तुम्ह हो मैं जाना।। तव पितु बालि कबहुँ नहिं कहऊ। जस तुम्ह कह तापसु मिलि अजऊ।। मोंहि कहसु लबार-बातूनी। पटकहुँ अबहिं पकरि तव चूनी।। तब प्रभु राम सुमिरि पद धरऊ। सभा-मध्य अंगद अस कहऊ।। जदि कोउ टारि सकत पद मोरा। तजहुँ सीय मम बचन कठोरा।। छाँड़ि सियहिं यहिं पै मैं फिरहूँ। तुरत पुरी तिहार मैं तजहूँ ।। रावन तब तुरतहिं ललकारा। लइ-लइ नामहिं भटन्ह पुकारा। मेघनाद समेत बलवाना। सके न टारि भटहिं बहु नाना।। दोहा-सके न टारि अंगद-चरन, सुर-रिपु,निसिचर जाति। नहिं उपारि बिषयी सकहिं,मोह-बिटपु केहु भाँति।। डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446372

एस के कपूर श्री हंस

*।।रचना शीर्षक।।* *।।डूबती नाव यूँ संभाल ली* *मैंने।। बिगड़ी जिन्दगी यूँ संवार* *ली मैंने।।* जिन्दगी कुछ ऐसी चली कि सारे सवाल बदल डाले। फिर वक्त की आंधी ने सारे ही जवाब बदल डाले।। हमनें भी डाल दिया लंगर तूफानों के बीच में। हौसलों ने सारे हमारे बुरे हालात बदल डाले।। जिन्दगी जो शेष थी उसे हमनें विशेष बनाया। निष्क्रियता का जीवन में अवशेष मिटाया।। केवल कर्म की सक्रियता को अपनाया हमनें। घृणा, ईर्ष्या, राग, विद्वेष को हमनें दूर भगाया।। जीवन में फूल ही बस चुने काँटों को निकाल कर। हर संतुलन को तोला हमनें बांटों को निकाल कर।। जिन्दगी को सवाल नहीं जवाब बनाया हमनें। प्रेम बगिया बनाया मन से चांटों को निकाल कर।। चमत्कार से विश्वास नहीं पर विश्वास से चमत्कार करा। झुका कर आसमाँ को भी नतीज़ों का इंतज़ार करा।। धैर्य और परिश्रम से धुंधली तस्वीर में रंग भरा नया। हारी हुईं बाज़ी पर भी हमनें जीत का अख्तियार करा।। *रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*" *बरेली।।।* मोब।। 9897071046 821868 5464

डा. नीलम

*शीत दिवस* भोर कोहरे से ढकी शीत की लरजन लिए दे रही संदेश जागो ढल गई है रात प्रिय क्या हुआ जो सूरज के चूल्हे की आंच मद्धम रही अंधेरी रात तो फिर भी पटल से सरकती रही रात भर ओस बरसात-सी बरसती रही ठिठुरते चमन में कलियां फिर भी महकती रहीं बरफ के देश से बहकर हवाएं आती रहीं भेदकर दीवारें भित्तियों को थर्राती रहीं क्या हुआ गर मौसम में आग नहीं कर कसरत के जिस्म में तो आग रही क्या हुआ जो....... डा. नीलम

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल ग़ैर से तू मिला नहीं होता यह तेरा फ़ैसला नहीं होता साक़िया क्यों तुम्हारी महफ़िल में जाम मुझको अता नहीं होता जाम पीता मैं आज जी भर के सामने पारसा नहीं होता जब भी आती हैं मुश्किलें यारो कोई मुश्किलकुशा नहीं होता उसको शादी कहूँ मुबारक हो मुझसे यह हक़ अदा नहीं होता माँग भरता ख़ुशी ख़ुशी तेरी गर मैं शादीशुदा नहीं होता मेरी तन्हाई में कभी *साग़र* कोई तेरे सिवा नहीं होता 🖋️विनय साग़र जायसवाल 17/12/2020

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

ग़ज़ल धीरे-धीरे हुआ इश्क़ का जब असर धीरे-धीरे। गयी सध ग़ज़ल की बहर धीरे-धीरे।। नहीं काटे कटतीं थीं अब तक जो रातें। लगीं उनकी होने सहर धीरे-धीरे।। गगन में सितारे जो लगते थे धूमिल। गयी ज्योति उनकी निखर धीरे-धीरे।। तकदीर मेरी जो बिगड़ी थी अब-तक। गयी पा उन्हें अब सँवर धीरे-धीरे।। रहा प्यार अब-तक जो गुमनाम मेरा। बनी उसकी अच्छी ख़बर धीरे-धीरे।। बढ़ा इश्क़ का अब असर इस क़दर के। सभी गाँव होंगे,नगर धीरे-धीरे।। मलिन बस्तियों की जो दुर्गति थी होती। जाएगी दशा अब सुधर धीरे-धीरे।। अगर दीप प्यारा यूँ जलता रहेगा। जाएगा ये तूफाँ ठहर धीरे-धीरे।। © डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत(16/14) लक्ष्य सदा रखना शिखरों पर, और कहीं मत ध्यान रहे। मंज़िल जब भी मिल जाती है- तन-मन में न थकान रहे।। एक बार जब बढ़ें कदम तो, कभी नहीं पथ पर रुकते। वीर-धीर जन बढ़ते-रहते, कभी न पा संकट झुकते। जब आते तूफ़ान राह में- उनके दिल चट्टान रहे।। तन-मन में न थकान रहे।। संकट देते साथ सदा ही, यदि मन में उत्साह रहे। शोभा देती वह सरिता ही, जिसमें सतत प्रवाह रहे। सिंधु-पार कर जाता नाविक- यदि ऊँचा अरमान रहे।। तन-मन में न थकान रहे।। चले पथिक यदि लक्ष्य साध कर, मंज़िल स्वागत करती है। क़ुदरत की तूफ़ानी ताक़त- मधु फल आगत जनती है। जंगल में भी मंगल होता- यदि मन में श्रमदान रहे।। तन-मन में न थकान रहे।। अर्जुन सदृश लक्ष्य रख पथ पर, सतत पथिक बढ़ते रहना। दिन हो चाहे रात अँधेरी, स्वप्न सदा गढ़ते रहना। जो अर्जुन सा है संकल्पित- उसका जग में मान रहे।। तन-मन में न थकान रहे।। कंटक बिछीं भले हों राहें, तो भी विचलित मत होना। रहें धुंध से भरी दिशाएँ, फिर भी धीरज मत खोना। जो ख़तरों का करे सामना- उसका ही गुणगान रहे।। मंज़िल जब भी मिल जाती है- तन-मन में न थकान रहे।। ©डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446372

निशा अतुल्य

डॉक्टर 18.12.2020 नब्ज़ मेरी जरा देखो डॉक्टर लगता मुझे बुखार चढ़ा माथा मेरा ठंडा बहुत है पर जाड़ा चढ़ता लगता । एक बुखार कोरोना का है सांस सांस पर भारी है घर से निकलते डर लगता है कैसी ये बीमारी है । कुछ तुम को जो समझ में आया तो हमको बतलाओ जरा दुविधा में जीवन भारी है सिर से पांव तक रहूँ ढँका । साँस न अब आती है मुझको मुँह नाक कब तक रखूं ढका कोरोना से मिलें कब छुट्टी मन मेरा ये सोच रहा । कोरोना के चक्कर में ही जीना मुश्किल हुआ मेरा । स्वरचित निशा"अतुल्य"

सुनीता असीम

वो हुआ क्यूं नहीं हमारा भी। जबकि हमने किया इशारा भी। ***** छोड़कर वो चला गया हमको। कर्ज दिल का नहीं उतारा भी। ***** कुछ बला की रही अकड़ उनमें। वापसी में नहीं निहारा भी। ***** वो हमें क्यूँ नहीं समझते हैं। उन बिना है नहीं गुजारा भी। ***** दिल नहीं ले रहे न ही देते। उनसे कैसे करें ख़सारा भी। ***** इक अरज कर रही सुनीता है। कृष्ण दे दो ज़रा सहारा भी। ***** सुनीता असीम

डॉ0 रामबली मिश्र

*प्रेम मिलन... (सजल)* प्रेम मिलन का सुंदर अवसर। मंद बुद्धि खो देती अक्सर।। प्रेम पताका जो ले चलता। पाता वही प्रेम का अवसर।। उत्तम बुद्धि प्रेम के लायक। बुद्धिहीन को नहीं मयस्सर।। भाव प्रधान मनुज अति प्रेमी। भावरहित मानव अप्रियतर।। रहता प्रेम विवेकपुरम में। सद्विवेक नर अतिशय प्रियवर।। प्रेमातुर नर अति बड़ भागी। पाता दिव्य प्रेम का तरुवर।। प्रेम दीवाना सदा सुहाना। प्रेमपूर्ण भाव अति सुंदर।। जिसका दिल अति वृहद विशाला। वही सरस मन प्रेम समंदर।। जिसका मन विशुद्ध हितकारी। उसको मिलता प्रेम उच्चतर।। प्रेम मिलन अतिशय सुखदायी। समझो दिव्य प्रेम जिमि ईश्वर।। डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी 9838453801

डॉ0 निर्मला शर्मा

प्रेरणा इस जगत का निर्माण मानव में डाले प्राण अनुपम रची रचना सृष्टि का किया विधान वह प्रेरणा ही तो थी, जो बन ईश का आधार चराचर रूप साकार नवनिर्मित यह पृथ्वी बिखराती चहुँ दिसि जीवन का उल्लास धरती और आकाश चाँद-तारों का प्रकाश जीवन में नवल प्रभात वह प्रेरणा ही तो थी, जो बुने सपनों के पल खास कराये हर रस का अभास प्रसन्नता से नाचे मनमोर लेकर नवरस मधुमास सृजन हो जब सादृश्य परिवर्तित हो हर दृश्य चलता अनुक्रम अविरल पीता जब कोई गरल मंथन मथनी का साथ करता है नव शुरुआत सब बनता जाता सरल प्रेरणा हो अगर मंजुल सकारात्मक बनते भाव सत्यम शिवम का अनुराग जगाता सात्विक अनुभाव हो आनन्दमगन संसार डॉ0 निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

डा.नीलम

*प्यार की सौगात* देकर प्यार की सौगात आंख में आंसू दे गए साजन मेरे मुझसे मेरा चैन ओ' करार ले गए हवाओं को दी आजादी मेरे ख्वाब बंधक कर गए प्रीत-रीत की दे दुहाई मासूम दिल हमारा ले गए नेह की है बदली छाई मनाकाश पर कजरारी घन गर्जन सी धड़कनों की सौगात प्रियतम दे गए रातों की तन्हाई में सजा मदहोश ख्वाबों का बाजार सिरहानों को रात भर जागने की नशीली सजा साजन दे गए मिली निगाहें जब से निगाहों से उतर कर रुह रुह में संवर गई तन मन की सुध नहीं रही मुझे रुहानी सफर पर मितवा मुझे ले गए देकर प्यार की ................ डा.नीलम

दयानन्द त्रिपाठी दया

चाय पर दोहा सर्दी की छायी घटा, उर से निकली हाय। आनी-बानी ना पियो, चलो पिलायें चाय।। अन-पानी आहार है, भूखा स्वाद संग नहीं जाय। माधव का दीदार करो, घूंट-घूंट पियो चाय।। जिह्वा कर्म दुराचरी, तीनों गृहस्थ में त्याग। चाय पिलाओ खुद पियो, जब तक लगे न आग।। मांस-मांस सब एक हैं, मुर्गी, हिरनी, गाय। साधु संत फकिरीया, पीते गरम-गरम ही चाय।। सर्दी चढ़ी है जोर से, गलत कहूं क्या राय। मैडम तेरे हाथ की, मस्त बनी है चाय।। अमली हो बहु पाप से, समुझत नहीं है भाय। दुर्व्यसनों को त्याग के, सुबह - शाम लो चाय।। सांच कहूं तो मारि हैं, झूठ कहूं तो विश्वास। जो प्राणी ना चाय पिये, पछिताये संग बास।। सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप। चाय पियन को जुटत हैं, राजा रंक संग बाप।। गरम पकौड़ी छान रही, भाग्यवान संग चाय। सर्दी मौसम संग डार्लिंग, मन को बड़ी सुहाय।। भई कोरोना बावरी, कहां फंसी मैं हाय। अदरक तुलसी गिलोइया, डाल पिये सब चाय।। सांस चैन की ले रहे, वैक्सीन मिले हैं भाय। दया कहे पुरजोर से, अभी पियत रहो ही चाय।। जो किस्मत के हैं धनी, जिनके घर में माय। मां के हाथों से मिले, किस्मत वाली चाय।।
-दयानन्द_त्रिपाठी_दया

डॉ0हरि नाथ मिश्र

*शीत-ऋतु*(दोहे) जाड़े की ऋतु आ गई,जलने लगे अलाव। ओढ़े अपना ओढ़ना,करते सभी बचाव।। होती है यह शीत-ऋतु,अनुपम और अनूप। इसकी महिमा क्या कहें,रुचिर लगे रवि-धूप।। परम सुहाने सब लगें,खेत फसल-भरपूर। चना संग गेहूँ-मटर, शोभित महि का नूर।। शीत-लहर आते लगें,यद्यपि लोग उदास। फिर भी रहते हैं मुदित,ले वसंत की आस।। गर्मी-पावस-शीत-ऋतु,हैं जीवन-आधार। विगत शीत-ऋतु पुनि जगत,आए मस्त बहार।। ©डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446372

डॉ0हरि नाथ मिश्र

*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-17 सुनि रावन-मुख प्रभु-अपमाना। भवा क्रुद्ध अंगद बलवाना।। सुनै जे निंदा रामहिं ध्याना। पापी-मूढ़ होय अग्याना।। कटकटाइ पटका कपि कुंजर। भुइँ पे दोउ भुज तुरत धुरंधर।। डगमगाय तब धरनी लागे। ढुलमुल होत सभासद भागे।। बहन लगी मारुत जनु बेगहिं। रावन-मुकुटहिं इत-उत फेंकहिं।। पवन बेगि रावन भुइँ गिरऊ। तासु मुकुट खंडित हो परऊ।। कछुक उठाइ रावन सिर धरा। कछुक लुढ़क अंगद-पद पसरा।। अंगद तिनहिं राम पहँ झटका। तिनहिं उछारि देइ बहु फटका।। आवत तिनहिं देखि कपि भागहिं। उल्का-पात दिनहिं जनु लागहिं।। बज्र-बान जनु रावन छोड़ा। भेजा तिनहिं इधर मुख मोड़ा।। अस अनुमान करन कपि लागे। तब प्रभु बिहँसि जाइ तिन्ह आगे।। कह नहिं कोऊ राहू-केतू। रावन-बानन्ह नहिं संकेतू।। रावन-मुकुटहिं अंगद फेंका। कौतुक बस तुम्ह जान अनेका।। तब हनुमत झट उछरि-लपकि के। धरे निकट प्रभु तिन्ह गहि-गहि के।। कौतुक जानि लखहिं कपि-भालू। रबी-प्रकास मानि हर्षालू।। दोहा-रावन सबहिं बुलाइ के,कह कपि पकरउ धाइ। पकरि ताहि तुमहीं सबन्ह,मारउ अबहिं गिराइ।। डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446372

कालिका प्रसाद सेमवाल

*मां विद्या विनय दायिनी* ******************** वर दे मां सरस्वती वर दे इतना सा वर मां मुझको देना, कंठ स्वर मृदुल हो तेरा गुणगान करु, जन-जन का मैं आशीष पाऊं सब के लिए मां मैं मंगल गीत गाऊं मां विद्या विनय दायिनी। दीन दुखियों की मैं सेवा करुं प्रेम सबसे करुं छोटा या बड़ा हो, दृढ़ता से कर्तव्य का मैं पालन करुं हाथ जोड़ कर मैं नित तेरी वंदना करुं बस नित यही अर्चना मां तुम से करु मां विद्या विनय दायिनी। मां सरस्वती स्वर दायिनी दे ज्ञान विमल ज्ञानेश्वरी तू हमेशा सद् मार्ग बता मातेश्वरी, तेरी कृपा सभी पर रहे परमेश्वरी भारत मां की स्तुति नित करता रहूं बस यही भाव हर भारतीय में रहे।। ******************* कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड

राजेंद्र रायपुरी

😄 गुज़ारिश नये साल से 😄 आओ आओ, जल्दी आओ। नए साल तुम खुशियाॅ॑ लाओ। बैठे हैं सब इंतजार में, और नहीं तुम देर लगाओ। आशा सबकी जब आओगे, खुशियाॅ॑ ढेर साथ लाओगे। विपदा ये जो सता रही है, उसे दूर तुम कर पाओगे। साॅ॑स चैन की लेंगे सारे। रही न विपदा पास हमारे। गूॅ॑जेंगे फिर जग में मानो, नए साल के ही जयकारे। अगवानी को आतुर हम हैं। दिन भी बचे बहुत अब कम हैं। आ जाओ तुम जल्दी भाई। बीसे की हो सके बिदाई। इसने तो है खूब सताया। नहीं किसी को जग में भाया। कैसे भाता तुम ही बोलो, साथ यही था विपदा लाया। ।। राजेंद्र रायपुरी।।

डॉ० रामबली मिश्र

*दिन भर प्रतीक्षा... (ग़ज़ल)* दिन भर प्रतीक्षा किया, पर न आये। बताओ जरा, काहे दिल को जलाये।। आना नहीं था, बता देते पहले। गलती किया क्या जो इतना रुलाये? मेरी आरजू का नहीं कोई मतलब। छला इस कदर आँसुओं को सजाये।। नयन अश्रुपूरित विरह वेदना से। भुला पाना मुश्किल बहुत याद आये।। कहाँ जायें अब ये बता मेरे प्रियवर? तेरी याद में अब कहाँ गुम हो जायें?? धोखा ही जीवन का पर्यायवाची। धोखे पर धोखा बहुत चोट खाये।। संभालना कठिन डगमगाते कदम हैं। टूटे हृदय को हम कैसे मनायें?? नहीं राह दिखती न मंजिल है दिखता। बता दो मुसाफिर किधर को अब जायें?? सताया क्यों इतना तरस आती खुद पर। क्यों कर के वादे कभी ना निभाये ?? झूठी कसम खा क्यों जाते मुकर हो? बताओ ऐ दिलवर, क्यों दिल को बुझाये?? ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी 9838453801

आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला

🌹🙏🌹सुप्रभात🌹🙏🌹 बादाम बेबी कॉर्न ऑयल , सोयाबीन चिया सीड्स फैसीड ऑयल , अंडा मीट मछली में भी मिले विटामिन एफ विशेषकर घानी ऑयल । करे ब्लड क्लोटिंग में मदद ,और जोड़ों फेफड़ों की सूजन को कम , हृदय रोग के खतरे से बचाए, दूर करे तनाव शिकन और गम । कम करे दिमागी अन्य समस्या, सेल्स का विकास पर देता का ध्यान, आजाद आंखों की रोशनी बढ़ाएं,बच्चों के विकास का करें सम्मान । त्वचा रूखी होने से बचाए, बालों में लाए नई जान, भोजन करें सोच समझकर, अपने स्वास्थ्य का रखें ध्यान । ✍️आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला बरबीघा वाले

एस के कपूर श्री हंस

*।।रचना शीर्षक।।* *।।स्वस्थ तन जीवन की सर्वोत्तम निधि* *है।।* थकी थकी सी जिन्दगी और ढीला ढीला सा तन। हारा हारा सा बदन और फीका फीका सा मन।। अजब सी अजाब बन गई रोज़ की कहानी। हर सांस लगती हारी हारी जीवन बना बेरंग सा बेदम।। जिन्दा रहने को बस जैसे दवा ले रहे हैं बार बार। लगता जैसे रोज़ कुछ साँसे माँग कर ले रहे हैं उधार।। बोझ सी बना ली है खुद अपनी ही जिन्दगी। जंक फूड खा रहे परंतु नहीं ले रहे हैं पौष्टिक आहार।। प्रकृति से नित प्रतिदिन बस दूर होते जा रहे हैं। खोकर रोगप्रतिरोधक शक्ति बस मजबूर होते जा रहे हैं।। दिखावे की जिंदगी और रोज़ ही अपौष्टिक आहार। अनियमित दिनचर्या से हम भरपूर होते जा रहे हैं।। जरूरत है आज बस स्वच्छ स्वस्थ तन और मन की। शुद्ध वायु पर्यावरण संरक्षण प्रकृति से निकट जन जन की।। उत्तम विचार और खान पान में शुद्धता है आवश्यक आज। स्वास्थ्य ही व्यक्ति की सर्वोच्च निधि बस इस एक प्रण की।। *रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"* *बरेली।।।* मोब।।।। 9897071046 8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*त्रिपदियाँ* अगहन मास लगे अति न्यारा, सूरज भी लगता है प्यारा। जन-जन का यह रहे दुलारा।। ----------------------------------- आपस में मिल-जुल कर रहना, होता है जीवन का गहना। ऋषियों-मुनियों का है कहना।। ------------------------------------- सदा बड़ों का कहना मानो, जीवन-सार इसी को जानो। बुरा-भला सबको पहचानो।। -------------------------------------- कभी नहीं भावों में बहना, सम विचार सुख-दुख में रखना। मौसम-मार मुदित हो सहना।। --------------------------------------- सद्विचार जब पलता रहता, हितकर कर्म मनुज तब करता। बिगड़ा काम तभी जग बनता।। ©डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446374

कालिका प्रसाद सोमवाल

*माँ के लिए चिठ्ठी* ***************** माँ मैं जब तुम्हें चिट्ठी लिखने बैठा, तुम्हारी मुझे बहुत याद आई। ऐसा लगा जैसे तुम मुझे पुकार रही हो, मैं टूटता बिखरता रहा तेरी याद में। कागज पर गिरे हुए आँसुओं की जगह, लिख रहा हूँ मैं छोड़-छोड़ कर। लिखने जब रात को बैठा ही था मैं, माँ यह चिट्ठी जब तेरे नाम से, अल्फाज बहुत सारे आ गये मेरे सामने, जगह भी चाहते थे तेरे नाम में। उलझ सा गया था मैं शब्द जाल में। मैं टूटता बिखरता..... मेरी नजरों के सामने खड़े थे, वो सब कंटीली झाड़ियों के जंगल। तुम जाती थी रोज लकड़ियों के लिये, वही तो था ,पेट की आग का संबल । लहुलुहान हो जाते थे तेरे हाथ , काँटों की चुभन सेआह भी न करती। मैं टूटता बिखरता रहा... तुम्हारी आँखों में आँसू न आते। हमेशा चेहरे पर रहता सन्तोष, बहुत दर्द सहा है जीवन में तुमने, कभी नहीं रहा जीवन में असंतोष। आज खो गया हूँ पुरानी यादों में। मैं टूटता बिखरता.... शुभ वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हो माँ तुम, कोई कुछ भी कहे बहुत सह लेती थी। बचपन में बहुत कहानियाँ सुनाई है , नीति की बातें भी कुछ कह देती थी। तुम मिशाल हो स्वाभिमान की, सच में। मैं टूटता बिखरता.... भोर होते ही खेतों में चली जाती थी, साँझ के अन्धेरे में घर आती थी । बहुत संघर्ष किया है तुमने जीवन भर, फिर भी तनिक नहीं घबराती थी। तुम पर बहुत गर्व माँ, नत हूँ चरणों में। मैं टूटता बिखरता..... खोया आज पुरानी यादों में मैं, तुम्हारा त्याग समर्पण ही पाता हूँ। जीवन में आये सुख- दुख उलझन भी, सदा तुमसे ही प्रेरणा पाता हूँ। तुम्हीं ईश साकार हो माँ जीवन में, मैं टूटता बिखरता रहा तेरी याद में। ********************* कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड

विनय साग़र जासयवाल

दोहे -सर्दी और सूरज 1. सर्दी के मारे बढ़ी , सूरज की औकात ।। हर कोई ही कर रहा,बस उस से ही बात ।। 2. सूरज सूरज कर रहा ,देखो सकल समाज । चंदा राजा जा रहे , सोंप उन्हें अब राज।। 3. निकलो सूरज देवता , लेकर तेज अपार । दर्शन दे कर तुम करो ,सर्दी से उद्धार ।। 4. जाड़े में मन जीतता ,सूरज का व्यवहार । नित्य सवेरे जाग कर ,बाँटे स्वर्णिम प्यार ।। 5. इस सर्दी में है यही ,सबकी एक पुकार। सूर्य देव आकर करो , हम सब पर उपकार ।। 6. जाड़े में ऐसी पड़ी , इस मौसम की मार ।। देख कुहासा हो गया ,सूरज भी बीमार ।। 7. सुबह सवेरे आ गई ,बादल की बारात । सूरज की तब गिर गई , क्षण भर में औकात ।। 🖋️विनय साग़र जासयवाल 16/12/2020

मधु शंखधर स्वतंत्र प्रयागराज

सुप्रभात *मधु के मधुमय मुक्तक *मदद* मदद किए हनुमान जी, सीता जी को खोज। राम राज को देखकर, हिय में बसता ओज। मदद भावना से बने, मानव ईश समान, इसी भाव से मिल सके, भूखे जन को भोज।। मदद ह्रदय से दीन की, सच्चा है इक दान। सहज ह्रदय से वह धरे,इस जीवन का मान। दूजों का दुख देख के, जो जन विचलित होय, ईश्वर की संतान वो, वो ही हैं इंसान।। मदद भाव से जो भरा, उसका ही सम्मान। सहयोगी मस्तिष्क में, सतत साधना ध्यान। पूर्ण वही व्यक्तित्व है, भावपूर्ण जो मूल, महापुरुष वह बन सके, पा समाज से मान।। शहर जला कर देखते, धुँआ उठा किस ओर। स्वयं चाहते बैर बस, करे व्यर्थ में शोर। एक लिए संकल्प जो, मदद भावना दीन, वही मनुज बस श्रेष्ठ हैं, रात्रि साथ *मधु* भोर।। *मधु शंखधर स्वतंत्र* *प्रयागराज*

कालिका प्रसाद सोमवाल

*मां वीणा पाणि सरस्वती* ******************** मां वीणा पाणी सरस्वती सुन लो मेरी करुण पुकार। झोली मेरी ज्ञान से भर दो दूर करो मां जीवन से अंधकार। जन-जन की वाणी निर्मल कर दो हर मुख में अमृत धार बहे। हर प्राणी दूसरे से प्यार करें ऐसा हो मां ये सारा संसार । मां विद्या वाणी की देवी तुम हो मुझ पर भी कुछ उपकार करो। अंहकार ना आए कभी जीवन में दे देना ऐसा वरदान। मां तुम ही विद्या की देवी और सुपथ बतलाती हो। भूल अगर हो जाये तो कर देना मां क्षमा मुझे। हे मां जन कल्याणी जन जन को सुमति दो। ****************** कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

नूतन लाल साहू

सुविचार काम करने वालों की कदर करो कान भरने वालों की कभी नहीं बालपन गया खेल कूद में विषयो में गई जवानी अंत समय जब तेरा आया तेरे कोई काम न आया हंस के तू गुण गा ले यदि जाना भवसागर पार है काम करने वालों की कदर करो कान भरने वालों की कभी नहीं इतना जालिम हो गया है कुदरत का कानून अगर कुछ बुरा हो भी जाये तो खो मत देना होश ऊपर वाला लिख देता हैं जीत का एक नया अध्याय काम करने वालों की कदर करो कान भरने वालों की कभी नहीं घटता है कुछ हादसा सभी इंसानों के साथ हानि लाभ जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ कहते संत फकीर सब जीवन एक सराय काम करने वालों की कदर करो कान भरने वालों की कभी नहीं कुदरत नित देती नहीं दुख़ सुख की सौगात सबसे लम्बी यात्रा है घर से शमशान दोष देखना गैर के बंद कर दें आप काम करने वालों की कदर करो कान भरने वालों की कभी नहीं नूतन लाल साहू

डॉ0हरि नाथ मिश्र

षष्टम चरण(श्रीरामचरितबखान)-16 मत बतकुच्चन करउ तु रावन। अमल करउ बस मोर सिखावन।। छाँड़ि कलह अब करउ मिताई। यहि मा बस अह तोर भलाई।। मारि सियार सिंह नहिं सोहै। गज चढ़ि उल्लू साह न मोहै।। जौं मैं नहिं मनतेउँ प्रभु-कथनी। पीसि क तोर बनौतेउँ चटनी।। मुँह तोहार कूँचि क बुढ़ऊ। तोर भवन उजारि जहँ रहऊ।। मातु जानकी लइ निज संगा। जुवतिन्ह सकल लेइ करि दंगा।। जातउँ मैं इहँ तें बरजोरी। बिनु कछु सुने गुहार-चिरौरी।। प्रभु मानव तुम्ह दानव जाती। यहिं तें सहहुँ तोर बड़ बाती।। जौं अस करउँ त प्रभु-अपमाना। जानै तू न मान-सम्माना ।। मारि मृतक अपजस बस मिलई। तुम्ह सम बूढ़-मूढ़ कर बधई।। रोगी-कामी-संत-बिरोधी। कृपन-अघी-निंदक अरु क्रोधी।। तिनहिं बधे मम बड़ अपमाना। यहिं तें मैं प्रभु-कहना माना।। कह रावन सुनु रे कपि मूढ़ा। कहेसि मोंहि तू बहुतै बूढ़ा।। छोट मूहँ बड़ करेसि बतकही। जाके बल तू उछरत अबही।। त्रिया-बिरह दिन-राति डराहीं। पितु बनबास पाइ बन आहीं।। बस नर ऊ बल-तेज बिहीना। जासु प्रताप बिरंचिहिं छीना।। सोरठा-तू बानर न सचेत,जानसि नहिं तुम्ह निसिचरहिं। तव प्रभु राम समेत,खिइहैं सभ मिलि हो मगन।। डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446372

आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला

🌹🙏🌹सुप्रभात🌹🙏🌹 पॉपकार्न पपीता पत्तेदार हरी सब्जी सरसों सूरजमुखी , शकरकंद शलजम सूखे मेवे बादाम खाओ रहो सुखी। अखरोट आम अंकुरित अन्न अंडे लीवर ऑयल, एवोकेडो ब्रोकली कड कद्दू विटामिन ई के हैं कायल । ई विटामिन बनाए वसीय तत्त्वों से निपटने वाले ऊतक, कोशिका झिल्ली की रचना लाल रक्त कण का करे निर्माण । रेटीना की सुरक्षा महिलाओं में मासिक धर्म में दर्द से त्राण, मजबूत करें रोग प्रतिरक्षा क्षमता मधुमेह कैंसर से बचाए प्राण । एलर्जी की करें रोकथाम कंकाल तंत्र के विकास का करे काम, करें कोलेस्ट्रॉल का नियंत्रण बालों चेहरे में लाए चमक और जान । ✍️आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला बरबीघा वाले

डॉ0 रामबली मिश्र

*क्या तुम...? (सजल)* क्या तुम सच में प्यार करोगे? या मारोगे और मरोगे?? सच बतलाओ झूठ न बोलो। क्या मुझको स्वीकार करोगे?? सोच-समझकर बतलाओ प्रिय। क्या मुझपर इतबार करोगे?? यही चाह है प्यारा घर हो। क्या सचमुच में धार धरोगे?? कसम खुदा की तुम सर्वोत्तम। कभी नहीं इंकार करोगे?? दिल में केवल तुम्हीं रमे हो। क्या यह सच स्वीकार करोगे?? तुम हो तो जग में हरियाली। क्या सूना संसार करोगे?? जीवन की तुम अभिलाषा हो। क्या प्रिय सच्चा प्यार करोगे?? रचनाकार:डॉ0रामबली मिश्र हरिहरपुर 9838453801

निशा अतुल्य

विजय दिवस 16 .12 .2020 नन्ही सी मैं, नन्हा मेरा मन आँगन में उड़ता रहता था जीवन में था बस खेलकूद ही सुंदर सरल मेरा जीवन था । खेत निराले हरे भरे थे श्री गंगा नगर में गांव बड़े थे रहते थे हम तामकोट में जहाँ पिता श्री देते शिक्षा थे। सन् आया उनिसौ इकहत्तर पिता जी ने कुछ बोला डर कर हम तो बिल्कुल हैं बॉर्डर पर जाना पड़े न जाने कब छोड़ कर । समझ नहीं मुझको तब आया डर था एक मन में समाया छूट जाए ना सँगी साथी तब हमने एक लक्ष्य बनाया। चलो चले सब मिलकर हम तुम मार भगाएं हम दुश्मन को करी इक्कठी अपनी सेना करने लगे युद्ध अभ्यास हम । रोज अन्धेरा हो जाता था दीया नही घर जल पता था हम दुबके रहते थे घर में नन्हा मन तब घबराता था । घड़ घड़ विमान उड़ता था लगता मुझको बहुत भला था मन ही मन मैं सोचा करती क्यों सब को इससे डर लगता। नन्हा मन कुछ समझ न पाया बैठे रहते क्यों रेडियो पर बाबा कभी खुश होते कभी थे रोतें नहीं समझ तब मुझको आता । मिली सफलता सेना को फिर सोलह दिसंबर का था दिन जब झूम रहे थे सभी मिल कर मैं भी नाच रही थी उन सँग । विजय दिवस उल्हासित मन था किया पाक का टुकड़ा अलग था सेना ने अपना शौर्य दिखाया तिरानवे हजार को बंदी बनाया। नाक रगड़ी फिर पाकिस्तान ने आत्मसमर्पण नियाजी ने करवाया बंगला देश का जन्म हुआ फिर शक्ति वाहिनी ने शौर्य दिखाया। पाकिस्तान का मुँह पिटा था ये अब मेरी समझ में आया नमन तुम्हें है अमर जवानों तुमने देश का मान बढ़ाया । शत शत नमन करूँ, शिश झुका कर मातृभूमि पर मिटने वालों मैं भी कुछ अच्छा कर जाऊं मातृभूमि का मान बढ़ाऊं । स्वरचित निशा"अतुल्य"

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पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...