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डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-44

कहे तुरत सिवसंकर दानी।

तुमहिं न जनम-मरन-दुख हानी।।

     मानउ सत्य मोर अस बानी।

     मिटै न तोर ग्यान खगप्रानी।।

पहिला जनम अवधपुर तुम्हरो।

पायो राम-भगति तुम्ह सगरो।।

     द्विज-अपमान व संत-निरादर।

     यहि मा नहिं भगवान-समादर।।

जे बिबेक अस मन मा रखही।

नहिं कछु जग मा दुर्लभ रहही।।

      अस मुनि-बचन हरषि गुरु तहऊ।

      एवमस्तु कह निज गृह गयऊ ।।

प्रेरित काल बिन्ध्य-गिरि जाई।

रहेउँ भुजंग जोनि सुनु भाई।।

      तब तें जे तन मैं जग धरऊँ।

      बिनु प्रयास तजि नव तन गहऊँ।।

जे-जे तन धरि मैं जग आऊँ।

राम-भजन नहिं कबहुँ भुलाऊँ।।

       बिसरै नहिं मोहिं गुरू-सुभावा।

       कोमल-मृदुल नेह जे पावा ।।

द्विज कै जनम अंत मैं पाई।

लीला लखे बाल रघुराई।।

     प्रौढ़ भए पठनहिं नहिं भावा।

     जदपि पिता बहु चहे पढ़ावा।।

राम-कमलपद रह अनुरागा।

नहिं कछु औरउ मम मन लागा।।

      कहु खगेस अस कवन अभागा।

       कामधेनु तजि गर्दभि माँगा ।।

इषना त्रिबिध नहीं मन मोरे।

संपति-पुत्र-मान जे झोरे ।।

     सतत लालसा रह मन माहीं।

     कइसउँ दरस राम कै पाहीं।।

गिरि सुमेरु तब बट-तरु-छाया।

मुनि लोमस आसीनहिं पाया।।

     तातें सुने ब्रह्म-उपदेसा।

     अज-अनाम प्रभु अछत खगेसा।

निरगुन रूप ब्रह्म नहिं भावा।

ब्रह्म समग्र सगुन मैं पावा ।।

     राम-भगति-गति जल की नाई।

      मम मन-मीन रहहि सुख पाई।।

दोहा-सगुन रूप मैं राम कै, निरखन चाहुँ मुनीस।

        करु उपाय कछु अस मुनी,देखि सकहुँ प्रभु ईस।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

                            9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-39

राम-नाम-गुन अमित-अपारा।

पावहिं संभु-सेष नहिं पारा।।

      जइस असीम-अनंत अकासा।

      महिमा राम अनंत-अनासा।।

प्रभु-प्रकास कोटि सत भानू।

पवन कोटि सत बल प्रभु जानू।।

     कोटिक सत ससि-सीतलताई।

     अरबन धूमकेतु-प्रभुताई ।।

प्रभू अनंत-अगाध-अथाहा।

तीरथ कोटिक सुचि नर नाहा।।

      इस्थिर-अचल कोटि हिमगिरि सम।

      प्रभु गँभीर सत कोटि सिंधु सम ।।

सकल मनोरथ पुरवहिं नाथा।

कोटिक कामधेनु रघुनाथा।।

     कोटिन्ह ब्रह्मा,कोटिन्ह सारद।

      कोटिन्ह बिषनू,रुद्र बिसारद।।

सुनहु गरुड़ रामहिं प्रभुताई।

निरुपम-अकथ नाथ-निपुनाई।।

      धनकुबेर सत कोटि समाना।

       बहु प्रपंच माया भगवाना।।

प्रभु-गुन-सागर-थाह न मिलई।

यहिं तें भजन राम कै करई ।।

     काग-बचन सुनि मगन खगेसा।

      तासु चरन छूइ कहै नरेसा।।

बिनु गुरु ग्यान न हो भगवाना।

तुम्ह सम गुरू पाइ मैं जाना।।

     बिनु गुरु-कृपा न भव-निधि पारा।

     जा न सकहिं जन यहि संसारा।।

संसय-ब्याल करालहि काटा।

बिष-प्रभाव कारन सन्नाटा।।

     जानउ मैं नहिं प्रभु-प्रभुताई।

     मोहें तुम्ह सम गुरू बताई।।

कृपा तुम्हार भे मोह-बिनासा।

प्रभु-प्रति प्रेम जगायो आसा।।

     जाना सभ रहस्य प्रभु रामा।

      राम अनंत-अखंड-बलधामा।।

दोहा-हे सर्वग्य भुसुंडि गुरु,तव चरनन्ह मन लाग।

        मोहिं बतावउ आजु तुम्ह,पायो कस तन काग।।

                        डॉ0हरि नाथ मिश्र

                           9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-37

माँगु भसुंडि आजु बर कोऊ।

मन भाए जे बोलउ सोऊ ।।

    तत्व ग्यान-बैराग-बिबेका।

    मुनि दुर्लभ जे ग्यान अनेका।।

रिद्ध व सिद्धि सकल सुख-खानी।

मोच्छ समेत तुमहिं जे जानी ।।

     बिनु संदेह तुमहिं मैं देऊँ।

     भव-भय सकल तुरत हरि लेऊँ।।

सुनि प्रभु-बचन बिचारे हमहीं।

धन-सम्पत्तिहिं सुख नहिं मिलहीं।।

     राम क भगति सकल सुख-धामा।

     मिलै न सुख बिनु भक्तिहिं रामा।।

जल बिनु मीन,भगति बिनु सेवक।

छटपटाहिं बिनु नावहिं खेवक ।।

     अबिरल भगतिहिं सुर-मुनि चाहहिं।

      बिमल बिसुद्ध पुरान-श्रुति गावहिं।।

कलप-तरू-कृपालु भगवाना।

दीजै मोहिं सोइ अग्याना ।।

     एवमस्तु कह राम कृपाला।

     दीन्ह भगति तब दीन दयाला।।

तुम्ह बड़ भागी, मम अनुरागी।

अबिरल भगति कै तुमहीं भागी।।

     तव उर रहहि सकल गुन बासा।

      पायो मम प्रसाद बिस्वासा ।।

भक्ति-बिराग,ग्यान-बिग्याना।

मम रहस्य व लीलहिं जाना।।

    बिनु प्रयास तुम्ह जाने सबहीं।

    देबहुँ अस बर अब मैं तुमहीं।।

माया-भ्रम नहिं ब्यापै तोहीं।

करत रहहु अनुरागहिं मोहीं।।

   अब तुम्ह सुनहु बचन मम कागा।

   जानउ मम सिद्धांत सुभागा।।

अखिल जगत मम माया रचना।

जीव-चराचर जे इहँ बसना ।।

     सकल जगत सँग हमरो नेहा।

     सबतें अधिकहिं मनुज सनेहा।।

द्विज श्रुति-धारी,धरम-बिचारी।

रखहुँ सनेह तिनहिं सँग भारी।।

     पुनि ग्यानी-बिरक्त-बिग्यानी।

      तिन्हकर नेह-बोल अरु बानी।

प्रिय तें प्रियतर लगहिं मोहीं।

इन्हतें प्रियतर सेवक तोहीं।।

दोहा-भगति-बिहीन बिरंचि प्रिय,प्रिय सभ जीव समान।

         भगतिवंत बरु नीच अपि,लागहिं प्रिय सम प्रान।।

                       डॉ0हरि नाथ मिश्र

                        9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-17

सब जन भजहिं अहर्निसि रामा।

बिनय-सील-सोभा-गुनधामा ।।

      पंकज लोचन,स्यामल गाता।

       प्रभु प्रतिपालक सभ जन त्राता।।

सारँग धनु निषंग धरि बाना।

संतन्ह रच्छहिं प्रभु भगवाना।।

     काल ब्याल,प्रभु गरुड़ समाना।

     भजहु राम प्रभु धरि हिय ध्याना।।

भ्रम-संसय-तम नासहिं रामा।

भानु-किरन इव प्रभु अभिरामा।।

      रावन-कुल जनु बीहड़ कानन।

      रामहिं अनल कीन्ह फुँकि लावन।।

अस प्रभु भजहु सीय के साथा।

कर जोरे झुकाइ निज माथा।।

      समरस राम अजहिं-अबिनासी।

       उन्हकर भजन बासना-नासी।।

राम-दिनेस उगत चहुँ-ओरा।

भे प्रकास जल-थल-नभ-छोरा।।

      भवा अबिद्या-रजनी नासा।

       अघ उलूक जनु छुपे अकासा।।

कामइ-क्रोध-कुमुदिनी लज्जित।

लखि प्रकास रबि गगन सुसज्जित।।

     लहहि न सुख गुन-काल-चकोरा।

      कर्म सहज मन-मत्सर-चोरा।।

मोहहि-मान-हुनर नहिं चलई।

खुलै दिवस मा इन्हकर कलई।।

     सभ बिग्यान-ग्यान जनु पंकज।

      बिगसे धरम-ताल-रबि दिग्गज।।

दोहा-उदित होत रबि कै किरन,बढ़हिं ग्यान-बिग्यान।

         काम-क्रोध-मद-लोभ सभ,छुपहिं उलूक समान।।

                      डॉ0हरि नाथ मिश्र

                          9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 सप्तम चरण (श्रीरामचरितबखान)-16

दोहा-हाटहिं बनिक कुबेर सम,सकल सराफ बजाज।

        राम-राज बिनु मूल्य के,बस्तुहिं मिलहिं समाज।।

निर्मल जल सरजू बह उत्तर।

घाट सुबन्ध न कीचड़ तेहिं पर।

     अलग-अलग घाटन्ह जल पिवहीं।

      गजहिं-मतंग-बाजि जे रहहीं ।।

नारी-पनघट इतर रहाहीं।

पुरुष न कबहूँ उहाँ नहाहीं।।

      राज-घाट अति उत्तम रहऊ।

       बिनु बिभेद मज्जन जन करऊ।।

सुंदर उपबन मंदिर-तीरा।

देवन्ह अर्चन होय गँभीरा।।

      इत-उत तीरे मुनि-संन्यासी।

       रहहिं ग्यानरस सतत पियासी।।

बहु-बहु लता-तुलसिका सोहैं।

इत-उत तीरे मुनिगन मोहैं।।

     अवधपुरी जग पुरी सुहावन।

      बाहर-भीतर अति मनभावन।।

रुचिर-मनोहर नगरी-रूपा।

पाप भगै लखि पुरी अनूपा।।

छंद-सोहहिं रुचिर तड़ाग-वापी,

              कूप चहुँ-दिसि पुर-नगर।

      मोहहिं सुरन्ह अरु ऋषि-मुनी,

             सोपान निरमल जल सरोवर।

      कूजहिं पखेरू बिबिध तहँ,

              अरु भ्रमर बहु गुंजन करहिं।

      पिकादि खग तरु-सिखन्ह कूजत,

               पथिक जन जनु श्रम हरहिं।।

दोहा-राम-राज महँ अवधपुर,समृधि-संपदा पूर।

      आठहु-सिधि,नव-निधि सुखहिं,मिलइ सभें भरपूर।।

                          *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-16

दोहा-हाटहिं बनिक कुबेर सम,सकल सराफ बजाज।

        राम-राज बिनु मूल्य के,बस्तुहिं मिलहिं समाज।।

निर्मल जल सरजू बह उत्तर।

घाट सुबन्ध न कीचड़ तेहिं पर।

     अलग-अलग घाटन्ह जल पिवहीं।

      गजहिं-मतंग-बाजि जे रहहीं ।।

नारी-पनघट इतर रहाहीं।

पुरुष न कबहूँ उहाँ नहाहीं।।

      राज-घाट अति उत्तम रहऊ।

       बिनु बिभेद मज्जन जन करऊ।।

सुंदर उपबन मंदिर-तीरा।

देवन्ह अर्चन होय गँभीरा।।

      इत-उत तीरे मुनि-संन्यासी।

       रहहिं ग्यानरस सतत पियासी।।

बहु-बहु लता-तुलसिका सोहैं।

इत-उत तीरे मुनिगन मोहैं।।

     अवधपुरी जग पुरी सुहावन।

      बाहर-भीतर अति मनभावन।।

रुचिर-मनोहर नगरी-रूपा।

पाप भगै लखि पुरी अनूपा।।

छंद-सोहहिं रुचिर तड़ाग-वापी,

              कूप चहुँ-दिसि पुर-नगर।

      मोहहिं सुरन्ह अरु ऋषि-मुनी,

             सोपान निरमल जल सरोवर।

      कूजहिं पखेरू बिबिध तहँ,

              अरु भ्रमर बहु गुंजन करहिं।

      पिकादि खग तरु-सिखन्ह कूजत,

               पथिक जन जनु श्रम हरहिं।।

दोहा-राम-राज महँ अवधपुर,समृधि-संपदा पूर।

      आठहु-सिधि,नव-निधि सुखहिं,मिलइ सभें भरपूर।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

                            9919446372

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डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-9

निरगुन-सगुन राम कै रूपा।

भूप सिरोमनि राम अनूपा।।

     निज भुज-बल प्रभु रावन मारे।

     सकल निसाचर कुल संहारे।।

मनुज-रूप लीन्ह अवतारा।

अघ-बोझिल महि-भार उतारा।।

    जय-जय-जय सिय-राम गुसाईं।

     सरनागत-रच्छक,जग-साईं ।।

माया बस मग मा जे भटकहि।

नर-सुर-रच्छक जे मग अटकहि।।

    नाग-चराचर जे जग आहीं।

    नाथहि कृपा जबहिं ते पाहीं।।

भवहिं मुक्त ते तीनहुँ तापा।

जगत-बिदित नाथ-परतापा।।

      मिथ्या ग्यानी अरु अभिमानी।

       नाथ-कृपा-महिमा नहिं जानी।।

ताकर होहि अधोगति लोका।

होंहिं भले ते देव असोका।।

      तजि अभिमान भजै जे रामा।

       ताकर कष्ट हरैं श्रीरामा ।।

जिन्ह चरनन्ह कहँ सिव-अज पूजहिं।

बंदि-बंदि जिन्ह सुर-मुनि छूवहिं ।।

     छुइ चरनन्ह जिन्ह उतरी गंगा

      छुवत जिनहिं भइ नारि उमंगा।।

अस चरनन्ह कर करि अभिवादन।

मिलहिं अनंतइ सुख मन-भावन।।

      बेद कहहिं प्रभु बिटप समाना।

      मूल अब्यक्त जासु जग जाना।।

हैं षट कंध,त्वचा तरु चारी।

साखा जासु पचीसहि भारी।।

     पर्ण असंख्य सुमन तरु अहहीं।

      मीठा-खट्टा दुइ फल लगहीं।।

लता एक आश्रित तरु आहे।

फूलत नवल पल्लवत राहे।

      अस तरु,बिस्व-रूप भगवाना।

      नमन करहुँ अस तरु बिधि नाना।।

ब्रह्म अजन्म अद्वैत कहावै।

अनुभव गम्यहि बेद बतावै।

      तजि बिकार मन-बचन-कर्म तें।

      करि गुनगान सगुन ब्रह्म तें ।।

जे जन करहीं प्रभू-बखाना।

पावैं करुनाकर गुनखाना।।

दोहा-अस बखान करि राम कै, गए बेद सुरलोक।

         तुरत तहाँ सिव आइ के,बिनती करहिं असोक।

                            डॉ0हरि नाथ मिश्र

                                9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-8

मिलि सभ सासु सियहिं नहवाईं।

भूषन-बसन दिव्य पहिराईं ।।

       बामांगी सीता बड़ सोहैं।

       चढ़े बिमान ब्रह्म-सिव मोहैं।।

गुरु बसिष्ठ मँगाइ सिंहासन।

मंत्र उचारि दीन्ह प्रभु आसन।।

       राम-सिंहासन सुरुज समाना।

        करै जगत बहु-बहु कल्याना।।

देखि राम-सिय बैठि सिंहासन।

जय-जय करहीं सुरन्ह-ऋसीगन।।

       प्रथम तिलक बसिष्ठ गुरु कीन्हा।

        बाद असीस द्विजन्ह सभ दीन्हा।।

सोभा दिब्य निरखि सभ माता।

करहिं आरती प्रभु सुख-दाता।।

      सभे भिखारी भे धनवाना।

       पाइ क दान,खाइ पकवाना।।

देखि सिंहासन पे रघुराई।

सुरन्ह दुंदुभी मुदित बजाई।।

      भरत-शत्रुघन-लछिमन भाई।

       अंगद-हनुमत अरु कपिराई।।

साथ बिभीषन लइ धनु-सायक।

छत्र व चवँर-कटार अधिनायक।।

       सोहैं रघुबर सँग सभ लोंगा।

       हरषहिं सुख लहि अस संजोगा।।

सीता सहित भानु-कुलभूषन।

पहिरि पितंबर-भूषन नूतन।।

       लगहिं कोटि छबि-धाम अनंगा।

        साँवर तन,धनु-बान-निषंगा।।

राम-रूप अस संकट-मोचन।

बाहु अजान व पंकज लोचन।।

       अस प्रभु-रूप बरनि नहिं जाए।

        राम-रूप अस संकर भाए।।

दोहा-धारि भेष तब भाँट कै, आए बेदहिं चारि।

         करन लगे प्रभु-वंदना,सुंदर बचन उचारि।।

                         डॉ0हरि नाथ मिश्र

                              9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-7

भवन गए तब रघुकुल-नायक।

करुना-सिंधु राम,सुखदायक।।

      देखन लगे अटारिन्ह चढ़ि सब।

      साँवर रूप सराहहिं अब-तब।।

साजे रहे सभें निज द्वारा।

कनक-कलस सँग बन्दनवारा।।

      पुरे चौक गज-मुक्तन्ह द्वारे।

      गलिनहिं सकल सुगंध सवाँरे।।

चहुँ-दिसि गीति सुमंगल गावैं।

बाजा-गाजा हरषि बजावैं ।।

     जुबती करहिं आरती नाना।

      गावत गीति सुमंगल गाना।।

राम-आरती नारी करहीं।

सेष-सारदा सोभा लखहीं।।

      नारि कुमुदिनी,अवध सरोवर।

        सूरज बिरह रहे तहँ रघुबर।।

अस्त होत रबि लखि ते चंदा।

नारी कुमुद खिलीं सभ कंदा।।

      हरषित करत सभें भगवाना।

      कीन्ह भवन निज तुरत पयाना।।

जानि मातु कैकेई लज्जित।

प्रथम मिले मन मुदित सुसज्जित।।

      बहु समुझाइ राम तब गयऊ।

       आपुन भवन जहाँ ऊ रहऊ।।

जानि घड़ी सुभ सुदिन मनोहर।

द्विजन बुलाइ बसिष्ठ सनोहर।।

      कहे बिठावउ राम सिंहासन।

       पावहिं राम तुरत राजासन।।

सुनत बसिष्ठ-बचन द्विज कहहीं।

राम क तिलक तुरत अब भवहीं।।

     सुनत सुमंत जोरि रथ-घोरे।

     नगर सजा बोले कर जोरे।।

मंगल द्रब्यहिं अबहिं मँगायो।

अवधपुरी बहु भाँति सजायो।।

     सुमन-बृष्टि कीन्ह सभ देवा।

     सोभा पुरी चित्त हरि लेवा।।

राम तुरत सेवकन्ह बुलवाए।

सखा समेत सबहिं नहवाए।।

     पुनि बुलाइ भरतहिं निज भ्राता।

     निज कर जटा सवाँरे त्राता ।।

बंधुन्ह तिनहुँ सबिधि नहवाई।

गुरु बसिष्ठ कहँ सीष नवाई।।

     आयसु पाइ तासु रघुराऊ।

     छोरि जटा निज तहँ पसराऊ।।

पुनि प्रभु राम कीन्ह असनाना।

भूषन-बसन सजे बिधि नाना।।

दोहा-अनुपम छबि प्रभु राम कै, भूषन-बसनहिं संग।

        लखि-लखि छबि अभिरामहीं,लज्जित कोटि अनंग।।

                        डॉ0हरि नाथ मिश्र

                          9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-6

भेंटेउ राम सत्रुघन भाई।

लछिमन-भरतहिं प्रीति मिलाई।।

     धाइ भरत सीता-पद धरेऊ।

    अनुज शत्रुघन साथहिं रहेऊ।।

सभ पुरवासी राम निहारहिं।

कौतुक की जे राम सराहहिं।।

     अगनित रूप धारि प्रभु रामा।

      मिलहिं सबहिं प्रमुदित बलधामा।।

सभकर कष्ट नाथ हरि लेवा।

हरषित सबहिं राम करि देवा।।

     रामहिं कृपा पाइ तब छिन मा।

     रह न सोक केहू के मन मा ।।

बिछुड़ल बच्छ मिलै जस गाई।

मातुहिं मिले राम तहँ धाई ।।

     मिलहिं सुमित्रा जा रघुराई।

      कैकइ भेंटीं बहु सकुचाई।।

लछिमन धाइ धरे पद मातुहिं।

कैकेई प्रति रोष न जातुहिं ।।

     सासुन्ह मिलीं जाइ बैदेही।

      अचल सुहाग असीसहिं लेही।।

करहिं आरती थार कनक लइ।

निरखहिं कमल नयन प्रमुदित भइ।।

    कौसल्या पुनि-पुनि प्रभु लखहीं।

     रामहिं निज जननी-सुख लहहीं।।

जामवंत-अंगद-कपि बीरा।

लंकापति-कपीस रनधीरा।।

     हनूमान-नल-नील समेता।

     मनुज-गात भे प्रभु-अनुप्रेता।।

भरतहिं प्रेम-नेम-ब्रतसीला।

बहुत सराहहिं ते पुर-लीला।।

      तिनहिं बुलाइ राम पुनि कहहीं।

       गुरु-पद-कृपा बिजय रन पवहीं।।

पुनि प्रभु कहे सुनहु हे गुरुवर।

ये सभ सखा मोर अति प्रियवर।।

      इनहिं क बल मों कीन्ह लराई।

       रावन मारि सियहिं इहँ लाई।।

ये सभ मोंहे प्रान तें प्यारा।

प्रान देइ निज मोहिं उबारा।।

      जदपि सनेह भरत कम नाहीं।

       इन्हकर प्रेम तदपि बहु आहीं।।

दोहा-सुनत बचन प्रभु राम कै, मुदित भए कपि-भालु।

         छूइ तुरत माता-चरन, छूए राम कृपालु ।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

                             9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-5

सानुज धरे चरन गुरु रामा।

मुनि नायक बसिष्ठ अरु बामा।।

     कहहु राम आपनु कुसलाई।

      पूछे गुरु तब कह रघुराई।।

गुरुहिं कृपा रावन-बध कीन्हा।

लंका-राज बिभीषन दीन्हा।।

    जाकर गुरु-पद महँ बिस्वासा।

     पूरन होहि तासु अभिलासा।।

भरतै धाइ राम-पद धरेऊ।

जिनहिं देव-सिव-ब्रह्मा परेऊ।।

     प्रभू-चरन गहि भरत भुवालू।

     विह्वल भुइँ पे परे निढालू।।

बड़े जतन प्रभु तिनहिं उठाए।

पुलकित तन प्रभु गरे लगाए।।

छंद-अइसन मिलन प्रभु-भरत कै,

              मानो मिलन रस लागहीं।

       अपनाइ तनु जिमि रस सिंगारहिं,

              प्रेम-रस सँग पागहीं ।।

सोरठा-जब पूछे श्रीराम, रहे बरस दस चारि कस।

           रटतै-रटतै राम,कहे भरत सुनु भ्रात तब।।

                           डॉ0हरि नाथ मिश्र

                                9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-4

अवधपुरी महँ प्रकृति सुहानी।

नगरी भे जनु सोभा-खानी।

      त्रिबिध समीर बहन तब लागा।

       धारि उरहिं रामहिं अनुरागा।

सीतल सलिला सरजू निरमल।

लागल बहै प्रसांत-अचंचल।।

    परिजन-गुरु अरु अनुज समेता।

     चले भरत जहँ कृपा-निकेता।।

चढ़ि-चढ़ि भवन-अटारिन्ह ऊपर।

नारी लखहिं बिमान प्रभू कर ।।

     पूर्णचन्द्र इव प्रभु श्रीरामा।

      अवधपुरी सागर अभिरामा।।

पुरवासी सभ लहर समाना।

लहरत उठि-उठि लखैं बिमाना।।

     कहहिं राम लखाइ निज नगरी।

      लखु,कपीस-अंगद बहु सुघरी।।

लखहु बिभीषन-कपि तुम्ह सबहीं।

अवधपुरी सम नहिं कहुँ अहहीं।।

     सरजू सरित बहै उत्तर-दिसि।

     मम नगरी बड़ सुघ्घर जस ससि।।

बड़ पवित्र अह सरजू-नीरा।

मज्जन करत जाय जग-पीरा।।

      मम संगति-सुख ताको मिलई।

      मज्जन करन हेतु जे अवई ।।

परम धाम मम नगर सुहावन।

बहु प्रिय मम पुरवासी पावन।।

      प्रभु-मुख सुनि अस नगर-बखाना।

      भए मगन कपि-भालू नाना ।।

धन्य भूमि अस सभ पुरवासी।

होंहिं जहाँ कर राम निवासी।।

     उतरा झट बिमान तेहिं अवसर।

       पाइ निदेस राम कै सर-सर।।

दोहा-उतरि यान श्रीराम कह,पुष्पक जाहु कुबेर।

         रखि के हरष-बिषाद उर,उड़ बिमान बिनु देर।।

        प्रभु-बियोग कृष बपु-भरत,लइ बसिष्ठ गुरु बाम।

        पुरवासिन्ह लइ संग निज,गए पहुँचि जहँ राम।।

                            डॉ0हरि नाथ मिश्र

                              9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-2

बचा रहा बस एक दिवस अब।

अइहैं रामहिं पुरी अवध जब।।

     होवन लगे सगुन बड़ सुंदर।

     अवधपुरी महँ बाहर-अंदर।।

दाहिन लोचन-भुजा भरत कय।

फरकन लगी सगुन कइ-कइ कय।।

     सगुन होत हरषी सभ माता।

      दिन सुभकर अस दीन्ह बिधाता।।

होय भरत-मन परम अधीरा।

काहे नहिं आए रघुबीरा ।।

    पुनि-पुनि कहहिं कवन त्रुटि मोरी।

     भूले हमका जानि अघोरी ।।

लछिमन तुमहीं रह बड़ भागी।

रहत नाथ सँग बनि सहभागी।।

     कपटी जानि मोंहि बिसरायो।

     यहिं तें नहीं अबहिं तक आयो।।

पर प्रभु दीनबंधु-जगस्वामी।

तारहिं पतित-खडुस-खल-कामी।।

     अइहैं नाथ अवसि मैं जानूँ।

     यहिं तें भवा सगुन मैं मानूँ।।

तेहि अवसर आयो हनुमाना।

बटुक-बिप्र कै पहिरे बाना।।

     तापस भेषहिं भरत कुसासन।

      सोचत रहे राम कै आवन।।

दोहा-देखि पवन-सुत भरत कहँ,बिकल नयन भरि नीर।

        पुलकित तन हरषित भए,कहहिं बचन धरि धीर।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

                              9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 * सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-1

बंदउँ कमल चरन रघुराई।

सरसिज नयन लखन के भाई।।

     पीत बसन धारी प्रभु रामा।

     बरन मयूर कंठ अभिरामा।।

कर महँ धनुष-बान बड़ सोहैं।

पुष्पक बैठि नाथ मन मोहैं।।

    रघुकुल-मनी जानकी-स्वामी।

     बेद-सास्त्र-नीति अनुगामी।।

राम-चरन बंदत अज-संकर।

करउँ नमन ते चरन निरंतर।।

     कपिन्ह समेत राम रघुनाथा।

      स्तुति करउँ नाइ निज माथा।।

कुंद-इंदु अरु संख समाना।

गौर बरन संकर जग जाना।।

     करहुँ प्रनाम तिनहिं कर जोरे।

      रजनी-बासर, संध्या-भोरे।।

जगत-जननि पारबती माता।

संकर-पत्नी जग सुख-दाता।।

      वांछित फल सिव देवन हारा।

       जीवन-नैया खेवन हारा।।

दोहा-भजै जगत जे राम-सिव,ताकर हो कल्यान।

         संकर-रामहिं कृपा तें, कारजु होय महान।।

                       डॉ0हरि नाथ मिश्र

                          9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-63

सजल नयन जोरे निज पानी।

पुलकित तन नहिं निकसै बानी।।

     ठाढ़ि रहे सभ रामहिं सम्मुख।

     कहि न सकहिं कछु विह्वल तन-मुख।।

गाढ़ प्रेम लखि प्रभु सबही कै।

बैठारे बिमान गहि-गहि कै ।।

     उत्तर दिसि तब उड़ा बिमाना।

     करत कुलाहल जय-ध्वनि साना।।

बैठि बिमान राम-सिय सोहहिं।

गिरि सुमेरु घन दामिनि मोहहिं।।

     बरसा सुमन हरषि सुर करहीं।

      त्रिबिधि बयारि सुखद तब चलहीं।।

सुंदर सगुन होंहिं चहुँ-ओरा।

सिंधु-सरित-सर अमरित घोरा।।

     रन-भुइँ राम दिखावहिं सीतहिं।

     जहँ रहँ बधे लखन इन्द्रजीतहिं।।

अंगद-हनूमान जहँ लरऊ।

निसिचर-दल कै मर्दन करऊ।।

     तुरत दिखाए प्रभु भुइँ तहवाँ।

     रावन-कुंभकरन बध जहवाँ।।

थापे रहे जहाँ सिवसंकर।

बान्हि रहे जहँ सिंधु भयंकर।।

     जहँ-जहँ किए रहे बिश्रामा।

     सियहिं बताए उहवै धामा।

तुरत यान दंडक बन आवा।

कुम्भजादि सभ मुनिन्ह मिलावा।।

    लइ आसीष सकल मुनि जन कै।

     चित्रकूट पहुँचे लइ सबकै ।।

मिलि सभ मुनिनहिं उड़ा बिमाना।

तीरथराज प्रयाग सिधाना ।।

    गंग-जमुन-जल पावन सीता।

     कीन्ह प्रनाम त्रिबेनि पुनीता।।

दरस कीन्ह तब अवधपुरी कै।

तिरबिध ताप हरै जे सबकै।।

     तब प्रभु राम कहेउ हनुमाना।

     जावहु बटुक-रूप बलवाना।।

कुसल हमार बताइ भरत के।

आवहु समाचार सभ लइ के।।

      भरद्वाज पहँ तब प्रभु गयऊ।

       पूजा करि ऋषि-आसिष पयऊ।।

पुनि बिमान चढ़ि कीन्ह पयाना।

 नाथ-अवन निषाद जब जाना।।

     पहुँचि तहाँ कह नाव लेआऊ।

     सुरसरि पार गयउ रघुराऊ।।

प्रेमाकुल तब गुहा पधारा।

सजल नयन सिय-राम निहारा।।

दोहा-विह्वल हो प्रभु दरस तें, प्रभुहिं-सियहिं तहँ पाइ।

       बेसुध हो भुइँ गुह गिरा,प्रभु उर लीन्ह लगाइ ।।

       कृपानिधान-दयालु प्रभु,पूर्णकाम-सुखधाम।

       नृपन्ह सिरोमनि श्रीपती,निरबल के बल राम।।

        कलिजुग मा जे प्रभु भजै,होहि तासु कल्यान।

         राम सहारे भव तरै, पावै बहु सुख-खान।।

डा0 हरिनाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-62

तपस-बेष अरु दूबर गाता।

नेम व धरम सहित मम भ्राता।।

      सुमिरत पल मोंहि कल्प समाना।

       केहि बिधि तुरत ताहिं पहँ जाना।

करहु राज तुम्ह एक कल्प भर।

सुमिरन करत मोंहि निज उर धर।।

      सुनत बचन प्रभु छुइ के चरना।

       गए बिभीषन पुनि निज भवना।।

भरि क बिमान प्रचुर मनि-बसना।

आए तुरत गहे प्रभु-चरना ।।

       सुनहु बिभीषन कह रघुराई।

        जावहु गगन बिमान उड़ाई।।

फेंकहु महि पे सभ पट-भूषन।

लैहैं तिनहिं सभें निज रुचि मन।।

      मुहँ-मुहँ पकरि तजहिं कपि-भालू।

       बिहँसहिं लखि सिय-राम कृपालू।।

तुम्हरे बल मैं रावन मारा।

राज बिभीषन-तिलक सँवारा।।

     कह प्रभु राम सुनहु कपि-भालू।

      जाहु गृहहिं निज होइ निहालू।।

निर्भय रहहु मोहिं उर धइ के।

कानन-बन-संपति लइ-लइ के।।

      सुनि अस बचन राखि हिय रामा।

      गए तुरत सभ निज-निज धामा।।

दोहा-कहि नहिं सके कछुक तहाँ,अंगद-नील-कपीस।

         नल-हनुमान-बिभीषनै,देखि कोसलाधीस ।।

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-61

देवराज कह हे रघुराई।

तुमहिं कृपालु, तुमहिं सुखदाई।।

     हे रच्छक सरनागत स्वामी।

     मारेउ रावन सठ-खल-कामी।।

आपुन भगति देहु रघुनाथा।

महिमा तव अकथ्य गुन-गाथा।।

     चाहहुँ राउर मैं सेवकाई।

      सीता-लखन सहित तुम्ह पाई।।

जनक-सुता अरु लखन समेता।

बसहु हृदय मम कृपा-निकेता।।

      इंद्र-बचन सुनि कह रघुराई।

      रिच्छहिं-कपिनहिं देउ जियाई।।

मरे सबहिं बस मोरे कारन।

धरम तोर अब इनहिं जियावन।।

     इंद्र कीन्ह तब अमरित-बर्षा।

      जीवित भे सभ कपि-दल हर्षा।।

जीवित भया न निसिचर कोऊ।

पाइ मुक्ति प्रभु-कृपा ते सोऊ।।

      तेहि अवसर सिवसंकर आयो।

      जोरि जुगल कर बिनय सुनायो।।

रच्छ माम तुम्ह रघुकुल-भूषन।

रावन हते, बधे खर-दूषन ।।

     मोह-जलद-दल तुमहिं भगावत।

      संसय-बन महँ आगि लगावत।।

हे धनु सारँग-सायक धारी।

भ्रम-तम प्रबल,क्रोध-मद हारी।।

      बसहु आइ तुम्ह मोरे उर मा।

      सीय-लखन-स्याम बपु यहि मा।।

गए संभु जब बिनती कइ के।

आए तुरत बिभीषन ठहि के।।

      जोरि पानि बोले मृदु बानी।

       अति दयालु प्रभु तुम्ह कल्यानी।

रावन सहित सकल कुल मार्यो।

निसिचर सहित सबन्ह कहँ तार्यो।।

      मोंहि सिंहासन लंका दीन्हा।

       परम कृपा प्रभु मों पे कीन्हा।।

चलहु नाथ अब भवन मँझारे।

संपति-भवनहिं सबहिं तुम्हारे।।

     करि बिधिवत मज्जन-अस्नाना।

      भोज करहु जे लगइ सुहाना ।।

राजकोष प्रभु  तुम्हरै आहै।

देहु कपिन्ह जे जितना चाहै।

      कोष तुम्हार जानु मैं पूरा।

      सभ कछु जानूँ,नहीं अधूरा।।

दोहा-सुनहु बिभीषन मम बचन, कहहुँ बाति गंभीर।

         पुनि-पुनि सुधि मों आवहीं, भरत भ्रात प्रन-धीर।।

                     "©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                           9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-60

राम क नाम सदा सुखकारी।

प्रभु कै भजन होय हितकारी।।

     होंहिं अनंत-अखंड श्रीरामा।

     ब्रह्म स्वरूप,अतुल-बलधामा।।

दीनदयालु-परम हितकारी।

अति कृपालु, जग-मंगलकारी।।

      सत्य-धरम के रच्छा हेतू।

       राम अवतरेउ कृपा-निकेतू।।

तेज-प्रताप प्रखर प्रभु रामा।

दुष्ट-बिनास करहिं बलधामा।।

      राम अजेय-सगुन-अबिनासी।

       करुनामय-छबि-धाम-सदासी।।

प्रभु कै चरित इहाँ जे गावै।

अविरल भगति नाथ कै पावै।।

      प्रगट भए तहँ दसरथ राऊ।

       अतिसय मगन भए रघुराऊ।।

सानुज कीन्हा पितुहिं प्रनामा।

आसिस दसरथ दीन्हा रामा।।

      तव प्रताप-बल रावन मारा।

       सुनहु,पिता निसिचर संहारा।।

दसरथ-नयन नीर भरि आवा।

सुनि प्रभु-बचन परम सुख पावा।।

       पितुहिं रूप निज ग्यान लखावा।

      राम भगति तिन्ह देइ पठावा ।।

राम-भगति जब दसरथ पयऊ।

हरषित हो सुरधामहिं गयऊ।।

दोहा-देखि कुसल प्रभु राम कहँ,लखन-जानकी साथ।

        देवराज तब हो मुदित,बंदहिं अवनत माथ। ।।

                       डॉ0हरि नाथ मिश्र

                         9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-59

लेइ सबहिं तब गयउ बिभीषन।

सिय पहँ तुरत लंक-कुलभूषन।।

      सबिधि सजाइ बिठाइ पालकी।

      रच्छक सँग लइ आय जानकी।।

धाए तहाँ तुरत कपि-भालू।

देखन जननी सियहिं दयालू।।

      तुरतै कहे राम रघुराया।

       पैदल लाउ सियहिं सुनु भाया।।

नाहिं त होहिहिं बहुत अनीती।

करिहउ तसै कहै जस नीती।।

     लखन जाउ अगिनिहिं उपजाऊ।

      तेहि मा सीते तब तुम्ह जाऊ।।

सुद्धिकरन मैं चाहूँ सीता।

होहु न तुम्ह सभ कछु भयभीता।

       सीता जानहिं प्रभु कै लीला।

        कीन्ह प्रबेस अनल गुन सीला।।

मन-क्रम-बचनहिं सीय पुनीता।

प्रभु-पद-पंकज बंदउ सीता ।।

       प्रगट भईं सँग अनल सरीरा।

        सत स्वरूप समच्छ रघुबीरा।।

लछिमिहिं अर्पेयु जस पय-सागर।

बिष्णुहिं तथा राम नय नागर।।

       अगिनि समरपेउ तैसै सीता।

       अति हरषित भे राम पुनीता।।

हरषित भए सभें सुर ऊपर।

बर्षा सुमन कीन्ह तब महि पर।।

      सोनकली जस नीलकमल सँग।

      सोहहिं सिय तस राम-बाम अँग।।

सोरठा-लखि सिय प्रभु के बाम,भे बहु हरषित भालु-कपि।

           आयसु पा श्रीराम, मातल गे तब इंद्र पहँ ।।

दोहा-आइ तुरत सभ देवगन,रामहिं बहुत सराहिं।

         धन्य नाथ जे तुम्ह हतेउ,रावन पापी आहिं।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

                             9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-58

कहे राम मैं नगर न जाऊँ।

पिता-बचन मैं तोरि न पाऊँ।।

     तुरत गए सभ तिलक करावन।

     कीन्हेउ तिलक-कर्म अति पावन।।

सादर ताहि बिठाइ सिंहासन।

बिधिवत देइ बिभीषन आसन।

      आए तुरत राम जहँ रहहीं।

      लेइ बिभीषन अपि ते सँगहीं।।

तब प्रभु राम बोलि हनुमाना।

कह लंका पहँ करउ पयाना।

       समाचार सभ सियहिं सुनावउ।

       कुसलइ-छेमु तासु लइ आवउ।।

तुरत पवन-सुत लंका गयऊ।

देखि निसिचरी तहँ तब अयऊ।।

     बिधिवत हनुमत-पूजा किन्ही।

     तब देखाइ बैदेही दीन्ही ।।

हनुमत कीन्हेउ सियहिं प्रनामा।

कुसलहि कहेउ सकल प्रभु रामा।।

     लखन साथ कपि-सेनहिं माता।

      लिए जीति दसमुख सुख-दाता।।

अबिचल राज बिभीषन पावा।

कृपानिधानहिं राम-प्रभावा ।।

      कुसलइ-छेमु जानि बैदेही।

      नैन नीर भरि कहेउ सनेही।।

का मैं तुमहिं देउँ हे ताता।

बिमल भगति जे दियो बिधाता।।

     मम हिय चाहूँ तोर निवासा।

      लछिमन सहित राम कै बासा।

सदगुन सदा रहहि तव हृदये।

प्रीति नाथ तव जुग-जग निभये।।

     अस कछु जतन करउ हनुमंता।

     देखहुँ साँवर तन भगवंता ।।

तुरत कीन्ह हनुमान पयाना।

समाचार रघुनायक जाना।।

दोहा-लेहु बिभीषन-अंगदहिं,पवन-तनय-हनुमान।

         कह रघुबर सादर सियहिं,लावहु इहँ सम्मान।।

                         डॉ0हरि नाथ मिश्र

                           9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-57

रोवत-बिलखत-पीटत छाती।

गई मँदोदरि रावन धाती ।।

     सहि नहिं सकी भार तव धरनी।

     तन तव नाथ आजु भुइँ परनी।।

कच्छप-सेष बिकल हो जाएँ।

परत भार तव बहु अकुलाएँ।।

      नाथ तुम्हार तेज बड़ चमकै।

      चंदन-अग्नि-तेज लखि लरकै।।

काल जितेउ तुम्ह भुज-बल नाथा।

आजु परेउ भुइँ असुध-अनाथा।।

     बायु-बरुन-कुबेरहिं जीतेउ।

      निज भुज-बल तुम्ह इंद्र घसीटेउ।।

नाथ-तेज जानहिं तिहुँ लोका।

पर तुम्ह दियो राम प्रभु सोका।।

     तव गति भई एही तें अइसन।

      जइसन करम मिलै फल तइसन।।

भयो बिनष्ट तोर कुल सारा।

बचा नहीं अब रोवनहारा।।

       सुनि बिलाप मंदोदरि बेवा।

         ब्रह्मा-सिव-सनकादिक देवा।।

नारद सहित सिद्ध मुनि-जोगी।

भए प्रसन्न मुदित सुख-भोगी ।।

     लगे निहारन संकट-मोचन।

      भरे नीर तें निज-निज लोचन।।

नारिन्ह बिलखत देखि बिभीषन।

पहुँचे तहाँ तुरत भारी मन ।।

      रावन-दसा देखि भे सोका।

      कीन्ह लखन समुझाइ असोका।।

किरिया-करम तुरत तब करई।

प्रभु कै कृपा-दृष्टि जब भवई।।

      तब मंदोदरि देइ तिलांजलि।

       की अरपित सभाव श्रद्धांजलि।।

दोहा-तब प्रभु राम बुला लखन,अंगद-निल-जमवंत।

         कह करु तिलक बिभीषनै, नल-कपीस-हनुमंत।

                            डॉ0हरि नाथ मिश्र

                               9919446372

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