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डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-1
  *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1
सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।
बन महँ लेवन हेतु कलेवा।।
    नटवर लाल नंद के छोरा।
   लइ सभ गोपहिं होतै भोरा।।
सिंगि बजावत बछरू झुंडहिं।
तजि ब्रज बनहीं चले तुरंतहिं।।
    सिंगी-बँसुरी-बेंतइ लइता।
    बछरू सहस  छींक के सहिता।।
गोप-झुंड मग चलहिं उलासा।
उछरत-कूदत हियहिं हुलासा।।
     कोमल पुष्प-गुच्छ सजि-सवँरे।
     कनक-अभूषन पहिरे-पहिरे।।
मोर-पंख अरु गेरुहिं सजि-धजि।
घुँघची-मनी पहिनि सभ छजि-छजि।।
     चलें मनहिं-मन सभ इतराई।
     सँग बलदाऊ किसुन-कन्हाई।।
छींका-बेंत-बाँसुरी लइ के।
इक-दूजे कै फेंकि-लूटि कै।।
     छुपत-लुकत अरु भागत-धावत।
     इक-दूजे कहँ छूवत-गावत ।।
चलै बजाइ केहू तहँ बंसुरी।
कोइल-भ्रमर करत स्वर-लहरी।।
     लखि नभ उड़त खगइ परिछाईं।
      वइसे मगहिं कछुक जन धाईं।।
करहिं नकल कछु हंसहिं-चाली।
चलहिं कछुक मन मुदित निहाली।
     बगुल निकट बैठी कोउ-कोऊ।
     आँखिनि मूनि नकल करि सोऊ।।
लखत मयूरहिं बन महँ नाचत।
नाचै कोऊ तहँ जा गावत ।।
दोहा-करहिं कपी जस तरुन्ह चढ़ि, करैं वइसहीं गोप।
       मुहँ बनाइ उछरहिं-कुदहिं, प्रमुदित मन बिनु कोप।।
                           डॉ0हरि नाथ मिश्र
                            9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

ग्यारहवाँ-7
  *ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7
सुनतै सभ जन भए अचंभित।
भईं नंद सँग जसुमति चिंतित।।
      सभ जन आइ निहारैं किसुनहिं।
      करैं सुरछा सभ मिलि सिसुनहिं।।
यहि क अनिष्ट करन जे चाहा।
मृत्य-अगिनि हो जाए स्वाहा।।
    आवहिं असुर होय जनु काला।
    मारहिं उनहिं जसोमति-लाला।।
साँच कहहिं सभ संत-महाजन।
होय उहइ जस कहहिं वई जन।।
    कहे रहे जस गरगाचारा।
    वैसै होय कृष्न सँग सारा।।
मारि क असुरहिं किसुन-कन्हाई।
सँग-सँग निज बलरामहिं भाई।।
    गोप-सखा सँग खेलहिं खेला।
   नित-नित नई दिखावहिं लीला।।
उछरैं-कूदें बानर नाई।
खेलैं आँखि-मिचौनी धाई।।
दोहा-नटवर-लीला देखि के,सभ जन होंहिं प्रसन्न।
         भूलहिं भव-संकट सभें,पाइ प्रभू आसन्न।।
        संग लेइ बलरामहीं,कृष्न करहिं बहु खेल।
        लीला करैं निरन्तरहिं,ब्रह्म-जीव कै मेल।।
                    डॉ0 हरि नाथ मिश्र
                     9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

ग्यारहवाँ-6
  *ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
एकमात्र रच्छक जग लोका।
सोक-ग्रस्त कहँ करैं असोका।।
    सो प्रभु कृष्न औरु बलदाऊ।
   बनि चरवाहा बछरू-गाऊ ।।
बन-बन फिरहिं अकिंचन नाईं।
लकुटि-कमरिया लइ-लइ धाईं।।
     एक बेरि बन गाय चरावत।
     सभ गे निकट जलासय धावत।
ग्वाल-गऊ-बछरू पी पानी।
करत रहे उछरत मनमानी।।
     देखे सभें एक बक भारी।
     किसुनहिं निगलत अत्याचारी।।
गिरे सबहिं भुइँ होइ अचेता।
कंसइ असुर रहा ऊ प्रेता।।
    ब्रह्म-पितामह-पिता कन्हाई।
    लीला करहिं सिसू बनि आई।।
उदर बकासुर मा जा कृष्ना।
लगे जरावन वहि बहु तिक्षना।।
    बिकल होय तब उगला प्रेता।
    बाहर निकसे कृपा-निकेता।।
पुनि निज चोंचहिं काटन लागा।
निरमम-निष्ठुर दैत अभागा।।
    तुरत किसुन धइ दुइनउँ चोंचा।
    कसि के फारे बिनु संकोचा।।
मरा बकासुर मचा कुलाहल।
गगनहिं-सिंधु-अवनि पे हलचल।।
    जस कोउ चीरहि गाड़र-क्रीड़इ।
    फारे प्रभू बकासुर डीढ़इ।।
मुदित होइ सभ सुरगन बरसे।
सुमन चमेली-बेला हरसे ।।
    संख-नगारा बाजन लागे।
     पढ़ि स्तोत्र कृष्न-अनुरागे।।
पुनि बलराम-ग्वाल भे चेता।
लखि के किसुन हते सभ प्रेता।।
     सभ मिलि किसुन लगाए गरहीं।
      मन-चित-हृदय मगन बिनु डरहीं।।
दोहा-लवटि आइ सभ गोपहीं,जाइ के निज-निज धाम।
         अद्भुत घटना बरनहीं, किसुन-बकासुर-काम ।।
                        डॉ0हरि नाथ मिश्र।
                         9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

ग्यारहवाँ-5
  *ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
गोपी-गोप-गाय-हितकारी।
बृंदाबन हर बिधि उपकारी।।
    भेजउ पहिले सभ गउवन कय।
     रहँ जे संपति हम लोगन्ह कय।।
सभ जन बाति मानि उपनंदा।
छकड़ी-लढ़ीया लेइ अनंदा।।
    कीन्ह पयान सभ बृंदाबनहीं।
    झुंड लेइ गो-बछरू सँगहीं।।
भूषन-बसन पहिनि गोपी सब।
लीला किसुनइ गावत अब-तब।।
     निज-निज छकड़हिं बैठि क चलहीं।
     हरषित-प्रमुदित,मिलि-जुलि सबहीं।।
गो-गोपिहिं लइ छकड़ा आगे।
तुरुही रहत बजावत भागे।।
     गोपी-मंडल पैदल चलहीं।
     साथहिं-साथ पुरोहित रहहीं।।
बालक-बृद्ध सकल ब्रज-नारी।
लढ़ीयन भरी समग्री सारी।।
   हो निस्चिन्त चलहिं सभ आगे।
   धनु-सर लइ गोपहिं पछि भागे।।
रोहिनि-जसुमति दुइनउँ माता।
भूषन-बसन धारि जे भाता।।
     लइ बलदाऊ-किसुनहिं लढिया।
     बइठि चलहिं करि बातिहिं बढ़िया।।
सुनि-सुनि तोतलि बोली तिन्हकर।
जाइँ उ लोटि-पोटि हँस-हँस कर।।
      बृंदाबन प्रबेस सभ कइके।
       अर्धचंद्र इव लढ़यन धइ के।।
एक सुरच्छित स्थल कीन्हा।
बछरू-गाइ उहाँ रखि दीन्हा।।
दोहा-बृंदाबन अति रुचिर बन,गोबरधन गिरि-धाम।
        जमुना-तट मन-भावनइ, बलरामहिं-घनस्याम।।
       बलदाऊ अरु किसुन मिलि, सबहिं अनंदहिं देहिं।
       गोकुल इव बृंदाबनइ, तोतलि बानि सनेहिं।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र।
                       9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

ग्यारहवाँ-5
   *ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
कछुक काल बीते दोउ भाई।
लगे चराने बछरू जाई।।
    जहँ रहँ गऊ चरैं तहँ बछरू।
    निज पग किसुन बजावैं घुघुरू।।
कबहुँ बजाय बाँसुरी नटवर।
चित-मन-पीर हरैं जग प्रियवर।।
     फेंकैं ढेला-गोली कबहूँ।
      बिगैं गुलेल राम सँग हुबहू।।
खेलहिं खेल कबहुँ दोउ भाई।
गाय-बैल बनि धाई-धाई ।।
     कबहुँ साँड़ बनि हुँकड़हिं दोऊ।
     बोलहिं जनु पंछी बनि सोऊ।।
कोयल-बानर-मोरहिं बोली।
बोलि-बोलि वै करहिं ठिठोली।।
     बनि साधारन बालक नाईं।
     खेलत अइसइ रहे गोसाईं।।
एक बेरि बलराम-कन्हाई।
जमुना-तट रह गाय चराई।।
    दइत एक तहवाँ तब आवा।
     रूप बच्छ गो-झुंडहिं जावा।।
जानि दइत इक बच्छहि रूपा।
वहि लखाय बलराम अनूपा।
    पकरि पुच्छ तिसु किसुन पछारे।
    फेंकि गगन तरु कैथय डारे।।
कैथ तरू पे गिरतै दैता।
छटपटाइ भे प्रानहिं रहिता।।
   ग्वाल-बाल सभ करैं प्रसंसा।
   मारे किसुन बृषभ जस भैंसा।।
वाह-वाह सभ लागे कहने।
सुमन सुरहिं सभ लगे बरसने।।
          डॉ0 हरि नाथ मिश्र
          9919446372


ग्यारहवाँ-4
*ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
बाबा नंद सकल ब्रजबासी।
होइ इकत्रित सबहिं उलासी।।
आपसु मा मिलि करैं बिचारा।
भवा रहा जे अत्याचारा।।
     ब्रज के महाबनय के अंदर।
     इक-इक तहँ उत्पात भयंकर।।
गोपी एक रहा उपनंदा।
जरठ-अनुभवी मीतइ नंदा।।
    कह बलराम-किसुन सभ लइका।
    खेलैं-कूदें नहिं डरि-डरि का ।।
यहि कारन बन तजि सभ चलऊ।
कउनउ अउर जगह सभ रहऊ।।
      सुधि सभ करउ पूतना-करनी।
       उलटि गयी लढ़ीया यहि धरनी।।
अवा बवंडर धारी दइता।
उड़ा गगन मा किसुनहिं सहिता।।
     पुनि यमलार्जुन तरु महँ फँसई।
     सिसू किसुन आपुनो कन्हई।।
बड़-बड़ पून्य अहहि कुल-देवा।
किसुनहिं बचा असीषहिं लेवा।।
     करउ न देर चलउ बृंदाबन।
      बछरू-गाइ समेतहिं बन-ठन।।
हरा-भरा बन बृंदाबनयी।
पर्बत-घास-बनस्पति उँहयी।।
      बछरू-गाइ सकल पसु हमरे।
      चरि-चरि घास उछरिहैं सगरे।।
                डॉ0हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

ग्यारहवाँ-1
  *ग्यारहवाँ अध्याय*(कृष्णचरितबखान)-1
भई भयंकर ध्वनि तरु गिरतै।
दुइ तरु अर्जुन भुइँ पे परतै।।
      बाबा नंद औरु सभ गोपी।
      बज्र-पात जनु भयो सकोपी।।
सोचि-सोचि सभ भए अचंभित।
अस कस भयो सबहिं भे संकित।।
     डरतइ-डरत सभें तहँ गयऊ।
     लखे बृच्छ अर्जुन भुइँ परऊ।।
जदपि न जानि परा कछु कारन।
लखे कृष्न खैंचत रजु धारन।।
     ऊखल-बँधी कमर सँग रसरी।
     तरुहिं फँसल रह खींचत पसरी।।
अस कस भवा सोचि उदबिग्ना।
मन सभकर रह सोचि निमग्ना।।
     कछु बालक तहँ खेलत रहऊ।
      लगे कहन सभ किसुना करऊ।।
ऊखल फँसा त खैंचन लागे।
गिरत बिटप लखि हम सभ भागे।।
    निकसे तहँ तें दुइ तनधारी।
    सुघ्घर पुरुष स्वस्थ-मनहारी।।
पर ना होय केहू बिस्वासा।
किसुन उखरिहैं तरु नहिं आसा।।
     अति लघु बालक अस कस करई।
     नहिं परितीति केहू मन अवई ।।
सुधि करि लीला पहिले वाली।
सभ कह किसुन होय बलसाली।।
      प्रिय प्रानहुँ तें लखि निज सुतहीं।
      रसरी बँधा कृष्न जहँ रहहीं।।
बाबा नंद गए तहँ तुरतइ।
किसुनहिं मुक्तइ कीन्ह वहीं पइ।।
    कबहुँ-कबहुँ प्रभु कृपा-निकेता।
     नाचहिं ठुमुकि गोपि-संकेता।।
खेल देखावैं जस कठपुतली।
नाचहिं किसुन पहिनि वस झिंगुली।।
    लावहिं कबहुँ खड़ाऊँ-पीढ़ा।
     आयसु लइ गोपिन्ह बनि डीढ़ा।।
                डॉ0हरि नाथ मिश्र
                  9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गंगा दोहा-चौपाई मिश्रित प्रयास(अवधी में)
             गंगा माँ
अहहि गंग-जल परम पुनीता।
भगत पान करि भवहिं अभीता।।

करि स्नान ध्यान करि गंगा।
नर जावहिं भव-पार उमंगा।।

दोहा-गंगा-जल अमरित अहहि, तन-मन करै निरोग।
         करि नहान यहि नीर मा, पायँ मुक्ति सब लोग।।

सगर आदि तरिगे छुइ सलिला।
कबहुँ न नीर गंग  मट मइला ।।

सुरसरि अहहि अभूषन संकर।
हरहि तुरत भव-कष्ट  भयंकर।।

दोहा-संकर-सिर-सोभा इहै,करैं इहै कल्यान।
        सकल तीर्थ इन मा बसै,सुभकर होय नहान।।

ऋषीकेस-कासी-हरिद्वारा।
बहहि गंग हरि ताप अपारा।।

संगम-गंग-जमुन-स्थाना।
तरहिं लोंग जा करि स्नाना।।

दोहा-गंग-जमुन-संगम सुखद,तीरथराज प्रयाग।
         कुंभपर्व- महिमा प्रबल,सब हिय रह अनुराग।।

सत-सत नमन करउँ कर जोरी।
सुरसरि  मातु  गंग  मैं तोरी।।

दोहा- अमरित-औषधि गंग-जल,करै जगत-कल्यान।
         धन्य भूमि भारत इहै ,जासु  गंग  सम्मान ।।
                           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                             9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दसवाँ-3
  *दसवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
जे नहिं कंटक-पीरा जानै।
ऊ नहिं पीरा अपरै मानै।।
    नहीं हेकड़ी,नहीं घमंडा।
    रहै दरिद्री खंडहिं-खंडा।।
नहिं रह मन घमंड मन माहीं।
जे जन जगत बिपन्नय आहीं।।
    रहै कष्ट जग जे कछु उवही।
    ओकर उवहि तपस्या रहही।।
करि कै जतन मिलै तेहिं भोजन।
दूबर रह सरीर जनु रोगन ।।
     इन्द्रिय सिथिल, बिषय नहिं भोगा।
     बनै नहीं हिंसा संजोगा ।।
कबहुँ न मनबढ़ होंय बिपन्ना।
होंहिं घमंडी जन संपन्ना ।।
     साधु पुरुष समदरसी भवहीं।
    जासु बिपन्न समागम पवहीं।।
नहिं तृष्ना,न लालसा कोऊ।
जे जन अति बिपन्न जग होऊ।।
     अंतःकरण सुद्धि तब होवै।
      अवसर जब सतसंग न खोवै।।
जे मन भ्रमर चखहिं मकरंदा।
प्रभु-पद-पंकज लहहिं अनंदा।।
     अस जन चाहहिं नहिं धन-संपत्ति।
    संपति मौन-निमंत्रन बीपति ।।
प्रभु कै भगति मिलै बिपन्नहिं।
सुख अरु चैन कहाँ सम्पन्नहिं।।
      दुइनिउ नलकूबर-मणिग्रीवा।
      बारुनि मदिरा सेवन लेवा।।
भे मदांध इंद्री-आधीना।
लंपट अरु लबार,भय-हीना।।
      करबै हम इन्हकर मद चूरा।
      चेत नहीं तन-बसन न पूरा।।
अहइँ इ दुइनउ तनय कुबेरा।
पर अब पाप इनहिं अस घेरा।।
     जइहैं अब ई बृच्छहि जोनी।
     रोकि न सकै कोउ अनहोनी।।
पर मम साप अनुग्रह-युक्ता।
कृष्न-चरन छुइ होंइहैं मुक्ता।।
दोहा-जाइ बीति जब बरस सत,होय कृष्न-अवतार।
        पाइ अनुग्रह कृष्न कै, इन्हकर बेड़ा पार ।।
                     डॉ0हरि नाथ मिश्र
                      9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

नवाँ-2
   *नवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2
गाँठ चोटिका जब भे भंजित।
गिरनहिं लगे पुष्प जे गुंथित।।
     सुमुखी मातु जसोदा अंतहिं।
     निज कर गहीं लला भगवंतहिं।।
लगीं डराने अरु धमकाने।
डरपहिं किसुन न जाइ बखाने।।
     धनि-धनि भागि तोर हे माई।
     लखि तव भृकुटी डरैं कन्हाई।।
रोवहिं किसुन नियन अपराधी।
ब्रत टूटे जस रोवहिं साधी।।
      मलत अश्रु कज्जल भे आनन।
      अश्रु बहहि बरसै जस सावन।।
कान्हा कहहिं न डाँटउ माई।
अब नहिं मटुकी फोरब जाई।।
     सुनि अस बचनहिं किसुन बिधाता।
      सिंधु-नेह उमड़ा उर माता ।।
पुनि बिचार जसुमति-मन आवा।
बान्हि रखहुँ जे भाग न पावा।।
     रज्जु लेइ तुरतै तहँ बान्हा।
     जायँ न ताकि पराई कान्हा।।
जानहिं नहिं जनु प्रभु कै महिमा।
बाहर-भीतर नहिं कछु वहि मा।।
    प्रभु कै अंत न औरउ आदी।
     रहँ प्रभु पहिले रह जग बादी।।
बाहर-भीतर जगत क रूपा।
रहहिं प्रभू बस सतत अनूपा।।
     जे कछु इहवाँ परै लखाई।
     प्रभुहिं सबहिं मा जानउ भाई।।
इंद्री परे, अब्यक्त स्वरूपा।
अजित-अमिट अरु अलख-अनूपा।।
दोहा-किसुन अनंत बिराट अहँ,बिष्नु- रूप- अवतार।
        जे नहिं जानै भेद ई,मूरख कह संसार ।।
                    डॉ0हरि नाथ मिश्र
                     9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

नवाँ-1
  *नवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1
एक बेरि जसुमति नँदरानी।
मथन लगीं दधि लेइ मथानी।।
     सुधि करतै सभ लला कै लीला।
     दही मथैं मैया गुन सीला।।
कटि स्थूल भाग पै सोहै।
लहँगा रेसम कै मन मोहै।।
    पुत्र-नेह स्तन पय-पूरित।
     थकित बाँह खैंचत रजु थूरित।।
कर-कंगन,कानहिं कनफूला।
हीलहिं जनु ते झूलहिं झूला।।
     छलक रहीं मुहँ बूंद पसीना।
     पुष्प मालती चोटिहिं लीना ।।
रहीं मथत दधि जसुमति मैया।
पहुँचे तहँ तब किसुन कन्हैया।।
     पकरि क तुरतै दही-मथानी।
      चढ़े गोद मा जसुमति रानी।।
लगीं करावन स्तन-पाना।
मंद-मंद जसुमति मुस्काना।।
     यहि बिच उबलत दूध उफाना।
     लखि जसुमति तहँ कीन्ह पयाना।।
छाँड़ि कन्हैया बिनु पय-पानहिं।
जनु अतृप्त-छुब्ध अवमानहिं।।
    क्रोधित कृष्न भींचि निज दँतुली।
    लइ लोढ़ा फोरे दधि-बटुली।।
निज लोचन भरि नकली आँसू।
जाइ क खावहिं माखन बासू।।
     उफनत दूध उतारि क मैया।
     मथन-गृहहिं गइँ धावत पैंया।।
फूटल मटका लखि के तहवाँ।
जानि लला करतूतै उहवाँ।।
     प्रमुदित मना होइ अति हरषित।
     बिहँसी लखि लीला आकर्षित।।
उधर किसुन चढ़ि छींका ऊपर।
माखन लेइ क छींका छूकर।।
     रहे खियावत सभ बानरहीं।
     बड़ चौकन्ना भइ के ऊहहीं।।
कर गहि छड़ी जसूमति मैया।
जा पहुँची जहँ रहे कन्हैया।।
   देखि छड़ी लइ आवत माई।
   डरि के कान्हा चले पराई।।
बड़-बड़ मुनी-तपस्वी-ग्यानी।
सुद्ध-सुच्छ मन प्रभुहिं न जानी।।
     सो प्रभु पाछे धावहिं माता।
     लीला तव बड़ गजब बिधाता।।
दोहा-आगे-आगे किसुन रहँ, पाछे-पाछे मातु।
         भार नितम्भहिं सिथिल गति,थकित जसोदा गातु।।
                          डॉ0हरि नाथ मिश्र
                            9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-9
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-9
उमड़त नेह लगै जस सागर।
जसुमति-हृदय कृष्न प्रभु नागर।।
    जसुमति-पुत्र उहहिं भगवाना।
     बेद-सांख्य जे जोग बखाना।।
सकल उपनिषद महिमा गावैं।
जे प्रभु भजत भगत सुख पावैं।।
     सो प्रभु जनम भयो गृह जसुमत।
     धनि-धनि भागि जाय नहिं बरनत।।
धनि-धनि भागि जसोदा मैया।
जाकर स्तन पियो कन्हैया।।
     बाबा नंद त जोगी रहईं।
     यहिं तें कृष्न लला सुत पवईं।।
लला जसोदा लीला करहीं।
गोपी-सखा परम सुख लहहीं।।
     जसुमति-नंद अनंदित होवैं।
     पर सुख अस बसुदेवयि खोवैं।।
अस सुख मिलै न मातु देवकी।
कारन कवन बता मुनि अबकी।।
   अस सुनि प्रस्न मुनी सुकदेवा।
   कहे परिच्छित सुनु चित लेवा।।
दोहा-धरा-द्रोन-उर मा रहइ, ब्रह्मा-भगति अपार।
        मिलइ उनहिं किसुनहिं भगति,कह जा ब्रह्मा द्वार।।
       एवमस्तु तब तुरत कह,ब्रह्मा दियो असीष।
        अगले जनमहिं पाइ ते,तनय रूप जगदीस।।
        द्रोन भए ब्रज नंदहीं,धरा जसोदा रूप।
         पुत्र तिनहिं कै कृष्न भे,लीला करहिं अनूप।।
         पति-पत्नी कै रूप मा,गोपी-गोपिहिं साथ।
         निरखहिं लीला किसुन कै,अरु बलरामहिं नाथ।।
                        डॉ0हरि नाथ मिश्र
                          9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-7
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7
एक दिवस बलदाऊ भैया।
लइ गोपिन्ह कह जसुमति मैया।।
     माई,खाए किसुन-कन्हाई।
     माटी इत-उत धाई-धाई।।
पकरि क हाथ कृष्न कै मैया।
कह नटखट तू बहुत कन्हैया।।
     काहें किसुन तू खायो माटी।
     अस कहि जसुमति किसुनहिं डाँटी।।
सुनतै कान्हा डरिगे बहुतै।
लगी नाचने पुतरी तुरतै।।
    झूठ कहहिं ई सभें हे मैया।
    गोप-सखा-बलदाऊ भैया।।
अस कहि कृष्न कहे सुनु माई।
नहिं परतीति त मुँहहिं देखाई।।
    अब नहिं बाति औरु कछु बोलउ।
    कहहिं जसोदा मुहँ अब खोलउ।।
तुरत किसुन तब खोले आनन।
लखीं जसोदा महि-गिरि-कानन।।
      सकल चराचर अरु ब्रह्मंडा।
      बायु-अग्नि-रबि-ससी अखंडा।।
जल-समुद्र अरु द्वीप-अकासा।
विद्युत-तारा सकल प्रकासा।।
    सत-रज-तम तीनिउँ मुख माहीं।
    परे जसोदा सभें लखाहीं।।
जीव-काल अरु करम-सुभावा।
साथ बासना जे बपु पावा।।
     बिबिध रूप धारे संसारा।
     स्वयमहुँ देखीं जसुमति सारा।।
दोहा-किसुन-छोट मुख मा लखीं,जसुमति रूप अनूप।
        सकल विश्व जामे रहा,जल-थल-गगन-स्वरूप।।
                 डॉ0 हरि नाथ मिश्र
                   9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-6
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
कबहुँ त छेद करहि मटका महँ।
छाछ पियहि भुइँ परतइ जहँ-तहँ।।
     लला तोर बड़ अद्भुत जसुमत।
     गृह मा कवन रहत कहँ जानत।।
केतनउ रहइ जगत अँधियारा।
लखतै किसुन होय उजियारा।।
     तापर भूषन सजा कन्हाई।
     मणि-प्रकास सभ परे लखाई।।
तुरतै पावै मटका-मटकी।
माखन खाइ क भागै छटकी।।
     लखतै हम सभ रत गृह-काजा।
     तुरतै बिनु कछु किए अकाजा।।
लइ सभ सखा गृहहिं मा आई।
खाइ क माखन चलै पराई ।।
दोहा-पकरि जाय चोरी करत,तुरतै बनै अबोध।
        भोला-भाला लखि परइ, धनि रे साधु सुबोध।।
       सुनतै जसुमति हँसि परीं,लीला-चरित-बखान।
       डाँटि न पावैं केहु बिधी,कान्हा गुन कै खान।।
       एक बेरि निज गृहहिं मा,माखन लिए चुराय।
       मनि-खंभहिं निज बिंब लखि,कहे लेउ तुम्ह खाय।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र
                           9919446372


*कुण्डलिया*
बोलें कभी न कटु वचन,इससे बढ़े विवाद,
मधुर बोल है शहद सम,करे दूर अवसाद।
करे दूर अवसाद,शांति तन-मन को मिलती,
उपजे शुद्ध विचार,और भव-बाधा टलती।
कहें मिसिर हरिनाथ,बोल में मधु रस घोलें,
यही ताप-उपचार, वचन रुचिकर ही बोलें।।
            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-5
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
ग्वाल-बाल लइ साथे-साथे।
फोरहिं मटकी गोपिन्ह माथे।।
   घर मा घुसि के कबहुँ कन्हाई।
   ग्वाल-बाल सँग मक्खन खाई।।
भागहिं इत-उत पकरि न पावहिं।
जदपि कि गोपिहिं पाछे धावहिं।।
    बछरू छोरि पियावहिं गैया।
    चोरी-चोरी किसुन कन्हैया।।
डाँट परे जब हँसहिं ठठाई।
तब भागै जनु पीर पराई।।
     बड़ नटखट तव लाल जसोदा।
     कहि-कहि गोपिन्ह लेवहिं गोदा।।
बहु-बहु जतन करै तव लाला।
चोरी-चोरी जाइ गोसाला।।
      बछरू-गैयन छोरि भगावै।
      निज मुख कबहूँ थनइ लगावै।।
खाइ-बहावै-फोरै गागर।
तोर लला ई नटवर नागर।।
      ग्वाल-बाल सँग खाइक माखन।
       कछुक देइ ई बनरन्ह चाखन।।
सुनउ जसोदा गोपी कहहीं।
कबहुँ त लला तोर अस करहीं।।
    सोवत सिसुन्ह रोवाइ क भागै।
    माखन मिलै न गृह जब लागै।।
निन्ह हाथ नहिं पहुँचै छीका।
चढ़ि ऊखल पर तुरत सटीका।।
     अथवा धयि पीढ़ा दुइ-चारा।
      तापर चढ़ि तहँ पहुँचि दुलारा।।
कबहुँ-कबहुँ चढ़ि गोपिन्ह काँधे।
पहुँचै जहाँ लच्छ रह साधे।।
    मटका भुइँ उतारि सभ खावैं।
    जदपि सतावहिं पर बड़ भावैं।।
दोहा-तोर लला बड़ ढीठ अह,चंचल-नटखट-चोर।
        सुनहु जसोदा गृहहिं महँ,प्रबिसइ बिनु करि सोर।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-4
     *अठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
कीचड़ भरी गलिन गोकुल कै।
खेलहिं जहाँ सुतन्ह नंद कै।।
   चलत बकैयाँ पग-कटि घुघरू।
    जनु सिव थिरकहिं बाजत डमरू।।
कबहुँ-कबहुँ ते पाछे चलहीं।
मग महँ जे अनजाना रहहीं।।
     पर ते सिसुहिं जानि अनजाना।
     चलत बकैयाँ मातुहिं आना।।
जावहिं राम रोहिनी पासा।
पास जसोदा कृष्न उलासा।।
    स्तन-पान करावहिं मैया।
    निरखत अद्भुत राम-कन्हैया।।
कीचड़-लसित गात दुइ भ्राता।
बहु-बहु लखि नहिं चित्त अघाता।।
     लखि भोला मुख राम-कन्हैया।
     सिंधु अनंदहिं डूबहिं मैया ।।
स्तन-पान करत मुस्काए।
लखि दुइ दंतुलि चित हरषाए।।
     कछुक काल बीते दुइ भाई।
      बइठल बछरू पूँछहिं धाई।।
लीला निरखि-निरखि सभ हरखहिं।
देखि जिनहिं गोपी सभ तरसहिं।।
     भागै बछरू डरि चहुँ ओरा।
      लेइ घसीटत दुइनउँ छोरा।।
छाँड़ि सभें गोपी निज कारज।
होंहि अनंदित लखि अस अचरज।।
    हँसि-हँसि, लोट-पोट भुइँ परहीं।
     जनु ते सुखन्ह अमरपुर पवहीं।।
चंचल-नटखट दुइनउँ भाई।
कबहुँ त जाइ हिरन अरु गाई।
     जावहिं कबहूँ पसुहिं बिषाना।
       जरत अगिनि कूदहिं  अनजाना।।
कूप-गड्ढ-जल गिरि-गिरि बचहीं।
कबहुँ त कंट-बनज महँ फँसहीं।।
     खेलहिं कबहुँ लेइ बलदाऊ।
     किसुनहिं मोर संग हरखाऊ।।
बहुतै बरजैं मिलि महतारी।
मानैं राम न किसुन मुरारी।।
     धारि चित्त तजि गृह सभ काजा।
      कहत बुलावैं आ जा,आ जा।।.
दोहा-कछुक काल के बाद तब,चलन लगे निज पाँव।
        दुइनउँ बंधु लुदकि-लुदकि, ब्रज महँ ठाँवहिं-ठाँव।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-3
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
पहिले कबहुँ रहा ई जनमा।
यही बरन बसुदेवहिं गृह मा।।
     यहिंतें बासुदेव कहलाई।
     तोर लला ई किसुन कन्हाई।।
बिबिध रूप अरु बिबिधइ नामा।
रहहि तोर सुत जग बलधामा।।
    गऊ-गोप अरु तव हितकारी।
    अहहि तोर सुत बड़ उपकारी।।
हे ब्रजराज,सुनहु इकबारा।
कोउ नृप रहा न अवनि-अधारा।।
    लूट-पाट जग रह उतपाता।
    धरम-करम रह सुजन-निपाता।।
रही कराहत महि अघभारा।
जनम लेइ तव सुतय उबारा।।
    जे जन करहिं प्रेम तव सुतहीं।
     बड़ भागी ते नरहिं कहहहीं।।
बिष्नु-सरन जस अजितहिं देवा।
अजित सरन जे किसुनहिं लेवा।।
     तव सुत नंद,नरायन-रूपा।
सुंदर-समृद्ध गुनहिं अनूपा।। 
रच्छा करहु तुमहिं यहि सुत कै।
सावधान अरु ततपर रहि कै।।
    नंदहिं कह अस गरगाचारा।
    निज आश्रम पहँ तुरत पधारा।।
पाइ क सुतन्ह कृष्न-बलदाऊ।
नंद-हृदय-मन गवा अघाऊ।।
सोरठा-कहे मुनी सुकदेव, सुनहु परिच्छित थीर मन।
           कृष्न औरु बलदेव,चलत बकैयाँ खेलहीं।।
                          डॉ0हरि नाथ मिश्र
                            9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-2
  *अठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2
सुनि अस बचन नंद बाबा कै।
गर्गाचार बाति कह मन कै।।
     सुनहु नंद जग जानै सोई।
     गुरु जदुबंस कुलयि हम होंई।।
कहे नंद बाबा हे गुरुवर।
अति गुप करउ कार ई ऋषिवर।।
    'स्वस्तिक-वाचन' मम गोसाला।
     अति गुप-चुप प्रभु करउ निराला।।
अति एकांत जगह ऊ अहई।
नामकरन तहँ बिधिवत भवई।।
    गुप-चुप कीन्हा गर्गाचारा।
    तुरतयि नामकरन संस्कारा।।
'रौहिनेय' रामयि भे नामा।
तनय रोहिनी अरु 'बल'-धामा।।
    रखहिं सबहिं सँग प्रेम क भावा।
     नाम 'संकर्षन' यहि तें पावा ।।
साँवर तन वाला ई बालक।
रहा सबहिं जुग असुरन्ह-घालक।।
    धवल-रकत अरु पीतहि बरना।
    पाछिल जुगहिं रहा ई धरना।
सोरठा-नंद सुनहु धरि ध्यान,कृष्न बरन यहि जन्महीं।
           नाम कृष्न गुन-खान,रखहु अबहिं यहि कै यहीं।।
                          डॉ0हरि नाथ मिश्र
                           9919446372

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