कविता तिरंगे का दर्द

नाम--डॉ० कुसुम सिंह 'अविचल'
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रतन लाल नगर
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कविता--"तिरंगे का दर्द"
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व्यथित हूँ आज भारत माँ ,कफ़न बन करके सैनिक पर,
मुझे फहराया था जिसने,गर्व से उन्नत शिखरों पर,
शहीदों को सलामी में झुका हूँ दिल पे पत्थर रख,
लहू से लथपथ वीरों के पड़ा पार्थिव शरीरों पर।


हूँ घायल किन्तु आंखों में
प्रतिशोधी शोले भड़के हैं,
झुकूंगा वीर लालों पर,शत्रु को काल बनके है,
बगावत है तिरंगे की,करूंगा नाश दुश्मन का,
खून से खून लेना है,रक्त के सागर छलके हैं।


सिंह घायल नहीं होंगे,निशाने पर है अब दुश्मन,
जो करता वार घातों से बिछा दी हमने भी चौपड़,
शपथ दी है शवों ने जो तिरंगा तान कर सोए,
शत्रु का सीना छलनी कर,लाशें करनी हैं क्षतविक्षत।


हैं तेवर इंकलाबी अब,चुनौती देती क्रांति धरा,
है क्रोधित भारती अपनी,बनी रणचण्डी क्रान्तिधरा,
खून के कतरे कतरे का प्रण है प्रतिशोध लेने का,
दी है सौगन्ध तिरंगे ने,जयहिंद कहेगी क्रान्तिधरा।
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स्वरचित
लता@कुसुम सिंह'अविचल'


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