देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"

.......अभिलाषा.......
चांदनी रात,
सन्नाटे की शुरुआत;
नदी के तीर पर,सामाजिक
कोलाहल से दूर,एकांत वातावरण में
घूम रहा था।पानी का तेज 
बहाव शांत माहौल
में गुंजरित,
हो रहा था।अचानक
कुछ फासले पर दो लहरें
उठीं - मचलती,इठलाती,बलखाती,
एक दूसरे से  मिलने को
बेकरार।मचा हुआ
था आपस 
में अजीब तरह का
हाहाकार।मन  ने कहा,
हो न हो,यह मेरी सुनी आवाज़ है।
दिल ने  कहा,नहीं,यह
मेरे मित्र व उसकी
प्रेमिका के,
प्रणय भरे गीत की
साज़ है।परंतु,लहरों के
मध्य,फासलों को देखकर,हृदय
आशंका  से भर उठता
है।सामाजिक और
पारिवारिक
परंपराएं,बाधाएं,
देखकर मन डर उठता
है।क्या रूढ़िवादिता की दीवारें
इन्हें मिलने नहीं देंगी?
मन नहीं लगता,
इस वीरान
निर्झर में। कब
होगा प्रत्यक्ष - मिलन,
इन दो  प्रेमियों का,अभिलाषा
बसी है,मेरे जिगर में?
----- देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"


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