कविता:-
*"ढ़ाई आखर प्रेम के"*
"बिन प्रेम के साथी ,
जीवन नहीं-
बंज़र भूमि सा लगता ।
पलने लगता अहंकार इसमें,
नीरस हो कर-
बेकार लगने लगता।
पनपने लगती नफ़रत,
जीवन संबंधों को-
साथी खोने लगता।
धन-वैभव सम्पन्नता भी,
दे न पाती सुख-
अकेलापन खलने लगता।
पढ़ लेते जो जीवन में साथी,
ढ़ाई आखर प्रेम का-
जीवन सच लगने लगता।
महक उठती जीवन बगिया,
जीवन सपना -
सच लगने लगता।
अपनत्व होता अपनों में,
जीवन में -
प्रेम दीप जलने लगता।
ढ़ाई आखर प्रेम का साथी,
हर मन में पलने लगता-
जीवन का हर सपना सच लगता।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःः 11-02-2020
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
सुनील कुमार गुप्ता
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