डा.नीलम अजमेर

*बेकरार*


दिल ग़म से लबरेज था
मगर *बेकरार* न था
था दूर बहुत मुझसे मगर
तू कहीं आसपास ही था


धड़कनें हमारीं थड़कती थीं
इकदूजे के सीने में
जिस्म दो थे मगर 
एक जान थे हम


साँसों में घुलती थीं साँसे हमारीं,चोट कभी लगती थी मुझको, दर्द भरी कराहट 
तुम्हारी होती थी


ना जाने किसकी नज़र लगी
 हमारी मुहब्बत को
निगाह फेर तुमने मेरे
दिल को चाक-चाक किया


छीन कर सारी धड़कनें 
मेरी ,मुझे निःष्प्राण किया
अब साँसों में गुम हो 
कहीं खो गई बेकरारी मेरी।


       डा.नीलम


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