गोविंद भारद्वाज, जयपुर

जल रही है धरा तप रहा है गगन
छद्ममय इस प्रगति से हुआ लाभ क्या?


पानी उतरा चला आज पाताल को,
दे रहे हम निमंत्रण स्वयं काल को,
नित सजाते रहे झूठ के आँकड़े,
हमको ऐसी कुमति से हुआ लाभ क्या?


काटकर वन उगाते रहे हम भवन,
पी रहे अब गरल करके दूषित पवन,
पेड़-पौधों को मारा, बसाए शहर,
इस हरितिमा की क्षति से, हुआ लाभ क्या?


नित्य नदियों में कचरा बहाते रहे,
हम भगीरथ के वंशज कहाते रहे,
पुण्य पुरखों के हमने सहेजे नहीं,
तप से ऐसी विरति से, हुआ लाभ क्या?


धरती माता है इसकी सुरक्षा करो,
पानी बरसेगा फिर जंगल से भरो,
वेद गाएँगे फिर से ऋचाएँ यहाँ,
थोथे नारों की वृति से हुआ लाभ क्या?


गोविंद भारद्वाज, जयपुर


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