निशा"अतुल्य"

सेदोका छंद
8 /3 /2020
नारी ढूंढती नर 



समाए तुम
अनाधिकृत रूप
से क्यों नर मुझमें
ढूँढू जग में 
हो बावरी मैं तुम्हे 
बेगानी हूँ सबसे ।


नर तुम हो 
बोल बोल मैं थकी
नही दिखते कहीं
हो भी या नही
अंतर्मन टटोला
तुम तो थे मुझ में।


प्रेम फुहार
थिरकन है कैसी
अंग अंग बहका 
हुई बेगानी
जग बेकार लगे
डूब कर तुझमें।


अधूरे हम
एक दूजे के बिन
मिलन नही हुआ
पूर्ण मन से 
क्यों बता पाओगे क्या 
नही लगता मुझे ।


जाग्रत हुई
नही चाह है कोई 
पाने की अब तुम्हे
चहुँ ओर यूँ
समाहित मुझमें
स्वंय तुम मुझमें।


मैं जन्म देती
रख उदर तुम्हे
क्या करते हो तुम 
सम्मान कभी
नारियों का दिल से
कैसी निर्मात्री हूँ मैं।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

गीत- दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं....... दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

गीत- दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं....... चुप्पी  के   दिन खुशियों के दिन भीगे सपनों की बूंदों के दिन, आते जाते हैं, दि...