अभिलाषा देशपांडे    मुंबई

प्रकृती का अभिशाप 
वाह रे मानव! वाह रे मानव
शक्ती तेरी अपार मानव
उष्मा प्रचंड  हो रही! 
हिमखंड नष्ट हो रहे! १!
 वनस्पतिया लुप्त हो रही!
 सागर उबल उफल रहें! 
हरी-भरी वसुंधरा का
करदे अब संहार मानव!२!
वृक्षों  को तू काट मानव
कर उर्जा का उपहास मानव
तू सर्वशक्तीमान मानव 
दे सारा विधान मानव!३!
 रुदन का रहा हिमालय
जीव त्राही त्राही कर रहें
देख तेरा आत्मबल देवता
चकित हो रहें !४!
 धरापर अवतरण से देव 
अमरनाथ भी डर रहें
तू चलाचल अग्रेसर 
कर अपनी आँखे बंद मानव!५!
स्वरचित
-अभिलाषा देशपांडे 
  मुंबई


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

गीत- दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं....... दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

गीत- दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं....... चुप्पी  के   दिन खुशियों के दिन भीगे सपनों की बूंदों के दिन, आते जाते हैं, दि...