डा.नीलम

*जज्बात मेरे*


महफूज रक्खें हैं मेरे जज्बात अक्षरों की
शक्ल में
दिल की किताब से
निकाल कर उन्हें
सजा लिया है
पुस्तक की शक्ल में
तनहाई में अक्सर
पलट कर पन्ने
घूम आती हूँ
अतीत की गलियों में
जहाँ कहीं बचकानी
फिसलन पर 
पैर संभालती  हूँ
कहीं लड़कपन की
अठखेलियों में
मुस्कराती हूँ
कभी उन सपनों से 
मिलती हूँ
जो नींद खुलने के
साथ ही टूट गये
मिल आती हूँ
उन पगडण्डियों से भी
जिन पर चल कर
कभी तुम आ जाते थे
एक झलक पाने को
सच तो ये है
उन पुस्तकों में
मैने भोर से साँझ ढले
साँझ से रात तक के
लम्हें समेट रक्खें हैं
जो मुझे कभी तन्हा
नहीं रहने देते
उनमें कई पन्ने
मेरी सिसकियों और
दबी हुईं चीखों के हैं
जो कभी मैं
खुलकर व्यक्त ना
कर सकी
बहते दरिया से दर्द
अल्फाज में बहते हैं
मेरे दिल के जज्बात
मेरी पुस्तक में
उतर आये हैं।


      डा.नीलम


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