डॉ. हरि नाथ मिश्र

बाँसुरी-


बाँसुरी बेसुरी हो गयी है।


पंखुरी खुरदुरी हो गयी है।।


         ऐसी घड़ियाँ न थीं कभी पहले,


         ऐसी बातें न थीं कभी पहले।


          बात कैंची-छुरी हो गयी है।।


                           बाँसुरी बेसुरी...


प्रेम के बोल थे तब सुहावन,


नाते-रिश्ते भी थे बहु लुभावन


दोस्ती अब बुरी हो गयी है।।


                बाँसुरी बेसुरी....


आबो-हवा से सँवरती थी सेहत,


करती नफ़रत नहीं थी यह कुदरत।


अब वही आसुरी हो गयी है।।


                  बाँसुरी बेसुरी....


आस्था की शिला की वो मूरत,


जिसकी मजबूत थी हर परत।


रेत सी भुरभुरी हो गयी है।।


                  बाँसुरी बेसुरी....


ठोस थी नीवं इल्मो-हुनर की,


अपनी तहज़ीब की ,हर चलन की।


आज वो बेधुरी हो गई है।।


                  बाँसुरी बेसुरी....


अपनी धरती जो थी स्वर्ग जैसी,


पाप बोझिल जहन्नुम-नरक की-


अब मुक़म्मल पुरी हो गयी है।।


                बाँसुरी बेसुरी....


हो जाती थी नम आँख जो तब,


ग़ैर की हर ख़ुशी-ग़म में वो अब-


किस क़दर कुरकुरी हो गयी है।।


                    बाँसुरी बेसुरी....


                                      ©डॉ. हरि नाथ मिश्र


                                           9919446372


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