विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--


 


अपनों से मेरा अब तो रहा सिलसिला नहीं


मुझको तो एक ख़त भी कोई भेजता नहीं


 


भटका कहाँ कहाँ मुझे ख़ुद पता नहीं


इस ज़ीस्त के नसीब में इक रहनुमा नहीं 


 


पहुँचा हूँ मैं कहाँ कि जहाँ रास्ता नहीं 


मेरा ही मुझसे अब तो कोई वास्ता नहीं


 


अब तो मेरे ख़याल में आजा मेरी ग़ज़ल


कमरे में मैं ही मैं हूँ कोई दूसरा नहीं


 


इतना करम न मुझपे करो मेरे दोस्तो


मैं भी तो आदमी हूँ कोई देवता नहीं


 


काँटों से अपने घर को सजाने की आरज़ू


फूलों की बात क्यों ये बशर सोचता नहीं 


 


ऐसे जले चराग़ कि दुनिया ही जल उठी 


हँसते हुए किसी को कोई देखता नहीं 


 


मेरी हँसी उड़ाओ न ऐसे भी दोस्तो


तुम बादशाहे-वक़्त हो लेकिन ख़ुदा नहीं


 


इतना चला हूँ धूप में चेहरा झुलस गया 


साये का दूर दूर भी कोई पता नहीं


 


मजबूरियों के बोझ से बिकता रहा हूँ मैं 


*साग़र* ज़मीर मेरा बिका है मरा नहीं 


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


 


 


जुलाई 1996


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