भरत नायक "बाबूजी"

*"जंगल कटते नित्य ही"*


(कुण्डलिया छंद)


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जंगल कटते नित्य ही, पर्यावरण न हेत।


बढ़ती नित नव आपदा, मानव अब तो चेत।।


मानव अब तो चेत, आग सूरज से बरसे।


नित-नित बढ़ता ताप, नीर को है जग तरसे।।


कह नायक करजोर, कहाँ हो शुभकर मंगल?


होगी हाहाकार, नहीं होंगे जब जंगल।।


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*"सूरज उगले आग"*


         ( कुण्डलिया छंद )


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सूखे नद-नाले सभी, सूख रही जलधार।


तापित रवि अब कर रहा, पल-पल प्रबल प्रहार।।


पल-पल प्रबल प्रहार, हरे कानन मुरझाये।


सूरज उगले आग, धूप है बहुत जलाये।।


कह नायक करजोरि, सभी जन-मानस रूखे।


बेकल हैं दिन-रात, छलकते सोते सूखे।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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