सीमा शुक्ला अयोध्या।

है कौन हुआ मानव जग में


जो जन्म लिया पाकर राहे।


 


जीवन में लाखों हो मुश्किल


हो मिलों दूर खड़ी मंजिल,


विचलित क्यों कर हालातों से,


हारों मत निज जज़्बातों से।


तू मानव है मजबूर नहीं


निज हार कभी मंजूर नहीं।


 


तू चलता चल मंजिल तेरी,


आगे फैलाए हैं बाहें।


है कौन हुआ मानव जग में,


जो जन्म लिया पाकर राहें।


 


क्या हुआ स्वप्न जो टूटा तो


कोई अपना गर रूठा तो


बहती जीवन की धारा हैं


कुछ मीठा कुछ जल खारा है


सूरज डूबे जब हो रातें,


हम तारों से करते बातें।


 


हैं कौन हुआ ऐसा जग में,


जिसकी पूरी हो हर चाहें।


है कौन हुआ मानव जग में


जो जन्म लिया पाकर राहें।


 


मानव तन जग में तू पाया,


कुछ करने की खातिर आया।


क्योंकर तू कहता व्यथा फिरे,


क्यों जीवन करता वृथा फिरे


गर अंतर्मन विश्वास जगे


पतझड़ में उपवन फूल खिलें।


 


जल धारा बहती जाती है,


खुद ही पा जाती है राहें।


है कौन हुआ मानव जग में,


जो जन्म लिया पाकर राहें।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


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