स्नेह लता "नीर" रुड़की

दोहे


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1


 कुमुदबन्धु को देख कर,खिले कुमुद- तालाब।


धवल दूधिया चाँदनी,नयन- सजन के ख्वाब।।


2


आज शर्म से जा छुपे,सभी बिलों में व्याल ।


अतिशय विषधर हो गया,मनुज ओढ़ कर खाल।।


3


अर्णव बनने के लिए ,बहती सरि दिन -रात।


अकर्मण्य नर आलसी,कब होते विख्यात।।


4


 कंचन की है मुद्रिका,माणिक जड़ी अमोल।


निरख रूपसी रूप निज,बैठी करे किलोल।।


5


बने कामिनी भामिनी,बने काल का गाल।


कामी, कपटी कापुरुष ,डाले जब छल- जाल।।


6


ज्ञान-विभा -विग्रह का,करो पुण्य नित काज।


तमस मिटे अज्ञान का,शिक्षित बने समाज।।


7


सकल सृष्टि है आपसे,आप सृष्टि के अक्ष।


हरि विपदा हर लीजिए,विनती करें समक्ष।।


8


दिनकर ने दर्शन दिए ,बीत गयी है रात।


कंचनमय धरती हुई,सुखमय हुआ विभात।


9


एक अम्बुजा रागिनी,कर्णप्रिया है खास।


एक सरोवर में खिले,एक विष्णु के पास।


10


करके कर्म महान नर,बन जाता महनीय।


देव तुल्य दर्ज़ा मिले,सदा रहे नमनीय।।


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