सुषमा दीक्षित शुक्ला

आखरी चराग़ बन जलती रही !!


 


ऐ! प्रियतम ,आज फिर आयी


कहीं से तुम्हारी तड़पती पुकार,,


 अश्रु धार से ,,कपोल नम है मेरे,,


 अवरुद्ध सा कण्ठ ,नयनों में नीर,, 


  सुलगती सी विरह वेदना ,,


बन चुकी धधकता दावानल ,


जो सहता वही जानता प्रियतम,


 छुपम छुपाई का खेल बचपने सा,, 


छोड़ दो प्रीतम ,छोड़ दो अब,


यह विरह वेदना है ,,


महारोग के दारुन दुख सी,,


काया और माया के बंधन ,


अब सही नहीं जाते ,,


ज्वार भाटे की नीर सी ,,


स्मृतियां आती हैं जाती हैं ,


मेरी रूह के धरातल पर ,,


 पाषाण बन चुकी ये आत्मा,


 नीरसता ने जमा दिया डेरा ,,


अब दर्द प्रतिबिंब है मेरा,,


 वह अनकही आधी अधूरी बातें,,


 जो उस रोज कहने वाले थे ,,


सुना दो इन हवाओं में घोलकर,,


  तमाम रात पिघलती रही ,,


 जहर पीती उगलती रही,,


 आखिरी चराग बन जलती रही,,


 खुद अपने ही साथ चलती रही,,


 तुम कहां थे ,,कहां गए थे तुम???


 



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