डॉ0 हरि नाथ मिश्र

अष्टावक्र गीता-11


माया कल्पित विश्व यह,माने प्रज्ञावान।


विगत कामना को कहाँ,डर न, मृत्यु ध्रुव जान।।


 


रहे भले नैराश्य में,फिर भी नहीं उदास।


महा आत्मा-अनिछ जग,किससे तुले,न आस।।


 


बिना किसी अस्तित्व के,दृश्यमान जग मान।


त्याज्य और अत्याज्य को,लखे न प्रज्ञावान।।


 


सुख अथवा दुख उभय अपि,दोनों रहते एक।


अनासक्त नर के लिए,यद्यपि लोभ अनेक।।


 


बुद्धिमान को तो लगे,यह जग-लीला खेल।


कभी न,अष्टावक्र कह,बुधजन-मोहित-मेल।।


           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


              9919446372


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