डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तृतीय चरण (श्रीरामचरितबखान)-4


 


तब मुनि सीष नवा प्रभु चलहीं।


लइ सिय संग लखन पथ बनहीं।।


     आगे राम लखन पुनि पाछे।


     तापस-भेष लगहिं सभ आछे।।


ब्रह्म-जीव बिच माया जैसे।


रामहिं-लखन मध्य सिय तैसे।।


     जेहि मग राम-लखन मग चलहीं।


      प्रकृति मनोरम सुख ते पवहीं।।


मंदहि पवन बहहि प्रभु-पथ मा।


छाया करहिं मेघ पल-पल मा।।


     असुर बिराध मिला मग माहीं।


     झपकत पलक बधे प्रभु ताहीं।।


राम-प्रताप पाइ रुचि रूपा।


गया असुर प्रभु-धाम अनूपा।।


    बन-पथ चलत मुनी सरभंगा।


    लखि सिय-लखन राम के संगा।।


बड़-बड़ भागि सरावहिं आपनु।


कहहीं सुफल आजु बन-यापनु।।


     अइहैं अवसि राम यहि राहीं।


     जब तें सुने रहे हम ताहीं।।


धाम बिरंचि जाइ इक बारा।


भयो साँच आजु एतबारा।।


     जोहत रहे बाट दिन-राती।


     लखि प्रभु राम जुड़ाइल छाती।।


पूरन होई अब प्रभु-परना।


दरस पाइ हम खोइब बदना।।


     जप-तप-जोग-जग्य ऋषि कीन्हा।


      प्रबल भगति-बर प्रभु तिन्ह दीन्हा।।


साँवर रूप लखन-सिय सँगहीं।


करहु निवास हृदय मम अबहीं।।


दोहा-लेइ क बर अनुकूल ऋषि,बारे तप-बल आगि।


       जारे निज तन अगिनि महँ,धनि-धनि ऋषि कै भागि।।


      देखि परम सरभंग-गति,मुनिगन भवहिं प्रसन्न।


      पुनि-पुनि भागि सराहहीं, लखि प्रभु तहँ आसन्न।।


                   डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


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