विनय साग़र जायसवाल

हमें शमा-ए -उल्फ़त जलानी पड़ेगी


अंधेरों की गर्दन झुकानी पड़ेगी


 


ख़ताएं जो हम करते आये हैं अब तक


कहीं उसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी


 


 कभी मेरी क़ुर्बत में था चैन तेरा


कहानी वो क्या अब भुलानी पड़ेगी


 


नदी तीर दोनों कभी बैठते थे 


वो तस्वीर क्या फिर बनानी पड़ेगी


 


ख़बर प्यार करने से पहले कहाँ थी


 हमें हाँ में हाँ ही मिलानी पड़ेगी


गिरह-


ज़रूरत यही आज के वक़्त की है


मुहब्बत दिलों में उगानी पड़ेगी


 


वफ़ादार साग़र यूँ लिख्खा है उसको 


 जफ़ा उसकी हर इक छुपानी पड़ेगी


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल बरेली


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