निधि मद्धेशिया

अख़बार


 


लिपटाकर ख़बरों को पैरहन में


सजाते हैं बेवा को दुल्हन सा...


 


पेड़ों का दोहन कर के


बनाए कागज मन के


स्याही से सफेद को 


स्याह लिखा बढ़-चढ़ के।


 


समाचार कोई माई-बाप नहीं


पक्ष दृढ़ इतना कोई पाप नहीं।


 


बचा दहशतगर्दी इनका काम 


इनका न कोई अल्लाह न राम।


 


विभत्सता की सीमा लाँघ....


कटा सिर हाथ में पकड़े


छितरे हुए शव के टुकड़े


रक्त रंजित भूमि, माँ की छाती


से लगा माह भर का बच्चा


दृश्य यही भरे हुए है अखबार ये कच्चा।


 


बनती हैं चटपटी खबरें


हरे, गुलाबी नोटों में


हर पंक्ति की पहुँच केवल वोटों में।


 


ड्योढ़ी के बाहर मत जाओ 


जाएगी लाज तुम्हारी 


क्या याद करेंगी पीढ़ियाँ 


 


चोटिल होता भाव इंसानों का(स्त्री,पुरुष)


कारस्तानी अखबारों की 


झेलती हैं बेटियाँ इंसानों की। (साधारण घर)


 


 


निधि मद्धेशिया 


कानपुर


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