काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार शर्मा

 परिचय 

नाम  आशु शर्मा 


शैक्षणिक योग्यता  पोस्ट ग्रेजुएट (कैमिस्ट्री)  बी एड

सम्प्रति शिक्षाविद (कोचिंग)  गीतकार, लेखक,  अनुवादक, संपादक 

सम्पर्क सूत्र-

+91 88500xxxx

उपलब्धियां  मेरे द्वारा निम्न लिखी चार पुस्तकें एमेज़ोन पर उपलब्ध हैं ।

1.किताब ए ज़िन्दगी 

2.Come on success for all 

3. Tea time khyal  कड़क ज़ायका 

 4. उपन्यास 'कंटीली झाड़'


राबिन शर्मा की '5ए एम क्लब' तथा अवि योरिश की 'तुम्हें नवनिर्माण करना होगा' का सम्पादन , रयूहो ओकावा की 'लक्ष्य के नियम' सहित कई पुस्तकों का अनुवाद व सम्पादन किया है ।


ईमेल  ashus1223@gmail.com


 1. ख़्वाब 


सूरज और चाँद को 

आँखों में भर कर 

जुगनू ढूंढने 

निकल पड़ते थे हम 

फौलादी सपने थे तब 

उनके टूटने से 

से कहाँ डरते थे हम 

और अगर कभी 

ऐसा हुआ 

कोई सपना जो पूरा 

नहीं हुआ 

तो इसका भी गम 

नहीं करते थे हम 

तब की बात है यह

जब बच्चे थे हम

रिश्तों में कच्चे पर 

अहसासों के सच्चे थे हम


 वक़्त बीता 

फिर थोड़े बड़े हुए

थोड़े थोड़े 

ज़मी पर खड़े हुए

अब भी उड़ लेते थे 

सपनों के आसमानों में 

और ले आते थे उन्हें 

पकड़ अपने ठिकानों में 

महल सजा लेते थे हम 

अपने छोटे छोटे मकानों में 

सपनों की सौदागिरी 

ढूँढते थे दुकानों में

फिर डरते भी थे 

कहीं ऐसा न हो कि 

ज़मी से भी उखड़ जाएं

और गिर पड़ें आसमानों से


जवानी में जब कदम पड़े 

हम अब भी थे सपनों पर अड़े 

छोड़ खुला दरीचों को 

ताकते थे दहलीज़ों पर खड़े 

इक चोर दरवाज़ा भी था रखा

लगा रखे थे जिस पर पहरे कड़े

पंख तो थे उड़ने को मगर 

पर सपने थे पिंजरे में पड़े 

पिंजरे की दीवारों के अन्दर

ख़्वाब हकीकत आपस में लड़े 

कभी ख़्वाब तो कभी हकीकत ने 

तमाचे थे इक दूजे पर जड़े 

अब धीरे धीरे हमने भी 

सपनों के गहने थे गढ़े


अब पहुँच गए 

उस मोड़ पर हम 

सपनों में अब

नहीं बचा है दम 

हिम्मत नहीं हारी है हमने 

पर ख्याली दुनिया में 

रहते हैं कम 

कभी हंसते 

तो कभी रोते हैं 

पर नहीं पालते 

कोई भी गम

कभी पलती हकीकत 

ख्वाबों में तो 

कभी ख़्वाब हकीकत 

में पालते हम



रचनाकार    आशु शर्मा 

मुम्बई 




2. ज़ख्म


तन भीगा है 

मन भी भीगा

सूखे अश्क भी गीले हैं 

अब के बारिश के मौसम ने 

पुराने ज़ख्म भी छीले हैं 


भरे नहीं थे 

हरे नहीं थे 

कई परतों में दबे पड़े थे 

पानी की बूँदों में धुल कर 

सामने मेरे खड़े थे 


भूल चुके थे 

गम अपने को 

फिर रहे यूँ बेफिक्र थे 

टिप टिप बूंदों की आहट में 

मेरी बेचैैनी के जिक्र थे 


सड़कें गीली 

छत पर पानी 

बूँदे दिखती पत्तों पर मोती हैं 

सावन की बौछारें हैं पर

तन्हाईयाँ हम पर रोती हैं


रचनाकार आशु शर्मा

 मुम्बई 



3.जननी माँ 


माँ की बाहों में हमने 

स्वर्ग के झूले झूले हैं

तेरे आँचल की खुशबू 

माँ आज तलक नहीं भूले हैं 


हर जन्म मुझे तेरी गोद मिले 

इक यही दुआ बस करते हैं

हर बात तेरी है याद हमें 

और यादें ताज़ा रखते हैं 


माँ की रोटी की खुशबू के 

आज भी हम भूखे हैं

अश्क हैं बहते अब भी मगर 

गीले नहीं हैं सूखे हैं


चाहूँ कहना कह न पाऊँ

माँ की ममता का हिसाब नहीं 

यह ब्यौरा जिस में मिल जाए 

लिखी गई कोई किताब नहीं


रचनाकार आशु शर्मा 

मुम्बई 



4. चलो इक ख़्वाब बुनें


चलो इक ख़्वाब बुनें

और पूरा करने को 

थोड़ा थोड़ा तुम चुनो

थोड़ा थोड़ा हम चुनें


बुनियाद अहसास रखने को 

दिलों के पास रखने को

कुछ रेशम तुम ले आना 

कुछ मेरे पास रखा है 

अहसास को बुनने का 

स्वाद हमने चखा है 


जिन्दादिल बनाने को

और थोड़ा सजाने को 

रंगों को भी चुनना है 

आपस में मिलकर 

कुछ शोख कुछ अहसास रंग

बोल उठेंगें खिलकर 


फिर ख़्वाब इक जिन्दा होगा

न तुम न मैं और 

न ही कोई अधूरापन 

कभी आपस में शर्मिन्दा होगा


रचनाकार आशु शर्मा 

मुम्बई 




 5. देखो बसन्त है आया 


चीर पीताम्बर पहन धरा का 

कण कण है मुस्काया 

धानी चुनरी ओढ़ के सज गई

रोम रोम हर्षाया

देखो बसन्त है आया 


फूलों ने भी महक महक कर

हवा में इत्र फैलाया 

नई कोपलें निकल आई हैं

नवजीवन है पाया

देखो बसन्त है आया


पक्षियों ने भी कलरव करके 

मौसम है महकाया 

भौरों की मदमस्त गुंजार ने 

वन उपवन महकाया 

देखो बसन्त है आया 


शरद ऋतु जाने को आई 

मौसम कुछ गरमाया 

पेड़ पौधों हर प्राणी के जीवन 

में आनन्द है छाया 

देखो बसन्त है आया 


ऋतुओं का राजा प्रकृति का 

यौवन ले कर आया 

दुल्हन जैसी सज गयी धरती 

पर्वतों ने मुकुट सजाया 

देखो बसन्त है आया

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...