सुषमा दीक्षित शुक्ला

,,,रेत ,,,,

रेत सा फिसलता रहता ,
बेदर्द वक्त बंद मुट्ठी से ,
फिर भी मन में है मचलती,
आसमान की  सी उमंगे ।
रेत के टीले  सी उन्मुक्त,
ढहती हुई  जिंदगानी ,
फिर भी मानव की उम्मीदी देखो।
 बस एक मुट्ठी देह में ही ,
 ये आकाश जैसे मन संवरते ।
नैनों की  नन्ही सी कोठरी में
गगनचुंबी ख्वाब पलते ।
 रेत तू तो रेत  ही ठहरी  न ,
कब बन सके  हैं तेरे महल ।
एक तिनका उड़ा देता है तेरा वजूद ।
फिर भी तेरे मीलों लम्बे ऊँचे गुंबद।
 जगाते हैं एक अजीब सी उम्मीद।
 हवा के साथ उड़कर ,
ऊंचाई को छू लेने की तेरी जिजीविषा ।
शायद यही है जीवन व्यथा ,
यही है तेरी मेरी कहानी भी ।
तेरी  यही मौन अभिव्यक्ति
यही  है संवेदना  तेरी ।
और तेरे हौसले की उड़ान भी ।
तेरा वजूद है कितना नाजुक,
 और कितना शक्तिशाली भी ,
जब तू अपने बवंडर से ,
ले उड़ती है पूरी की पूरी बस्तियां।
 परन्तु ये भी  बदनसीबी ही है 
रेत के घर  सजाने वालों की ।
कि जब जब जगी उम्मीद ,
कोई जलजला बहा ले गया ,
रेत का घर हो  महल ।
 जिंदगी सी मचल कर 
रह जाती है किसी की मासूमियत
 फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ती दामन।
 फिर से तलाशती  है जीवन ।
 शायद  यही है मंथन ,
यही है यही दर्शन जीवन दर्शन ।

सुषमा दीक्षित शुक्ला

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