तेरहवाँ-5
*तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
जब रह रात पाँच-छः सेषा।
कालहिं बरस एक अवसेषा।।
बन मा लइ बछरू तब गयऊ।
किसुन भ्रात बलदाऊ संघऊ।।
सिखर गोबरधन पै सभ गाई।
हरी घास चरि रहीं अघाई।।
लखीं चरत निज बछरुन नीचे।
उछरत-कूदत भरत कुलीचे।।
बछरुन-नेह बिबस भइ धाईं।
रोके रुक न कुमारग आईं।।
चाटि-चाटि निज बछरुन-देहा।
लगीं पियावन दूध सनेहा।।
नहिं जब रोकि सके सभ गाईं।
गोप कुपित भइ मनहिं लगाईं।।
पर जब निज-निज बालक देखा।
बढ़ा हृदय अनुराग बिसेखा।।
तजि के कोप लगाए उरहीं।
निज-निज लइकन तुरतै सबहीं।।
पुनि सभ गए छाँड़ि निज धामा।
भरि-भरि नैन अश्रु अभिरामा।।
भयो भ्रमित भ्राता बलदाऊ।
अस कस भयो कि जान न पाऊ।।
कारन कवन कि सभ भे वैसै।
मम अरु कृष्न प्रेम रह जैसै।।
जनु ई अहहि देव कै माया।
अथवा असुर-मनुज-भरमाया।।
अस बिचार बलदाऊ कीन्हा।
पर पुनि दिब्य दृष्टि प्रभु चीन्हा।।
माया ई सभ केहु कै नाहीं।
सभ महँ केवल कृष्न लखाहीं।।
दोहा-बता मोंहि अब तुम्ह किसुन, अस काहें तुम्ह कीन्ह।
तब बलरामहिं किसुन सभ,ब्रह्म-भेद कहि दीन्ह।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र।
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें