तेरहवाँ-4
*तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
कीन्ह प्रबेस कृष्न ब्रज-धामा।
बछरू-गोप सबहिं निज नामा।।
सभ बछरू गे निज-निज साला।
गए गोप निज गृहहिं निहाला।।
बँसुरी-तान सुनत सभ माई।
बिधिवत किसुनहिं गरे लगाईं।।
लगीं करावन स्तन-पाना।
अमरित दूधहिं जे चुचुवाना।।
प्रति-दिन क्रिया चलै यहिं भाँती।
किसुन कै लीला दिन अरु राती।।
संध्या-काल लवटि घर आई।
सभ मातुन्ह सुख देहिं कन्हाई।।
उपटन मीजि औरु नहलाई।
चंदन-लेप लगाइ-लगाई।।
भूषन-बसन स्वच्छ पहिराई।
होंहिं अनंदित ग्वालहिं माई।।
भौंहनि बीच लगाइ डिठौना।
लाड़-प्यार करि देइ खिलौना।।
भोजन देइ सुतावहिं माता।
लीला अद्भुत तोर बिधाता।।
ठीक अइसहीं ब्रज कै गइया।
दूध पियावहिं बच्छ-कन्हैया।।
साँझ-सकारे पहिरे घुघुरू।
दौरत आवैं किसुनहिं बछरू।।
चाटि जीभ तें नेह जतावैं।
दूध पियाइ परम सुख पावैं।।
जदपि तिनहिं रह परम सनेहा।
निज-निज सुतहिं बिनू कछु भेहा।।
पर नहिं किसुन जतावैं प्रेमा।
चाहिअ जस सुत-मातु सनेमा।।
यावत बरस एक अस रहहीं।
ब्रज महँ प्रेम-लता रह बढ़हीं।।
बालक-बछरू,माता-गाई।
बच्छ-सुतहिं बनि रहे कन्हाई।।
दोहा-एक बरस तक किसुन तहँ, रहे बच्छ बनि गोप।
लीला सभें दिखावहीं, नेह-भाव चहुँ छोप।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र।
9919446372
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