बारहवाँ-2
*बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2
बहु-बहु नदी-कछारन जाहीं।
उछरहिं मेंढक इव जल माहीं।।
जल मा लखि परिछाईं अपुनी।
कछुक हँसहिं करि निज प्रतिध्वनी।।
संतहिं-ग्यानिहिं ब्रह्मानंदा।
स्वयम कृष्न तेहिं देंय अनंदा।।
सेवहिं भगतहिं दास की नाईं।
इहाँ-उहाँ तिहुँ लोकहिं जाईं।।
रत जे बिषय-मोह अरु माया।
बाल-रूप प्रभु तिनहिं लखाया।।
अहहिं पुन्य आतम सभ ग्वाला।
खेलहिं जे संगहिं नंदलाला।।
जनम-जनम ऋषि-मुनि तप करहीं।
पर नहिं चरन-धूरि प्रभु पवहीं।।
धारि क वहि प्रभु बालक रूपा।
ग्वाल-बाल सँग खेलहिं भूपा।।
रह इक दयित अघासुर नामा।
पापी-दुष्ट कपट कै धामा।।
रह ऊ भ्रात बकासुर-पुतना।
तहँ रह अवा कंस लइ सुचना।।
आवा तहाँ जलन उर धारे।
अवसर पाइ सबहिं जन मारे।।
करि बिचार अस निज मन माहीं।
अजगर रूप धारि मग ढाहीं।।
जोजन एक परबताकारा।
धारि रूप अस मगहिं पसारा।।
निज मुहँ फारि रहा मग लेटल।
निगलै वहिं जे रहल लपेटल।।
एक होंठ तिसु रहा अवनि पै।
दूजा फैलल रहा गगन पै।।
जबड़ा गिरि-कंदर की नाईं।
दाढ़ी परबत-सिखर लखाईं।
जीभइ लाल राज-पथ दिखही।
साँस तासु आँधी जनु बहही।।
लोचन दावानलइ समाना।
दह-दह दहकैं जनु बरि जाना।।
सोरठा-अजगर देखि अनूप,कौतुक होवै सबहिं मन।
अघासुरै कै रूप,निरखहिं सभ बालक चकित।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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