विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--
221-2122-221-2122
क़िस्मत जहां में होती ऐसी किसी किसी की 
ख़्वाहिश हरेक पूरी हो जाये आदमी की 

जिससे शुरू हुई थी बस बात दिल्लगी की
वो बन गयी है मूरत अब मेरी बंदगी की 

उसको चटक भटक की होगी भी क्या तमन्ना
महबूब कर रहा हो तारीफ़ सादगी की 

 वो चाँद आ रहा है बरसाता चाँदनी को 
आफ़त में जान आई अब देखो तीरगी की

हर शेर मेरा उसकी लिख्खा है डायरी में
दीवानी हो गयी है वो मेरी शायरी की 

साक़ी तेरी नज़र से पी पी के रोज़ साग़र
आदत सी हो गयी है अब हमको मयकशी की 

बस ख़्वाब ही दिखाता जाता हो जो बराबर
हमको नहीं ज़रूरत है ऐसी रहबरी की 

करते हैं लोग मेरी तारीफ़ पीठ पीछे 
सारी कमाई  *साग़र* बस यह है ज़िन्दगी की 

🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली
26/6/2021

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