निशा अतुल्य

स्वेच्छिक 
अतुकांत

*कहाँ जा रहे युवा*

राह राह भटक गया 
आज का क्यों युवा
बात करें सभ्यता की
तो शर्माता है ।

फटे कपड़े पहन कर
बाल अपने रंग कर 
चश्मा चढ़ा के नैन
कैसे इतराता है ।

सुनता न बात है 
न मात पिता का ध्यान है 
भटके है इधर उधर 
लड़कियाँ घुमाता है ।

पढ़ना तो भूल गया
बाहर कॉलेज के खड़ा 
तकता है लड़की को 
बाइक तेज चलाता है ।

कम कहाँ लड़की है 
वो भी जरा भड़की है 
शर्म लिहाज तज कर
नैन मटकाती है ।

बहाने बनाती देखो
कैसे रँग दिखाती देखो
मांग नित नई करे
रोब जमाती है ।

युवा को समझाए कौन
समाज बचाये कौन
अभिव्यक्ति की आजादी
राह भटकाती है ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

गीत- दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं....... दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

गीत- दिन से क्या घबराना दिन तो आते जाते हैं....... चुप्पी  के   दिन खुशियों के दिन भीगे सपनों की बूंदों के दिन, आते जाते हैं, दि...