निशा अतुल्य

कैसा प्रेम

कैसा है कोलाहल मन में 
कैसी मन की धारणा 
राह तकुं और थके नयन न 
भव से मुझको तारना ।

धूमिल रूप हुआ ये सारा
गहरी मन की वेदना 
रटती रहती नाम तुम्हारा
मुझको तुम ही थामना ।

कैसा है कोलाहल मन में 
कैसी मन की धारणा ।।

चाहे राह विकट हो कितनी
धैर्य बना रहे सदा 
उत्कंठा पाने की ख़ुद को
पूर्ण हो ये साधना।

कैसा है कोलाहल मन में 
कैसी मन की धारणा ।।

अब तुम ही हो प्रियतम मेरे
तुम ही हो आराधना 
रहे समर्पित जीवन तुम को 
बस ये ही है चाहना ।

कैसा है कोलाहल मन में 
कैसी मन की धारणा ।।

कभी न मैं इस जग से हारूँ 
मन करे ये प्रार्थना
अंतर्मन में चाह बसी है
रहे कल्याण भावना ।

कैसा है कोलाहल मन में 
कैसी मन की धारणा ।।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

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