नूतन लाल साहू

सब कुछ बदल रहा है

धन, पद और वैभव
सब कुछ जल्दी से
पा लेने को इंसान
कितने अधीर रहता है
समय आता है समय पर
मनुष्य के मन में संतोष कहां है
आत्मा जो कभी
भीतर बसती थी,हमारे
लुप्त हो चली है
अपनी निजता से,स्वार्थ से
पास बैठे, दीन दुखी का दर्द
कचोटता नहीं है
उसे अनदेखा कर
अपना रास्ता नाप लेता है
ये कैसी विडंबना है
समय आता है समय पर
मनुष्य के मन में संतोष कहां है
दूर से आती एक आवाज
दे रही है दस्तक,मेरे कानों में
कह रही है वह मुझसे
क्या ये वही इंसान हैं
जो सुर दुर्लभ मानव तन पाया है
जो प्यार करता है,सिर्फ और सिर्फ
अपनी निजता से, स्वार्थ से
दफन कर दिया है,इंसानियत
स्वार्थ की कुदाल से
समय आता है समय पर
मनुष्य के मन में संतोष कहां है
संवेदना,सहृदयता
सब कुछ खो रहें है
जन्मदाता अपने माता पिता को ही
अब भूल रहें है
प्रश्न उठ रहा है
मानवता का लहू
कब बहेगा, हममें
समय आता है समय पर
मनुष्य के मन में संतोष कहां है

नूतन लाल साहू

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