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विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल-

1.

आपकी जबसे इनायत हो गयी है

ज़िन्दगानी ख़ूबसूरत हो गयी है

2.

तेरी आँखों में जो शोखी देखता हूँ

मुझको उससे ही मुहब्बत हो गयी है

3.

क्या कहूँ मैं इस दिल-ए बेज़ार को अब 

हर नफ़स तेरी ज़रूरत हो गयी है

4.

तेरी हर तस्वीर मुझसे कहती है यह

मेरी दुनिया तुझसे जन्नत हो गयी है 

5.

रोज़ मिल जाते हैं मिलने के बहाने

किस कदर कुदरत की  रहमत हो गयी है 

6.

चाहता हूँ पास में बैठे रहो तुम

क्या करूँ इस दर्जा उल्फ़त हो गयी है

7.

आजकल कहने लगा है आइना भी 

तेरी मेरी एक सूरत हो गयी है

8.

हो रहे उस और से *साग़र* इशारे

इसलिए मुझ में भी हिम्मत हो गयी है


🖋️विनय साग़र जायसवाल 

3/3/2021

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल


हमारे फ़ैसले होते कड़े हैं

अगरचे फ़ायदे इसमें बड़े हैं


जहाँ तुमने कहा था फिर मिलेंगे

उसी रस्ते में हम अब तक खड़े हैं


सुनाकर भी इन्हें हासिल नहीं कुछ

हमारे रहनुमा चिकने घड़े हैं


छुड़ाया लाख पर पीछा न छूटा

गले वो इस तरह आकर पड़े हैं


किसी के तंज़ छू पाये न हमको 

कि अपने क़द में हम इतने बड़े हैं


अमीरों से उन्हें डरते ही देखा

ग़रीबी से जो रात-ओ-दिन लड़े हैं


जहाँ कह दो वहाँ चल देंगे *साग़र*

यहाँ पर कौन से पुरखे गड़े हैं


🖋विनय साग़र जायसवाल

11/3/19

सुनीता असीम

 मेरी राहों में तूने ही किए केवल उजाले हैं।

तेरे भीतर  समाए सब मेरे मन्दिर शिवाले हैं।

***

महर कर दो ज़रा मुझपर दरस दे दो मुझे कान्हा।

बड़ी मुश्किल से विरहा के ये पल मैंने निकाले हैं।

***

न मेरा कुछ भी है मुझमें सभी तेरा है सरमाया।

ये माया मोह के बंधन सभी तेरे हवाले हैं।

***

मिलेगा आसरा तेरा यही मन्नत मनाती हूं।

तुझे पाने की खातिर तो पढ़े कितने रिसाले हैं।

***

इबादत में नहीं कच्ची मुझे कमजोर मत समझो।

बड़े तूफान अंदर से सदा मैंने संभाले हैं।

***

सुनीता असीम

१७/३/२०२१

एस के कपूर श्री हंस

 ।ग़ज़ल।।    संख्या 24।।*

*।।काफ़िया।। आर ।।*

*।।रदीफ़।। करते हैं।।*


*मतला।*

दिल में नफरत जुबां पर प्यार करते हैं।

बहुत से लोग बस यही व्यापार करते हैं।।


*हुस्ने मतला।*

सामने तुम्हारे तो वह इकरार करते हैं।

पीठ पीछे चुपचाप से  इंकार करते हैं।।


फितरत समझ पाना मुश्किल इनके खंजर की।

सामने साधकर निशाना पीछे वार करते हैं।।


ले कर चलते हैं नदी    पार करवाने को।

बीच मंझधार उल्टी     पतवार करते हैं।।


आस्तीन के सांप से तेरे ही बिल में छिपे हैं।

पहले मार कर फिर से होशियार करते हैं।।


*"हंस "* बन कर मसीहा पा लेते हैं यकीन तुम्हारा।

फिर तुम्हारी ही गोट से तुम्हाराआरपार करते हैं।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।।*

मोब।।।।।       9897071046

                     8218685464

*।।ग़ज़ल।।   ।। संख्या  25 ।।*

*।। काफ़िया।। आर ।।*

*।।रदीफ़।।  में   ।।*


प्रेम दुकान चलाता हूँ नफरत के बाज़ार में।

सकूँ बहुत मिलता है इस घाटे के भी व्यापार में।।


सलाम मिलता है हर तरफ से  यारों का।

गिनती शुमार हो गई है इक़ दिलदार में।।


महोब्बत की जुबां से जीत मिल रही हर तरफ। 

यकीन ही हट गया है अब किसी भी हथियार में।।


सोने चांदी का गुमां सीने से   ही हट गया है।

जब से खजाना भर गया है मेरा दौलते प्यार में।।


बचा नहीं वक़्त नफ़रत के लिए जिन्दगानी में।

निकल जाता है वक़्त अब प्रेम के इकरार में।।


*"हंस"* कहते कोई दौलत जाती नहीं साथ में ऊपर।

पर महोब्बत ले जाने का हक हमारेअख्तियार में।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।*

मोब।।।           9897071046

                      8218685464

सुनीता असीम

 मन जब भी घबराता है।

तेरा साथ    सुहाता  है।

****

तू है मेरे तन      मन में।

जन्म जनम का नाता है।

****

तुझमें मैं  मुझमें  है  तू।

फिर क्यूँ हाथ छुड़ाता है।

****

दूर कभी पास हुए तुम।

रूप तेरा भरमाता है।

****

हम दोंनो जब मिल बैठें।

बातें  खूब     बनाता है।

****

तुझ बिन श्याम अधूरी मैं।

छोड़ मुझे क्यूँ  जाता है।

****

मिलता तू उसको केवल।

रोकर सिर्फ बुलाता है।

****

सुनीता असीम

१२/२/२०२१

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल-


आँखों आँखों में  दास्तान हुई

यह ख़मोशी भी इक ज़ुबान हुई


इक नज़र ही तो उसको देखा था

इस कदर क्यों वो बदगुमान हुई 


कैसा जादू था उसकी बातों में

एक पल में ही मेरी जान हुई


इस करिश्मे पे दिल भी हैरां है 

 वो जो इस दर्जा मेहरबान हुई


मिट ही जाते हैं सब गिले शिकवे 

गुफ्तगू  जब भी दर्मियान हुई 


जब से वो शामिल-ए-हयात हुए

ज़िंदगी रोज़ इम्तिहान हुई


इक लतीफ़े से कम नहीं थी वो

बात जो आज साहिबान हुई


जब से रूठे हुए हैं वो *साग़र*

हर तरफ़ जैसे सूनसान हुई 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

8/2/2021

सुनीता असीम

 हे कन्हैया मैं तुम्हें ज़िन्हार करती हूँ।

मान जाओ मैं तुम्हीं से प्यार करती हूँ।

*****

इक नज़र मुझपे कभी तो डाल लेना तुम।

दिल मेरा तुझसे लगा इकरार करती हूँ।

*****

तुम भले मिलना नहीं मुझसे कभी देखो।

नाम अपना  नाम  तेरे  यार  करती  हूँ।

*****

दिल धड़कता है मेरा तब जोर से कान्हा।

आइने  में  जब  तेरा   दीदार  करती  हूँ।

*****

अब पराया और अपना भा नहीं सकता।

मान अपना सब तुझे श्रृँगार करती हूँ।

*****

मान जाओ  हे सुदामा के सखा  मोहन।

फिर न कहना मैँ नहीं मनुहार करती हूँ।

*****

अब सुनीता कह रही तुमसे यही माधव।

कंत अपना बस तुम्हें स्वीकार करती हूँ।

*****

ज़िन्हार=सावधान

सुनीता असीम

६/२/२०२१

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल

1

हल मसाइल का अगरचे आज तक निकला नहीं 

क्यों निज़ाम-ए-सलतनत को आपने बदला नहीं

2.

उनके होंटो पर था कुछ आँखों में था कुछ और ही 

इसलिए उस  गुफ्तगू से दिल ज़रा बहला नहीं 

3.

उनके उस पुरनूर चेहरे में झलकता दर्द था

यूँ भी उनके दर्मियाँ यह दिल मेरा मचला नहीं 

4.

चाँद के नज़दीक जाकर यूँ पलट आया  हूँ मैं

उनके जैसा ख़ूबसूरत चाँद भी निकला नहीं 

5.

जब तवज्जो ही नहीं है इस तरफ़ सरकार की 

दिल की इस बारादरी का हाल भी सँभला नहीं

6.

बेवफ़ाई के तेरे दामन पे गहरे दाग़ हैं

धोते धोते थक गया तू पर हुआ उजला नहीं

7.

इस सियासत में हैं *साग़र* हर तरफ़ रंगीनियाँ

कौन है वो शख़्स जो आकर यहाँ फिसला नहीं


🖋️विनय साग़र जायसवाल

6/2/2021

विनय साग़र जायसवाल

 🌹ग़ज़ल ---🌹

मुफायलुन-फयलातुन-मुफायलुन फेलुन


ये सर्द रात है जुगनू दुबक रहे होंगे

हज़ारों दिल के दरीचे खटक रहे होंगे


मुझे यक़ीन है महफ़िल में उनके आते ही 

हरिक निगाह में वो ही चमक रहे होंगे


मैं सोचता हूँ हटा दूँ हया के पर्दों को 

वो मारे शर्म के शायद झिझक रहे होंगे


निगाहे-तीर से जो ज़ख़्म दे दिये तुमने

वो आज सोच तो कैसे फफक रहे होंगे


कभी महल जो बनाये थे हमने ख़्वाबों के

तिरे मिज़ाज से सारे दरक रहे होंगे


बुलंदी देख के जलते हैं जो भी लोग यहाँ 

हमारे क़द को वो बरसों से तक रहे होंगे


ग़ज़ल को सुन के बजाईं न तालियाँ जिसने

ये शेर ज़ख़्म पे उसके नमक रहे होंगे


तवील रात का जंगल है और तन्हाई

तिरे फ़िराक में *साग़र* सिसक रहे होंगे


🖋विनय साग़र जायसवाल

15/12/18

डॉ0 हरिनाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-42

रावन सरथ बिनू रथ रामा।

बिकल बिभीषन लखि छबि-धामा।।

     बिजय होय कस बिनु रथ नाथा।

      कहेउ बिभीषन अवनत माथा।

तन न कवच,न त्राण पद माहीं।

रथहिं बिहीन नाथ तुम्ह आहीं।।

     कहेउ राम तुम्ह सुनहु बिभीषन।

      देइ बिजय रथ दूसर महँ रन।।

सौर्य-धैर्य पहिया तेहि रथ कै।

सील-सत्य झंडा दृढ़ वहि कै।।

      दम-उपकार बिबेकइ जानो।

      होवहिं बाजि ताहि रथ मानो।।

छिमा-दया-समता तिसु डोरी।

रथ सँग नधे रहहिं सभ जोरी।।

      प्रभु कै भजन सारथी भारी।

       ढाल बिरागहिं, तोष कटारी।।

फरुसा दान,बुद्धि बल-सक्ती।

कठिन धनुष, बिग्यानहिं भक्ती।।

      होहि निषंग मन स्थिर-निर्मल।

      नियम अहिंसा,समन बान-बल।।

अबिध कवच गुरु-अर्चन होवै।

अस रथ होय त जुधि नहिं खोवै।।

दोहा-सुनहु बिभीषन धरम-रथ,रहहि अगर आधार।

         महाबीर ऊ जगत नर,सकै जीति संसार ।।

                     डॉ0हरि नाथ मिश्र

                       9919446372

*ग़ज़ल*

           *ग़ज़ल*

काश!लड़ते कभी मुफ़लिसों के लिए।

 होते न बदनाम,हादसों के लिए।।


खुश होता धरा का वो मानव बहुत।

जो बनाए भवन दुश्मनों के लिए।।


दिवस होगा वो बहुत मुबारक़ भरा।

आशियाँ जब मिले बेघरों के लिए।।


बेहतर तो है यह कि लड़ें रात-दिन।

किसी मज़लूम की ख्वाहिशों के लिए।।


चाँद-सूरज-सितारे जलें हर घड़ी।

दे सकें निज छटा कहकशों के लिए।।


ईद-होली-दिवाली पर मिलकर हम।

बाँटें खुशियाँ सब गमज़दों के लिए।।


चंद ही सिरफिरों की ही हैवानी।

देती मौक़ा सब साज़िशों के लिए।।

              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

               9919446372

: *मधुरालय*

              *सुरभित आसव मधुरालय का*8

मधुरालय के आसव जैसा,

जग में कोई पेय नहीं।

लिए मधुरता ,घुलनशील यह-

इंद्र-लोक  मधुराई  है।।

        मलयानिल सम शीतलता तो,

        है सुगंध  चंदन जैसी।

        गंगा सम यह पावन सरिता-

        देता प्रिय  तरलाई  है।।

बहुत आस-विश्वास साथ ले,

पीता  है  पीनेवाला।

आँख शीघ्र खुल  जाती  उसकी-

जो रहती  अलसाई  है।।

       फिर होकर वह प्रमुदित मनसा,

       झट-पट बोझ  उठाता  है।

       करता कर्म वही वह  निशि-दिन-

       जिसकी क़समें खाई  है।।

यह आसव मधुरालय वाला,

परम तृप्ति  उसको  देता।

तृप्त हृदय-संतुष्ट मना  ने-

जीवन-रीति निभाई  है।।

        दिव्य चक्षु का खोल द्वार यह,

        अनुपम सत्ता  दिखलाता।

         दर्शन  पाकर  तृप्त हृदय  ने-

          प्रिय की  अलख  जगाई  है।।

प्रेम तत्त्व है,प्रेम सार  है,

दर्शन जीवन  का  अपने।

आसव अपना तत्त्व पिलाकर-

प्रेम-राह दिखलाई  है।।

       आसव-हाला, भाई-बहना,

        मधुरालय है  माँ  इनकी।

        सुंदर तन-मन-देन उभय हैं-

         दुनिया चखे अघाई  है।।

चखा नहीं है जिसने हाला,

आसव को भी  चखा नहीं।

वह मतिमंद, हृदय का  पत्थर-

उसकी डुबी  कमाई  है।।

       हृदय की ज्वाला शांत करे,

        प्रेम-दीप को जलने  दे।

        आसव-तत्त्व वही  अलबेला-

         व्यथित हृदय  का  भाई है।।

जग दुखियारा,रोवनहारा,

तीन-पाँच बस  करता है।

पर जब गले उतारे  हाला-

जाती जो भरमाई  है।।

      खुशी मनाओ दुनियावालों,

      तेरी  भाग्य में  आसव है।

      आसव-हाला  दर्द-निवारक-

       जिसको दुनिया पाई है।।

भाग्यवान तुम हो हे मानव,

बड़े चाव से स्वाद लिया।

तुमने इसकी महिमा जानी-

इसकी शान बढ़ाई  है।।

     मधुरालय को गर्व है तुझपर,

     जो तुम इससे प्रेम किए।

     झूम-झूम मधुरालय कहता-

     मानव जग-गुरुताई  है।।

                    © डॉ0हरि नाथ मिश्र

                       9919446372

 *सजल*

कैसे होगा बसर यहाँ,

रहे न किसी का डर यहाँ।।


करते सब मनमानी हैं,

कैसे होगा गुजर यहाँ??


नफ़रत की दीवारें हैं,

नहीं प्रेम का घर यहाँ।।


भाई-चारा गया कहाँ,

खोजें उसकी डगर यहाँ।।


सोच सियासी गंदी है,

जाएँ नेता सुधर यहाँ।।


काँटे बड़े विषैले हैं,

सब पर रक्खें नज़र यहाँ।।


शक्ति एकता में रहती,

सत्य सोच यह अमर यहाँ।।

       ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

          9919446372

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल---


तेरे दिल का अब हमको हर काशाना मंज़ूर हुआ

तेरी ज़ुल्फ़ों के साये में मर जाना मंज़ूर हुआ


उठने लगीं हैं काली घटायें छलके  हैं जाम-ओ-साग़र 

ऐसे आलम में तुझको भी बलखाना मंज़ूर हुआ


महकी महकी गुलमेंहदी है चाँद सितारे भी रौशन 

ऐसे मौसम में उनको भी तरसाना मंज़ूर हुआ


लहराते हैं ज़ुल्फें हमदम हर पल अपने चेहरे पर

उनका फूलों सा हमको यह नज़राना मंज़ूर हुआ


चाहे जितनी घोल दे नफ़रत ऐ साक़ी पैमानों में 

मेरी चाहत को तेरा हर पैमाना मंज़ूर हुआ


ज़हर-ए-ग़म का जाम पिया है हमने उनके हाथो से

अपनी मौत का यार हमें यह परवाना मंज़ूर हुआ


मेरे नाम के साथ महकता हो उनका भी नाम अगर

मेरे खूँ से भी लिख दो तो अफ़साना मंज़ूर हुआ


उनके चेहरे पर रौनक़ है देख लो मेरी मय्यत में 

उनकी मर्ज़ी को शायद यह नज़राना मंज़ूर हुआ


लगवाते हैं बुत मेरा वो बाद मेरे मर जाने के

दुनिया वालों को अब देखो दीवाना मंज़ूर हुआ


*साग़र* हम भी आ जाते हैं आखिर दिल की बातों में

आज हमें पत्थर से शीशा टकराना मंज़ूर हुआ


🖋विनय साग़र जायसवाल

बहर-फेलुन × 7 +फा

काशाना-छोटा घर

कह रहे दिल की जुबानी एक स्वप्न रह गया - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

   ग़ज़ल

कह रहे दिल की जुबानी एक स्वप्न रह गया।

देख  दरिया  का  किनारा  डूबने से रह गया।।


था हमें विश्वास जिस पर हार पहले वह गयी।

बस हमारे पास थी वह और स्वप्न धर गयी।।


मोतियों को अर्णव  में  ढूंढने  निकले थे जब।

तेरे छलावे से तमन्नाओं का स्वप्न रह गया।।


नजदीक रहकर भी बनी हैं दूरियां तुझसे सनम।

तूं  समर्पित  है  मुझी में  ये स्वप्न सारा रह गया।।


बाकी हैं चंद लम्हें रूक तो जाओ तुम अभी।

ग़मों के फ़रात पार करने का स्वप्न रह गया।।


जिस्म लेकर साथ तूंने रूख किया बंधनों में।

बिसरा दिया दिल नूरानी और स्वप्न रह गया।।


तूंने मुखौटों में छुपाये भोली शक्लो सूरत यहां।

निशा ने खोल दी राज़ सारी और स्वप्न रह गया।

      दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल




विनय सागर जयसवाल

 ग़ज़ल--


अब भी रंग-ए-हयात बाक़ी है

हुस्न की इल्तिफ़ात बाक़ी है 


आ गये वो ग़रीबख़ाने तक 

उनमें पहले सी बात बाक़ी है


चंद लम्हे अभी ठहर जाओ

और थोड़ी सी रात बाक़ी है


तोड़ सकता नहीं वो दिल मेरा

उसमें इतनी सिफ़ात बाक़ी है


हाँ यक़ी है मिलेंगे हम दोनों 

पार करना फ़रात बाक़ी है 


डर नहीं है हमें अंधेरों का

रौनक़-ए-कायनात बाक़ी 


सारे मोहरे सजा लिए हमने 

उनपे होने को मात बाक़ी है


यह ख़ुशी का पयाम है *साग़र*

बस गमों की वफ़ात  बाक़ी है 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

हयात-जीवन ,ज़िंदगी

इल्तिफ़ात-कृपा ,दया ,अनुग्रह

सिफ़ात-विशेषता ,गुण ,

फ़रात-नदी का नाम 

कायनात-दुनिया 

पयाम-संदेश

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *दोहे*

समय-समय का फेर है,राजा बनते रंक।

कभी पिलाए अमिय-रस,मारे यह फिर डंक।।


सीमा-रेखा पार जा,अपने सैनिक वीर।

धूल चटा कर शत्रु को,सदा विजय दें धीर।।


केवल जन-जागृति सदा,रचे नवल इतिहास।

राष्ट्र-सुरक्षा के लिए,जगे आत्म-विश्वास।।


जब आती है शीत-ऋतु,घर-घर जले अलाव।

इसे ताप कर सब करें,अपना ठंड बचाव।।


पड़ती है जब बर्फ़ तो,जा पहाड़ पर लोग।

हर्षित हो क्रीड़ा करें,बर्फ़ हरे सब रोग ।।

             

धरती का जो देव है,कहते उसे किसान।

अन्न उगा कर दे वही, करके कर्म महान।।


राजनीति की सोच शुचि,रहे देश का प्राण।

जन-जन का उत्थान हो,यही करे कल्याण।।

                 ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र

                    9919 44 63 72

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल 


ये चंद रोज़ की यारी ग़ज़ब की यारी लगे

तमाम ज़ीस्त तेरे  साथ ही  गुज़ारी लगे 


हरेक शय में ही आती नज़र सनम तुम हो 

तुम्हारे प्यार की अब तक चढ़ी ख़ुमारी लगे


न देखो ऐसी नज़र से कि जां निकल जाये

हमारे दिल को ये चुभती हुई कटारी लगे 


तुम्हारे अदना इशारे पे नाच उठती है

हमारी ज़ीस्त भी हमको तो अब तुम्हारी लगे 


शदीद ग़म है जुदाई का इस क़दर हमदम

मुझे  हयात की तारीकियों पे भारी लगे 


यक़ीन कैसे करूँ दोस्ती पे मैं उनकी 

ये आजकल की जो यारी है दुनियादारी लगे 


ज़ुबां ख़मोश न रख्खें तो क्या करें *साग़र* 

हरेक बात बुरी उनको जब हमारी लगे 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल--


समझ रहा हूँ इश्क़ अब हुआ ये कामयाब है 

मेरी नज़र के सामने जो मेरा माहताब है

हुस्ने मतला----

बशर बशर ये कह रहा वो  हुस्ने -लाजवाब है 

जो मेरा इंतिख़ाब है जो मेरा इंतिख़ाब है


ज़मीन आसमाँ लगे सभी हैं आज झूमने 

तेरी निगाहे मस्त ने पिलाई  क्या  शराब है


तुझे तो मन की आँख से मैं देखता हूँ हर घड़ी 

मेरी नज़र के सामने फ़िज़ूल यह हिजाब है


छुपा सकेगी किस तरह  तू  मुझसे अपने  प्यार को

तेरी नज़र तो जानेमन खुली हुई किताब है 


 बढाऊँ कैसे बात को मैं उनसे अपने प्यार की 

हज़ार ख़त के बाद भी मिला न इक  जवाब है 


तुम्हें क़सम है प्यार की चले भी आइये सनम

बिना तुम्हारे ज़िन्दगी तो लग रही  अज़ाब है 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

2/1/2021

इंतिख़ाब -पसंद ,चयन 

हिजाब--परदा ,लाज ,शर्म

सुनीता असीम

 बनी ज़िन्दगी आज जंजाल है।

किए जा रही सिर्फ बेहाल है

*****

समय भी बदलता चला जा रहा।

कि इसकी बदलती रही चाल है।

*****

सभी का हुआ हाल ऐसा बुरा।

ये जानें कई ले गया साल है।

*****

नहीं आर्थिक हाल अच्छा रहा।

खजाना हुआ अपना बदहाल है।

*****

ये मकड़ी सरीखा करोना हुआ।

जिधर देखिए इसका ही जाल है।

*****

सुनीता असीम

सुनीता असीम

 नशे में चूर होते जा रहे हैं।

यही दस्तूर होते जा रहे हैं।

*****

कृपा तेरी हुई जिनपर कन्हैया।

वही   पुरनूर   होते  जा रहे हैं।

*****

हमें तो भा रहा है संग तेरा।

ग़मो से दूर होते जा रहे हैं।

*****

ये दुनिया तंज कहती है जो हम पर।

बशर  सब  क्रूर       होते जा रहे हैं।

*****

दिवाना वो हमारा हम हैं उसके।

सितम  बेनूर होते    जा रहे हैं।

*****

डराते थे सुनीता को जो डर भी।

चले   काफूर   होते   जा रहे हैं।

*****

सुनीता असीम

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल


ग़ज़ल में मेरी उसका ही नूर है

सनम मेरा इससे ही मसरूर है


वो गाती तरन्नुम में मेरी ग़ज़ल

इसी से नशा मुझको भरपूर है


सुने बात मेरी वो कैसे भला

अदाओं के नश्शे में जब चूर है


मेरे फोन में उसकी डीपी लगी

 इसी की ख़ुशी में वो मग़रूर है 


किसी और जानिब भी क्या देखना 

नज़र में मेरी इक वही हूर है


ज़माने के तंज़ों की परवाह क्या

हमेशा से इसका ये दस्तूर है


ये ग़म जान ले ले न मेरी कहीं

मेरी हीर मुझसे बहुत दूर है


ख़ुशी से लगाती है वो माँग में

मेरे नाम का अब भी सिंदूर है


दुआएं गुरूवर की *साग़र*  हैं यह

मेरी हर ग़ज़ल आज  मशहूर है


🖋️विनय साग़र जायसवाल

मसरूर-प्रसन्न ,ख़ुश

जानिब-दिशा 

मग़रूर ,अभिमान ,घमंड

22/12/2020

बहर-फऊलुन फऊलुन फऊलुन फ्अल

डॉ० रामबली मिश्र

*दरिद्रों की बस्ती...(ग़ज़ल)* दरिद्रों की बस्ती बहुत दूर रखना। दूरी बनाकर बहुत दूर रहना।। मन में बहुत पाप रहता है इनके। दूरी बनाकर सँभलकर विचरना।। ये खा कर भी पत्तल में करते हैं छेदा। इन्हें कुछ खिलाने की कोशिश न करना।। धोखे की दुनिया के ये पालतू हैं। विश्वास करने का साहस न करना।। एतबार करना नहीं बुद्धिमानी। एतबार करने की इच्छा न रखना।। टहलते इधर से उधर पेट खातिर । कुत्ते से कम इनका अंकन न करना।। ईर्ष्या की ज्वाला इन्हें है सुहाती। जलता हुआ पिण्ड इनको समझना।। नफरत भरी जिंदगी से ये खुश हैं। ऐसे दरिद्रों से बचकर निकलना।। नहीं सुख दिया है विधाता ने इनको। झरते ये झर-झर बने दुःख का झरना।। नहीं जल है निर्मल, अशुद्धा-अपेया।। दरिद्रों की दरिया किनारे न रहना।। बड़े पातकी होते ये सब दरिद्री। इनके बगल से कभी मत गुजरना।। छाया ये देते बहुत कष्टदायी । इनसे तू दूरी बनाये ही रहना । डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

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