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निशा अतुल्य

माहिया
पंजाब का प्रचलित लोकगीत (टप्पे)
*प्रेमिका व प्रेमी के बीच की बातें*

साजन तुम आते हो
मिलने की चाहत 
तुम और बढाते हो ।

ये प्रेम निराला है 
बिन देखे तुमको
दिल चैन न पाता है ।

साजन तुम झूठे हो 
बात बनाते हो
डोली ना लाते हो ।

प्रिय घर मैं आऊंगा
बात करूंगा जब
सिंदूर सजाऊंगा ।

मन को भरमाते हो
मीठी बातों से 
क्यों दिल तड़फ़ाते हो ।

मीठी बातें प्यारी
बन यादें मेरी
तुझ में बस जाती है ।

अब घर मैं जाती हूँ 
जा कर घर सबको 
ये बात बताती हूँ ।

प्रिय धीर धरो थोड़ी
संग रहेंगे हम
सुन्दर अपनी जोड़ी ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

अमरनाथ सोनी अमर

गीत - बुजुर्ग! 


जीवन के पथ पर मैं चलकर, सच्चा राह दिखाऊँ! 
कभी नहीं मन असमंजस हो, सच्चा राय बताऊँ!! 

मेरा तुम्ही भरोसा मानों, सच हो पूरा सपना! 
अंतरमन से बात करूँ मैं, कैसे तुम्हें दिखाऊँ!! 

बृद्धों के सलाह को मानो, कभी न होगें निष्फल! 
चाहे जहाँ कहीं जाओ तुम, होगें सफल बताऊँ!! 

पूराना इतिहास बताता,  करते थे सब आदर! 
सही समय- सलाह भी लेतें, होतें सफल बताऊँ!! 

इसीलिए प्यारे भाई तुम, मानों इनका कहना! 
भोजन, औषधि, वस्त्र सुलभ कर, सेवा करो बताऊँ!! 

अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662

अरुणा अग्रवाल

नमन मंच,माता शारदे,सुधिजन
शीर्षक "प्रेम और स्पर्श"

"प्रेम शब्द है अपरिमित,
जिसको बयाँ करना,मुश्किल,
है यह छोटा,पर जहाँ है समाया,
प्रेम से बड़ा काम होता सरल।।

मीरा,श्रीराधा,रुक्मिणी,मिसाल,
प्रेम से कर दिखाया बड़ा कमाल,
जो काम नहीं हो सकता अस्त्रों से
वह आसान औ मुमकीन,प्रेम से।।

मुमताज का अमिट प्रेम-कहानी,
शाहजहां ने बनाया ताज़महल,
संगमरमरी,कलाकारों ने करिश्मा,
जो की सप्ताश्चर्ज में सुमार-उत्तम।।

प्रेम और स्पर्श का तालमेल,
कोई मन से करता मेहसूस,
कोई स्पर्श-सुख खोजे,तन,
पर मन और मनन है काफी।।

प्रेम है चिर पूरातन,नितय नूतन,
सत्य से कलि हर युग और काल,
प्रेम चाहे प्रेमिक,प्रेमिका,संसारी,
सुदामा-कृष्ण हो या त्रिपुरारी,
प्रेम का महिमा है अति पावन।।

अरुणा अग्रवाल।
लोरमी,छःगः,
🙏🌹🙏

प्रवीण शर्मा ताल

*कुंडलियाँ*

सागर को पार करने,चले वीर हनुमान,
लंका में  है जानकी,खोज रहे बलवान।।
खोज रहे बलवान,विभीषण के घर जाते।
जाते फिर हनुमान,सिया वाटिका आते।
सीता के संदेश,भरे अंगूठी गागर।
जाओ मेरे  वत्स, पार जाना  तुम सागर।

             
*✍️प्रवीण शर्मा ताल*

सुधीर श्रीवास्तव

संरक्षण करो
***********
जल,जंगल, जमीन
ये सिर्फ़ प्रकृति का 
उपहार भर नहीं है,
हमारा जीवन भी है
हमारे जीवन की डोर
इन्हीं पर टिकी है,
धरती न रहेगी तो
आखिर कैसे रहोगे?
जब जल ही नहीं होगा 
तो प्यास कैसे बुझाओगे
पेड़ पौधे ही जब नहीं होंगे
तो भला साँस कैसे ले पाओगे?
अब ये हम सबको 
सोचने की जरूरत है,
हर एक की हम सबको जरूरत है,
जब इनमें से किसी एक के बिना 
दूजा निपट अधूरा है,
फिर विचार कीजिए
हमारा अस्तित्व भला
कैसे भला पूरा है?
उदंडता और मनमानी बंद करो
जीना और अपना अस्तित्व 
बचाना चाहते हो तो
सब मिलकर जल, जंगल, 
जमीन का संरक्षण करो,
ईश्वरीय व्यवस्था में बाधक
बनने के तनिक न उपक्रम करो।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
        गोण्डा, उ.प्र.
      8115285921
©मौलिक, स्वरचित

एस के कपूर श्री हंस


*।।कामयाबी का अपना एक*
*अलग गणित होता है।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
गिर कर    चट्टानों   से   पानी 
और तेज     होता है।
वही जीतता  जो       उम्मीदों
से लबरेज   होता है।।
गुजर कर    संघर्षों से  व्यक्ति
और है मजबूत बनता।
भागता और तेज   जब   नीचे
कांटों का सेज होता है।।
2
दीपक के तले  सदा     अंधेरा   
ही     रहता        है।
पर खुद जलकर  उससे रोशन
सबेरा      बहता  है।।
मुश्किलों में ही    आदमी  को
अपनी होती पहचान।
सफलता का हर  चेहरा   यही
बात  कहता       है।।
3
मुसीबतों में ही    उलझ    कर
शख्सियत निखरती है।
गलत हो सोच  तो       जिंदगी
फिर     बिखरती    है।।
जैसी नज़र   रखते    नज़रिया
वैसा जाता   है   बन।
आशा और विश्वास   से ही हर
तकलीफ    गिरती है।।
4
जीवन का   सफल    आचरण
अलग    होता      है।
तकलीफ़ का ऊपरी   आवरण
अलग    होता     है।।
संघर्ष की भट्टी में तपकर सोना
बनता   है      कुंदन।
कामयाबी का अपना व्याकरण   
अलग   होता      है।।


*1 ।।।।*
सीखो     और   सिखायो  तुम
यही     उचित   है ज्ञान बढ़ाना।
सदा   बड़ों का    सम्मान करो
यही   उचित है    मान जताना।।
यदि आ   गया     अहंकार तो
पतन      फिर     निश्चित    है।
त्यागअहम का   बहुत  जरूरी
*नहींउचितअभिमान दिखाना।।*
💥☘️💥☘️💥☘️💥
*2।।।।।*
भाषा  मर्यादा बहुत  आवश्यक
हर सफल व्यक्ति ने यही जाना।
वाणी की मधुरता है आवश्यक
सदा मीठे बोल ही है    सुनाना।।
कलम अच्छा सच्चा   लिखती
क्योंकि झुक      कर चलती है।
सरल सहज होना   आवश्यक
*नहींउचितअभिमान दिखाना।।*
💥☘️💥☘️💥☘️💥☘️
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।*
मोब।।।।         9897071046
                     8218685464

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

.
                     कविता
                *जल संग्रहण*
                    ~~~~
            जल बिन कुछ नहीं भाई, 
            समय बहुत ही दुखदाई।  
            दीखे नहीं परछाई,
            संकट घड़ी जो आई।।

            गलती नहीं बतलाना,
            पाठ यह पढ़ ही लेना।
            करना है जल संग्रहण,
            सबकों यही समझाना।।

            कुआं बावड़ी सब अपने,
            तो फिर हमें क्यों डरना।
            वृषा पानी का रुख बस,
            इनकी तरफ ही करना।।

            ताल-तैलिया गहरे कर,
            जाये उसमें भी पानी।
            बिन काम ही रोको मत,
            बात यह भी समझानी।।

            घर-घर में बने पुनर्भरण
            पानी बह के न जाये।
            बहुत उपयोगी  विधी,
            सभी मन से अपनाये।।

            खेत-खेत डोली पास,
            बने अब छोटे बांध।
            पशु-पक्षी कलरव तान,
            फिर से बजे देखो नांद।।
      
           ©®
              रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)
     ‌

नूतन लाल साहू

प्रेम और स्पर्श

जिसने भी किया ध्यान
सच्चे मन से ईश्वर का
बडभागी है वह इंसान
उसे कोई क्लेश
स्पर्श न किया
प्रेम और क्या है
जीवन का ही गायन है
सिर्फ सांसे ही जरूरी नहीं है
जो हमको रखे जिंदा
बहुत जरूरी है
जीवन की धमनियों में
प्रेम रसायन
पोथी पढ़ी पढ़ी जुग गया
पंडित बना न कोय
ढाई आखर प्रेम का
पढ़य सो पंडित होय
ऐसी कौन सी समस्याएं है
जो प्रेम से न सुलझा हो
जो चाहता है
हो बात मधुरता की
और जीवन स्वर्ग बनें
वह कुछ ऐसी कोशिश करें
जिससे मजबूत हो
सबसे मैत्री संबंध
सफलता का सफर
टेढ़ा बड़ा है
यहां हर मोड़ पर
दुश्मन खड़ा है
पर जिसने भी किया ध्यान
सच्चे मन से ईश्वर का
बडभागी है वह इंसान
उसे कोई क्लेश
स्पर्श न किया

नूतन लाल साहू

मन्शा शुक्ला

परम पावन मंच का सादर नमन

..........................

चुन -चुन बेर लाती
फूल राह में बिछाती
आओं मेरे प्रभु राम
राह निहारती है।c

सुमिरन  राम  नाम
काम यही आठों याम
राम भक्ति लव लगा
राम गुण गाती है।

प्रेम  भाव  नैन भर
खिलाती है चखकर
राम रूप दर्शन कर
मन हरषाती है।

ज्ञान नवधा भक्ति का
 ईश वरदान मिला
 सुमिरन राम नाम
भाग्य सँवारती है

मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर

मधु शंखधर स्वतंत्र

*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*
            *कोरा*
--------------------------------
◆ कोरा कागज यूँ रहे , उज्ज्वल धर परिधान।
रंग भरे जब लेखनी, शब्द करे संधान।
शब्द करे संधान, वृहद् शुभ भाव निराला।
शोभित अनुपम सृजन, नृत्य जैसे सुरबाला।
कह स्वतंत्र यह बात, रंग कोरा का गोरा।
सप्त रंग के साथ,  गया रच कागज कोरा।।

◆ कोरा जब तक मन रहे, भाव नहीं चितचोर।
प्रीत रंग जब भी मिले, नाचे मन का मोर।
नाचे मन का मोर , देख कर मेघ घनेरे।
इंद्रधनुष के रंग, बसे तन मन में मेरे।
कह स्वतंत्र यह बात, यहाँ क्या तोरा मोरा।
विस्तृत मन के भाव, सहज होता मन कोरा।।

◆ कोरा कोरा देख के, चाहें भरना रंग।
रंग भरी दुनिया यहाँ, दिखी अनेको ढंग।
दिखी अनेको ढंग, सतत् परिवर्तन होता।
जो होता बेरंग, खुशी मन की वह खोता।
कह स्वतंत्र यह बात, वजन तन जैसे बोरा,
हल्का तन मन साथ, रंग मधुमय यह कोरा।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️
*30.06.2021*

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत
         *गीत*(16/16)
मेरे जीवन के उपवन के,
सूखे पुष्प शीघ्र खिल जाते।
पूनम की संध्या-वेला में-
सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

उमस-ताप से व्याकुल धरती,
को भी अद्भुत सुख अति मिलता।
उछल-उछल कर नदियाँ बहतीं,
लखकर प्रेमी हृदय मचलता।
पावस बिना गगन में घिर-घिर-
अमृत जल बादल बरसाते।
       सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

तेरे गीत सुहाने सुनकर,
पशु-पंछी अति हर्षित होते।
सुनकर तेरे मधुर बोल को,
जगते जो भी दिल हैं सोते।
फँसे कष्ट में व्यथित-थकित मन-
औषधि मीठी पा मुस्काते।
       सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

मस्त हवा भी लोरी गाती,
सन-सन बहती जो गलियों में।
लाती गज़ब निखार चमन में,
भरकर गंध मृदुल कलियों में।
भन-भन भ्रमर-गीत मन-भावन-
को सुन प्रेमी-मन लहराते।
      सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

प्रकृति नाचने लगती सुनकर,
तेरा गान विमल अति पावन।
बिना सुने ज्यों कहीं दूर से,
स्वर ढोलक का लगे सुहावन।
बिना सुने अनुभूति गीत से-
विरही-हृदय परम सुख पाते।
      सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

हे,मेरे मनमीत सुरीले,
सुनो ज़रा इस दिल की पुकार।
देव-तुल्य यदि स्वर है तेरा,
मधुर मेरी वीणा-झनकार।
वीणा का मधुरिम स्वर सुनकर-
व्यथित-विकल मन अति हर्षाते।
   पूनम की संध्या-वेला में,सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।
             ©डॉ हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

निशा अतुल्य,

प्रेम और स्पर्श

किसने जाना
जीवन समर्पण
अंधे है सभी।

वो लालसाएं
मुखरित भटके
जीवन खत्म ।

समझा कौन
प्रेम और स्पर्श हो
स्वार्थ रहित ।

माँ समर्पित
निस्वार्थ करे कर्म
संतुष्ट रहे ।

अंत समय
कठिन है जीवन 
बुरा बुढापा ।

पाला सबको
अशक्त जन्मदाता
घर बाहर ।

सम्मान करो
सदा जन्मदाता का
मन के भाव ।

आशीष मिलें
सफल हो जीवन
विश्वास रख ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

अतुल पाठक धैर्य

शीर्षके-रिश्तों की बुनियाद
विधा-कविता
----------------------------------
रिश्तों की बुनियाद होती विश्वास है,
जो रिश्ते जुड़ते विश्वास के सहारे वो होते ख़ास हैं।

भरोसे के बिन हर रिश्ता टूट जाता है,
बड़े अनमोल होते हैं वो रिश्ते जिनमें आपसी समझ और भावनाओं का समंदर बहता है।

रिश्तों में अपनेपन की मिठास दिल से जोड़े रखती है,
बिना समझ के हो कड़वाहट जो रिश्ते उधेड़ने लगती है।

रिश्तों में अपनेपन का क़ुरबत एहसास  होना चाहिए,
कभी डिग न पाए रिश्तों की बुनियाद दिल के तार इतने मज़बूत होने चाहिए।

रचनाकार-अतुल पाठक "धैर्य"
पता-जनपद हाथरस(उत्तर प्रदेश)
मौलिक/स्वरचित रचना

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

2-शीर्षक -मर्यादाओं के राम----

चलो आज हम राम बताएं
राम मर्यादा  अपनाएँ राम रिश्ता मानवता की अलख जगाएं।।

प्रभु राम का समाज बनाएं
मात पिता की आज्ञा सेवा 
स्वयं सिद्ध को राम बनाएं।।

भाई भाई के अंतर मन का
मैल मिटाए ,भाई भाई में बैर नहीं भाई
भाई को भारत का भरत बनाएं।।

लोभ ,क्रोध का त्याग करे समरस
सम्मत समाज बनाएं,सम्मत सनमत बैभव राम नियत का दीप जलाए।।

कर्म धर्म श्रम शक्ति निष्ठां ,धन चरित पाएं ,पावन सरयू की धाराएं कलरव करती ,जन्म जीवन का अर्थ सुनाएँ।।

भव सागर का स्वर्ग नर्क,केवट खेवनहार बनाये भेद भाव रहित राम भव सागर पार कराएं।।          

निर्विकार निराकार राम सबमें साकार राम बोध प्राणी प्राण का दर्शन पाएं।।

राम सिर्फ नाम नहीं ,राम मौलिक
मानवता सिद्धान्त, राम रहित जीवन बेकार सांसो धड़कन पल प्रहर में
राम बसाएं।।

राम बन वास का रहस्य जल ,वन जीवन का राम दैत्य ,दानव से भयमुक्त धर्म ,दया ,दान ऋषिकुल बैराग्य विज्ञान का राम।।

सेवक राम यत्र तंत्र सर्वत्र राम
राम से बिमुख ना जाए चलो आज हम राम बताएं राम मर्यादा का युग अपनाएं।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

शीर्षक -माँ


माँ मुझे चरणों में  जगह दे ,ममता का तू आँचल ओढ़ा दे, और मुझे क्या चाहीये।।

माँ  दूध तेरा अमृत  
आशीष प्यार तेरा ,ढाल
और मुझे क्या चाहिये।।

माँ मैँ तेरी सेवा करूँ
मूरत भगवान की तुझमे
देखा करूँ मुझे और क्या चाहिये।।

पल प्रहर तेरे ही अरमानो को जिया करूँ तेरे ही पलों की जिंदगी
पला बढ़ा कोई गिला ना शिकवा
करूँ और मुझे क्या चाहिये।।

नौ माह तेरी कोख ने पाला
हर दुःख पीड़ा का पिया विष हाला
माँ कर्ज़ तेरा कैसे मैँ उतार दू,तेरे कर्ज का फ़र्ज़ को दूँनिया पे वार दूं  और मुझे क्या चाहिये।।

माँ  मैं तेरा सूरज चाँद 
तू ही कहती है ,बापू का नाज
मरे लिये तू ही धरती आसमान
जन्नत जहाँ और मुझे क्या चाहिये।।


माँ तू मेरी शरारत को कहती सही
मैं किसी भी हद से गुजर जाऊं सहती
माँ मेरी हस्ती तू, मेरी मस्ती तू, मेरे जज्बे की ज्योति तू और मुझे क्या चाहिए।।

माँ तू शक्ति है, माँ तू मेरी भक्ति है,
मेरे समर्थ की ज्वाला दूँनिया में मेरे
रिश्तों की धुरी है ।।                   

माँ मेरा तू आसरा,माँ मैँ तेरा ही आश विश्वाश मुस्कान,और मुझे क्या चाहिये।।

माँ जब भी लूँ जनम मैँ ,तेरा ही बेटी या बेटा रहूं ,तेरी ममता के आंचल पे जन्नत भी शरमाये मुझे और क्या चाहिये।।

नंदलाल  मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

डॉ० रामबली मिश्र

हरिहरपुरी के सोरठे

जब आता संतोष, कामना मिटती जाती।
सदा आत्म को पोष,आशुतोष का भाव यह।।

अपना जीवन पाल, सदा रहो सत्कर्म रत।
सत्कर्मों का हाल, सहज शुभप्रद सुखदायी।।

मन से कभी न हार, रहे मनोबल अति प्रबल।
मन तन का श्रृंगार, यदि यह पावन शिवमुखी।।

इन्द्रिय को ललकार, शुद्ध बुद्धि से काम कर।
ईर्ष्या को धिक्कार,दुश्मन है यह प्रेम का।।

करता जो स्वीकार,गलत राह को हॄदय से।
बन जाता आधार, वह अपराधी जगत का।।

मन में अतिशय लोभ, कारण बनता नाश का।
होता जब है क्षोभ,सिर धुन-धुन कर पटकता।।

तन-मन-उर अरु बुद्धि,करो जरूरी संतुलन।
जहाँ ध्यान में शुद्धि,वहाँ व्यवस्था स्वस्थ प्रिय।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुर
9838453801

अमरनाथ सोनी अमर

कुण्डलिया- आनंद! 

आये जब मेरे गृहे, अतिथि अरू दिलदार! 
अति मिलता आनंद है, मन खुश होयअपार!! 
मन खुश होय अपार,अतिथि मेरे घर आये!
हम करते व्यवहार,खुशी मन अति हो जाये!! 
अमर कहत कविराय, मनुज का हम तन पाये! 
स्वागत मेरा  धर्म, हमारे जो गृह आये!! 

अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662/

डाॅ० निधि मिश्रा

*यामिनी ने करवट में काटी* 

यामिनी ने करवट में काटी, 
अम्बर तल पर निशा सगरी, 
झुरमुट तारों के बीच बैठ, 
देखती रही विरहा बदरी ।

स्निग्ध चन्द्र धुधला सा गया, 
हिय पीर समा पराई गई। 
अति कौतुक भौरा चूम गया, 
प्रसून कली शरमाई गई।

झन झन झींगुर झनकार रहे, 
तट तरनी किरनें नाच रहीं। 
इठलाय चली धारा नद की, 
मिलन की आस पिय राह वहीं।

शशि भाल सुशोभित हैं नभ के, 
तारागण बिखरे स्वागत में। 
पिय योग वियोग,सुयोग नहीं, 
यामिनी जलती चाँदनी में।

यामिनी सजी शशि किरनों से, 
दिन सज्जित हुआ रवि रश्मि से,
दिन-रैन मिलन बस पल भर है,
हिय टीस मिटे न दोउ मन से।

स्वरचित- 
डाॅ०निधि मिश्रा ,
अकबरपुर ,अम्बेडकरनगर ।

रामकेश एम यादव

झमाझम बारिश !

नीलांबर  में  बादल  छाने  लगे हैं,
कण-कण में खुशियाँ बोने लगे हैं।
मानसून  ने   ली   ऐसी  अंगड़ाई,
जड़- चेतन  दोनों  झूमने  लगे हैं।
प्यासी थी  धरती इतने  दिनों से,
अंग-अंग उसके  खिलने लगे हैं।
झमाझम  बारिश  में  छोटे बच्चे,
कागज की कश्ती चलाने लगे हैं।
दादुर,  मोर,  पपीहा  झींगुर के,
मधुर स्वर कान में गूंजने लगे हैं।
नदियों  ने ली  है ऐसी  अंगड़ाई,
समंदर- सा खेत दिखने लगे हैं।
हल-बैल लेकर निकले किसान,
खेत -खेत बीज वो बोने लगे हैं।
सज गई फसल से सारी सिवान,
फिजा  के पांव थिरकने लगे हैं।
पड़ गए गाँव-गाँव सावन के झूले,
पेंग  बढ़ाकर  नभ  छूने  लगे  हैं।
कुदरत  बचेगी,  तो ही हम बचेंगे,
वृक्षारोपण   भी   करने  लगे   हैं।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

नंदिनी लहेजा

विषय-संदेह

संदेह तुझे तेरे अपनों से दे बिछड़ा
छीन लेता तेरे ह्रदय का चैन
छोड़ जाती निंदिया नयनो को
हर क्षण करता तुझे बेचैन
केवल एक भावना सन्देह की जब
तेरे मन घर कर जाती है
दूर कर देती तेरे अंतर्मन की प्रसन्नता को
तुझे क्रूर कर देती है
माना साधारण मानव है हम
मन के भावों पर ज़ोर नहीं
गर इसमें प्रेम समाता है
ईर्ष्या और संदेह भी पनपता यहीं
जिससे सर्वाधिक करते प्रेम
गर ना पूरी कर पाया उम्मीदों को
संदेह से भर जाता ह्रदय
चाहता मन उसे चोट पहुँचाने को
संदेह ना केवल दूजे को
स्वयं हमें भी नुक्सान पहुँचता है
तन मन को कर देता बोझिल सा
इक अगन से हमें जलाता है
ना पनपने दे भाव सन्देह का तू अंतर्मन में
क्योंकि वह तो ईश्वर का घर है
प्रेम और अपनत्व के भावों से कर पावन मन को
गर जीवन को सफल बनाना है

नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)
स्वरचित मौलिक

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