भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*" पुत्रियाँ "*(वर्गीकृत दोहे)
************************
('प' आवृत्ति युक्त आनुप्रासिक दोहा एकादश।)
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●पाकर पुत्री पावनी, पुलकित पुर परिवार ।
पारावार-प्रसन्नता, प्रेरक प्रीत-प्रसार ।।१।।
(१४ गुरु, २० लघु वर्ण, हंस/ मराल दोहा ।)


●परिमल पारस पुत्रियाँ, पनपे पावन प्यार ।
प्रहसित पालक पालना, पल परिजन परिवार ।।२।।
(१० गुरु, २८ लघु वर्ण, पान दोहा ।)


●पुत्री प्रेम प्रवाहिणी, पुण्य प्रतीक प्रभार ।
पूरित-प्रताप-पत्रिका, पीर-पतन-परिहार ।।३।।
(१४ गुरु, २० लघु वर्ण, हंस / मराल दोहा ।)


●पुत्री प्रीत-प्रकाशिनी, प्रतीति-प्रीत प्रदीप ।
प्रखर प्रभा पत पंजिका, प्रवहण-पतन प्रतीप ।।४।।
(१२ गुरु, २४ लघु वर्ण, पयोधर दोहा।)


●प्रतिभा पालन पुत्रियाँ, पत-प्रवाह पतवार ।
पाकर पटुता पालिका, पनपे पन-परिवार ।।५।।
(१२ गुरु, २४ लघु वर्ण, पयोधर दोहा।)


●पूरित पावन प्रेरणा, पसरे प्रीत पसंद ।
प्रज्ञा पूरित पुत्रियाँ, पनपे परमानंद ।।६।।
(१५ गुरु, १८ लघु वर्ण, नर दोहा ।)


●पीहर-पीहू पुत्रियाँ, परिमल प्रेम पुकार ।
प्रेमीपन पर पूज्यपन, पले प्रीतपन पार ।।७।।
(१३ गुरु, २२ लघु वर्ण, गयंद / मृदुकल दोहा ।)


●परिमिति पूरक पूरणी, पुत्री पूर्ण प्रभास।
पर्षत पक्व प्रबोधिनी, पुष्प परस पटवास ।।८।।
(१३ गुरु, २२ लघु वर्ण, गयंद / मृदुकल दोहा ।)


●पन परिपोषी पुत्रियाँ, पावन प्रीत-प्रवाक ।
पेंगित पींग-प्रतीति पा, परिभू प्रेमिल पाक ।।९।।
(१४गुरु, २० लघु वर्ण, हंस/ मराल दोहा ।)


●पंकिल पथ पर पावनी, प्रसरित प्रीत प्रवेश ।
पुरवाई पन पुत्रियाँ, पूरित प्रेम प्रदेश ।।१०।।
(१२ गुरु, २४ लघु वर्ण, पयोधर दोहा।)


●प्रीत पले परिकल्पना, पोषित प्रेम प्रकार ।
पुष्कल प्रसार पुत्रियाँ, पावन प्रेमागार ।।११।।
(१५ गुरु, १८ लघु वर्ण, नर दोहा ।)
************************
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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हलधर

ग़ज़ल (हिंदी)
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किसानों की चिंताओं पर अभी भी कर्ज टीला है ।
बताओ  क्यों लिखूँ  मैं गाँव का मौसम रँगीला है ।


घरों में रोग पसरा है कहीं खांसी व खसरा है ,
गिरे  हैं  भाव  मंडी के करें क्या तंत्र ढीला है ।


हमारे गांव में दारु बनी अभिशाप है अब तो  ,
गरीबी की बजाहों का यही मरखम वसीला है ।


सियासत बट गयी है देश की मज़हब कबीलों में ,
सिसकता भूख से बचपन हुआ कमजोर पीला है ।


गरीबी को मिटाने के बहुत दावे हुए अब तक ,
घरों में झांक कर देखो रखा खाली पतीला है ।


मनों से लत गुलामी की अभी छूटी नहीं पूरी ,
हरा  झंडा  कहीं उन्माद है या लाल नीला है ।


अमीरी औ गरीबी में दिनों दिन बढ़ रही खाई ,
कहीं आटा नहीं घर में कहीं पर अन्न सीला है ।


लिखूँ मैं और क्या ज्यादा बगावत हो नहीं सकती ,
लहू में जाति मज़हब नाम का मिश्रण नशीला है ।


मुझे तो लोग कहतें हैं कि पागल हो गया "हलधर",
हमेशा दर्द लिखता है नहीं लिखता रसीला है ।


हलधर-9897346173


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता" झज्जर (हरियाणा

साधु जान सुरक्षित नहीं... 


कोई भी जगह आरक्षित नहीं. 
यहाँ तो साधु भी सुरक्षित नहीं. 


कहने को तो सब आज़ादी है, 
कोई जाति-विशेष लक्षित नहीं. 


मार - काट का द्वंश चल रहा, 
सरकार का ध्यान चिन्हित नहीं. 


हर दिन की घटनाएं हो चली, 
कोई वार्षिक या पाक्षिक नहीं. 


क्या मिला होगा उनको मारकर, 
वो तो जेहादी या नास्तिक नहीं. 


प्रशासन झूठे और मक्कारों का, 
नेता की बातें वास्तविक नहीं. 


सबका ज़मीर मरा जो आस्तिक नहीं, 
"उड़ता "क्या ये घटना मार्मिक नहीं. 



स्वरचित मौलिक रचना. 



द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता"
झज्जर (हरियाणा )


संपर्क - +91-9466865227


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता " झज्जर (हरियाणा )

किसान... 


परमेश्वर की माया है 
दुनियां चलती छाया है 
अनाज उगाने वाले को 
प्रभू ने लाचार बनाया है. 


धरती तप रही आग सी 
उसने फिर भी अन्न उगाया है. 
वोटों की बाज़ारी में 
किसे उसका ख्याल आया है. 


सरकार ने कुछ नहीं समझा 
उसका, बातों से मन बहलाया है 
स्वयं खा कर भरपेट भोजन 
उसे खाली पेट सुलाया है. 


कैसे होती उसकी समृद्धि 
मौसम ने बाण चलाया है 
खराब हुई है फसलें उसकी 
हमें कहाँ तरस आया है. 


वो भी थके इंसान है 
पर कभी नहीं अलसाया है 
लिखो पर ये मत भूलो "उड़ता "
उसने अन्न से तारुफ़ करवाया है. 



स्वरचित मौलिक रचना. 


द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता "
झज्जर (हरियाणा )


संपर्क - +91-9466865227


हलधर

ग़ज़ल (मुक्तिका)
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(धरती दिवस पर)


धरा पर पेड़ पौधों  का सजा जो  आवरण है।
मिला नदियों से हमको स्वर्ग का वातावरण है ।।


न डालो मैल नदियों में न काटो पेड़ मानो ,
विषाणू रोग को सीधा बुलावा यह वरण है ।।


अभी जागे नहीं तो भूमि का नुकसान होगा ,
सभी  वीमारियों  का मूल  ही  पर्यावरण है ।।


सभी ये जानते तो हैं नहीं क्यों मानते हैं ,
हुआ पथ भ्रष्ट जाने क्यों हमारा आचरण है ।


बहुत नकक्षत्र हैं ब्रहम्माण्ड में पर हम कहाँ हैं ,
हमें धरती हमारी दे रही अब भी   शरण है ।


अभी कलयुग की दस्तक है धरा पै शोर देखो ,
अनौखे रोग विष कण का तभी आया चरण है ।


हिमालय क्रोध में आया बढ़ा है ताप उसका ,
हमारी  त्रुटियां  "हलधर" हमारा आमरण है ।


 हलधर -9897346173


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

ग़ज़ल


हमे  छत  मिल  नही  पाई  नही  शिकवा दिवारों से।
लहर  दम  तोड़  देती  है  सदा मिलकर  किनारों से।


बड़े  बनना  सदा  अच्छा  नही  रहता जरा  समझो।
परिन्दे  छाँव   कब   पाते  बहुत  ऊँची  मिनारों  से।


हसीं  सूरत  हमेशा  काम  खुद  के  भी  नही आती।
खिजां  रुकती  नही  हैं  वक़्त  पर  कोई  बहारों से।


चमक  धुँधली  भले  रहती  रवायत  की  अटारी में।
मग़र  ये  मिट  नही  सकती  फ़रेबी  इन  गुबारों से।


अँधेरा  लाख  छा  जाए   मग़र  सूरज  नही  डरता।
चमक  कब  माँगता हैं वो फ़लक़ के इन सितारों से।


रवायत  जो  हमारी  है   उसे   महफ़ूज   रखना  है।
जवाँ  नस्लें   बहक   जाए   नही   नीची  दरारों  से।


सदा  मैं  ही  ग़लत  होता  नही  था  चाह  पाने को।
हमें  फ़िर  भी  छला  तुमने  फ़रेबी  इन  करारों  से।


जहाँ  की  कामयाबी की 'अभय' चाहत नही रहती।
फिसलते हम नही  है वक़्त के झिलमिल नजारों से।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*समय*(दोहे)
समय समर्थ अजेय है,समय सदा सरनाम।
समय से पहले हो नहीं,कभी न कोई काम।।


समय-काल पहचान कर,करते हैं जो काम।
सदा वही होते सफल,करके काम तमाम।।


बुद्धिमान नर है वही,जो समझे गति काल।
वाँछित फल पाता वही,रखे न कभी मलाल।।


राजा को यह झट करे,सिंहासन से दूर।
अभिमानी का मान हर,करे मान-मद चूर।।


उत्तर से दक्षिण तलक,पश्चिम से अति पूर्व।
समय-पताका उड़ रहा,सत्ता समय अपूर्व।।


यदि जग में रहना हमें,रखें समय का ध्यान।
समय-समादर यदि करें,निश्चित हो कल्याण।।


समय-महत्ता को समझ,जिसने किया है काम।
पूजनीय-महनीय वह,उसका ही है नाम ।।
                ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                   9919446372


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः....*चौथा अध्याय*(गीता-सार)
जनम-करम मम होय अलौकिक।
करम दिब्य मम इह जग भौतिक।।
     अहहि जगत जे तत्त्वइ ग्याता।
      निज तन तजि ऊ मोंहे पाता।
राग-क्रोध-भय जे जन रहिता।
मोर भगति महँ जे रह निहिता।।
     ग्यान रूप तप होय पवित्रा।
     मम दरसन ते पायो अत्रा।।
मोंहि भजै जग जे जन जैसे।
मैं अपि भजहुँ तिनहिं इहँ तैसे।।
    अस मम रहसि जानि जग ग्यानी।
    मम पथ चलहिं सदा धर ध्यानी।।
जाको मिली न मम ततु-सिच्छा।
देवन्ह पूजि पाय फल-इच्छा।।
     पर अर्जुन तुम्ह पूजहु मोंही।
     प्राप्ती मोर मिलै जग तोहीं।।
ब्राह्मण-छत्रि-बैस्य अरु सुद्रा।
मोर प्रतीक औरु मम मुद्रा।।
गुणअरु कर्म-बर्ग अनुसारा।
रचेयु हमहिं तिन्ह कँह संसारा।।
      पर तुम्ह जानउ मोंहि अकर्ता।
      अहहुँ जदपि मैं तिन्हकर कर्त्ता।।
मैं परमेस्वर,मैं अबिनासी।
स्रस्टा हमहिं जगत-पुरवासी।।
दोहा-मम इच्छा नहिं करम-फल,अस्तु,न करमइ मोह।
       जे जन जानहिं तत्त्व मम,तिन्ह न करम-फल सोह।।
                  डॉ0हरि नाथ मिश्र
                  9919446372     क्रमशः....
.


निशा"अतुल्य"

धनुष पिरामिड
24.4.2020
*भूख*


ये
भूख
देखती
नही कभी
कौन है यहां
अमीर गरीब
लगे समान रूप
समान व्यवहार
फर्क इतना है
नही लगती
अमीरों को
बेहाल है
गरीब
भूख
से।


है
दाता
कृषक
देता अन्न
मिटाता भूख
बहाता पसीना
उगाता है फसल
देवता तुल्य स्थान
नमन है सदा
देता जीवन 
रह कर
स्वयं से
भूखा
ये।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


सत्यप्रकाश पाण्डेय

सब सों आश छोड़ दई मैंने
अब तोहि ते आश लगाय बैठों हूँ
नाय भरोसों और काहू कों
बस तेरौ  विश्वास किये बैठों हूँ


लालच के बस हुए सब प्राणी
कोऊ काहू की तनिक शरम गहें न
अपनों पेट भरें अब कैसेहूं
"सत्य"और काहू कि परवाह करें न


सद्बुद्धि देहों जन कूं माधव
स्वामी सबमें तेरी ज्योति बसी है
तेरी सूरत कौ ध्यान रहें कि
यहां तोसों सबकी डोर बंधी है।


गोपालाय नमो नमः🙏🙏🙏🙏🙏🌹🌹🌹🌹🌹


सत्यप्रकाश पाण्डेय


  डा.नीलम

*नवजीवन*


चेहरे पर सिंदूरी आब
सोहित है सूरज भाल
आसमानी वसन ओढ़े
आ गया देखो प्रभात


भर परवाज परो में
पंछियों ने ली उड़ान
छूने चले वो आसमान
हौंसला लिए परों में


हवाओं में मस्ती छाई
दरिया में जवानी आई
जाग कर धरा ने भी
बाँह खोल ली अंगड़ाई


भौंरो की सुनकर गुनगुन 
कलियाँ भी कसमसाना लगीं
तुहिन कणों के छिटका मोती
पाख-पाख खिलने लगी


यूं भोर ने जाग्रति का
संदेश देकर
नवजीवन का स्वागत किया
नई सुबह ने सुखी जीवन का संदेश दिया।


      डा.नीलम


एस के कपूर "श्री हंस*" *बरेली।*

*बेलगाम कॅरोना की धारा को*
*मिलकर हमें मोड़ना है।।।।।।*


मत निकलों यूँ  ही  बाहर तुम,
कि जिंदगी नहीं  इतनी सस्ती।
इस  कॅरोना   संकट  में   मिट,
जायेगी असमय ही तेरी हस्ती।।
लॉक डाउन का अनुपालन ही,
बचा है बस बचाव का तरीका।
साफ  स्वच्छ  सैनीटाइज करो,
देश का कोना कोना हर बस्ती।।


हाथ को तो यूँ ही  मिलाना नहीं,
पर  साथ भी  नहीं   छोड़ना  है।
मिलकर के कॅरोना की बेलगाम, 
इस   धारा दिशा को  मोड़ना है।।
जरूरी है हर  सहयोग सहायता,
सुरक्षा हर डॉक्टर नर्स के  लिए।
तभी सम्भव निर्दयी  कॅरोना की,
इस फैलती   बेल  को तोड़ना है।।


पास पास मत  आओ अभी   कि,
दुआ    दूर   दूर  से     करनी   है।
एक एक का    ढूंढ   कर   करना,
ईलाज और जड़ इसकी हरनी है।।
ध्यान रखें कि कोई  भूखा  व्यक्ति,
यूँ    ही   कदापि   सो   नहीं पाये।
अभी माने नहीं,अभी चेते नहीं तो,
जानलो बड़ी कीमत हमें भरनी है।।


*रचयिता।    एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।*
मोब   ।       9897071046
                  8218685464


राजेंद्र रायपुरी

🌞🌞  नील गगन   🌞🌞


अब तक,
कहाॅ॑ दिखता था नील गगन ?
ये तो है तालाबंदी का कमाल,
जिसने गगन का,
असली रूप दिखाया है।
सच कहूॅ॑ तो नील गगन,
अब सबने देखा पाया है।


अभी तक तो दिखता था,
केवल गर्द और गुब्बार।
काले धुएं का अम्बार।


न गगन का असली चेहरा,
न रवि, वो सुनहरा,
न चमकीला चाॅ॑द,
न तारों की माॅ॑द,
अभी तक देख पाया था,
संसार।


जो दिखता था,
वो असली नहीं,
केवल साया था।
चलो,
'कोरोना' के डर से ही सही,
प्रकृति का असली रूप,
हमारे सामने आया है।


आशंकित है मन,
फिर भी प्रकृति का देख,
ये नया रूप,
उसका,
रोम-रोम हर्षाया है।


।। राजेंद्र रायपुरी।।


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
       *"समय"*
"समय रहते जीवन में साथी,
कुछ तो कर लो-
जीवन में विचार।
बीता समय लौटेंगा नहीं,
साथी,
जीवन मैं फिर से-
जतन करो हजार।
सद्कर्मो की पूजा हो साथी,
सत्य का हो साथ-
प्रभु भक्ति संग करो विचार।
बदल दें समय की धारा को,
मन में हो विश्वास-
वही तो बनता जीवन आधार।
समय का जाने मोल साथी,
समय हैं-अनमोल-
बीते समय पर नहीं जोर।
प्रभु कृपा होगी जीवन में,
समय भी होगा-अनुकूल-
होगे नहीं कभी बोर।
समय रहते जीवन में साथी,
कुछ तो कर लो-
जीवन में विचार।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः          सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.
ःःःःःःःःःःःःःःःः
           24-04-2020


कालिका प्रसाद सेमवाल रूद्रप्रयाग उत्तराखंड

हे मां शारदे
**********
हे मां वीणा धारणी
विद्या विनय दायिनी
हे मनीषिणी,
हमें विचार का अभियान दे।


योग्य पुत्र बन सकें,
स्वभिमान का दान दे ,
चित्त में शुचिता भरो,
कर्म में सत्कर्म दो।


हे मां शारदे,
वाणी में मधुरता दे
हृदय में पवित्रता दे,
हे देवी तू प्रज्ञामयी,
मैं प्रणाम कर रहा तुम्हें।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखं
पिनकोड 246171


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"माँ सरस्वती दोहावली"


जब-जब विपदा पड़त है, माँ आती हैं द्वार।
करुण रुप धर भक्त को,करती हैं स्वीकार।।


भक्त हेतु हैं ज्ञानधन,और प्रेम धन नित्य।
माँ की ममता अति सहज,सर्वश्रेष्ठ प्रिय स्तुत्य।।


वन्दनीय माँ भारती, पूजनीय है नाम।
रचनाएँ करतीं सदा, बिना किये विश्राम।।


बन प्रेरक लिखवा रहीं, सबसे वही सुलेख।
आ लिख आ लिख कह सदा,लिखवातीं आलेख।।


सद्विवेक का दान दे, हर लेती हैं शोक।
देती रहतीं भक्त को, मानवता की कोख।।


धारण सुन्दर भाव का,कर रचतीं संसार।
महा भारती शारदा, से सबका उद्धार।।


अति विनम्रता का वरद, बन देतीं आशीष।
सकल लोक में भक्त ही, दिखत नवाये शीश।।


माँ की जिसपर हो कृपा, वही पूज्य हर स्थान।
बिन माँगे देता जगत, स्नेह प्रेम सम्मान ।।


माँ सरसती का करो, सदा भजन गुणगान।
मन वाणी अरु कर्म से, करो उन्हीं का ध्यान।।


रचनाओं को मात्र माँ, देती हैं अमरत्व।
कृपा पात्र माँ शारदा,का पाता अभयत्व।।


लिखने का अभ्यास कर, लिख-पढ़ बारंबार।
माँ का वन्दन नित लिखो, यदि माँ से हो प्यार।।


हाथ उठाकर कह रहा, हरिहरपुरी स्वतंत्र।
लेखन जीवन दृष्टि हो, लेखन ही गुरु मंत्र।।


लिखने से चूको नहीं, लिख सब उठते भाव।
छिपी हुई है भाव में,शीतल रचना-छाँव ।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"वक्त का इंतजार नहीं करते"


काम करने वाले
वक्त का इंतजार नहीं करते,
किसी का प्रतिकार नहीं करते ,
अनावश्यक को स्वीकार भी नहीं करते।


कार्य उनका मिशन है,
शुभ शिव रतन है,
आत्म का प्रक्षेपण है,
स्व का विश्लेषण-विवेचन है,
परमार्थ का संश्लेषण है,
विश्व के प्रति समर्पण है।


इंतजार करनेवाला रह जाता है,
समाज से कट जाता है,
अपनी ऊर्जा को देखते देखते नष्ट कर डालता है,
हाथ मल कर रह जाता है।


कार्य में त्वरित गति हो,
आदर्श की नियति हो,
परम का भाव हो,
उन्नत स्वभाव हो।


लोक के आलेखन में परलोक का स्मरण हो,
आत्मिक संस्मरण हो,
दिव्यता की बू हो,
परमानन्द की खुशबू हो।


कार्य में चरैवेति की दृष्टि हो,
अनन्त में गमन की प्रवृत्ति हो,
चलना सबसे बड़ा कार्य है,
यही संस्कृति सहज स्वीकार्य है।


अवरोध को आने दो,
बगल से जाने दो,
बुद्धिमान आगे बढ़ जाता है,
शिखर पर चढ़ जाता है।


वह रुकता नहीं,
खिसककर भी झुकता नहीं,
भीतर गुरुत्व है,
कार्य संस्कृति की चढ़ी हुई भौहों का प्रभुत्व है।


जो रुका नहीं वही पाया है,
गीता के श्लोकों को दोहराया है,
माँ भारती के गीत गाया है,
भारत माता की सोंधी मिट्टी को  विश्व मस्तक पर लगाया है,
मानवता के राष्ट्र ध्वज को चतुर्दिक फहराया है,
सकल लोक मंच से मधु संस्कृति की यश गाथा को सहज भाव से सुनाया है,
 आचार्य भवभूति बनकर करुणा का रसपान कराया है,
कृष्ण बनकर लोक मंगल हेतु प्रेम  को पहचान दिलाया है।


रचनाकार


:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"पुस्तक दिवस"


इस जग में कोई नहीं, पुस्तक जैसा मीत।
पुस्तक से ही सीखता, पाठक शिव-पथ-गीत।।


पुस्तक ही करती सहज, मानव का निर्माण।
पुस्तक संस्कृतिवाहिका, करती जन कल्याण।।


पुस्तक में ही है भरा, सकल ज्ञान भण्डार।
पुस्तक रखो सहेज कर, कर इससे ही प्यार।।


पुस्तक में क्या क्या नहीं, सुलझती हर प्रश्न।
पुस्तक हो यदि साथ में, मने अहर्निश जश्न।।


प्रिया लगे पुस्तक अगर, समझ काम सब सिद्ध।
पिया मिलन की यह घड़ी, देती ज्ञान विशुद्ध।।


पुस्तक में हो जागरण, पुस्तक में विश्राम।
पिया बिना यह जिन्दगी, सूनी-सूनी जाम। 


प्रिय पुस्तक के संग में, रहना सीखो यार।
पाते रहोगे रात-दिन, सहज प्रिया का प्यार।।


हल्के में मत लीजिये, रख पुस्तक का ख्याल।
हो जातेगी जिन्दगी, पुस्तक से खुशहाल।।


लिखना पढ़ना पुस्तकें, रहो नित्य लवलीन।
पुस्तक को पानी समझ, खुद को समझो मीन।।


अगर रत्न की चाह है, मथना पुस्तक-सिन्धु।
मंथन से बन जाओगे, महाकाश में इन्दु।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

"आज हम जिन्दगी से जंग लड़ रहे हैं"


आज हम जिन्दगी से जंग लड़ रहे हैं,
कल हम निश्चितरूप से जीत कर रहेंगे।


जंग हमारी जारी रहेगी,
जंग की कला न्यारी रहेगी,
हम आगे बढ़ते रहेंगे,
उम्मीदें तरो-ताजी रहेंगी।


जीतना ही लक्ष्य है,
नीतियाँ सुस्पष्ट हैं,
हम हार कर भी जीतेंगे,
अपना इतिहास लिखेंगे।


हम घोर आशावादी हैं,
प्रकार्यवाद के वादी हैं,
हमारा कोई कुछ नहीं विगाड़ सकता,
चेतना की आजादी हैं।


मैंने  तो बहुत कुछ देखा है,
बहुत कुछ सहा है,
हँसा औऱ रोया है,
पाया और गंवाया है,
कभी निश्चिन्त तो कभी पछताया है।


आज हम चेतना के द्वार पर खड़े हैं,
सब में प्राण के मंत्र फूंक रहेंगे,
फिर हम क्यों हारेंगे,
विजय के गीत गायेंगे।


जब हम नादान थे,
अंजान थे,
तब कुछ नहीं पता था,
अच्छा भी बुरा लगता था,
आज तो शुभ ज्ञान है,
शिवत्व का अरमान है,
पूरा संसार मीत है,
मधुर अभिनीत है,
हार में भी जीत का अहसास होगा,
सुन्दर सा सपना साकार होगा।


हम लड़ेंगे,
लड़ते रहेंगे,
स्वयं से,
जिन्दगी की रुबाइयों से,
एक तनहा तनहाइयों से,
जिन्दगी मिलेगी,
दुलहन बनकर खिलेगी,
आनन्द की अनुभूति होगी,
प्रीति की प्रसूति होगी।


हम लड़कर अपना निर्माण करें,
विश्व का कल्याण करें,
यही मिशन हो,
सूक्तियों का कोटेशन हो।


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


यशवंत"यश"सूर्यवंशी🌷        भिलाई दुर्ग छग

🌷यशवंत"यश"सूर्यवंशी🌷
       भिलाई दुर्ग छग



पृथ्वी दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।



🥀विधा कुण्डलिया छंद🥀



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मानो धरती मात सम,करो नहीं नुकसान।
जैसी माता सह रही,संतानों अपमान।।
संतानों अपमान ,सहीं है सदियों माता।
पाया जीवन दान, वही है जुल्म उठाता।।
कहे सूर्य यशवंत, धरा को अपनी जानो।
करो जतन अब अल्प,बचे भू विघटन मानो।।


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🌷यशवंत"यश"सूर्यवंशी🌷
       भिलाई दुर्ग छग


सुबोध कुमार

आलेख पृथ्वी दिवस


बीता एक महीना लोगों ने घर पर कैद होकर बिताया | डरा सहमा समाज प्रकृति का यह रूप देखकर इस बीते समय में इतना तो चिंतन कर ही पाया है कि हमने इसे जरूरत से ज्यादा तबाह किया है जंगल काट दिए नदियां सूख गई धरती का तापमान बढ़ गया मौसम अधिक क्रूर हो गए और ऐसा नए वायरस पनप कर आ रहे है
     हर इंसान समझ गया है कि अब आगे और नहीं पर क्या करना होगा यह लो लॉकडाउन खत्म होने होने के बाद यह धरती बचाने के लिए|  आप भी कुछ संकल्प लें इस धरती और मानवता को बचाने के लिए
      आपसे प्रार्थना है कि अपना संकल्प हमारे साथ भी साझा करें और यदि आप ऐसा करते हैं तो आपको पृथ्वी दिवस की शुभकामनाएं
          सुबोध कुमार


गोपाल बघेल ‘मधु’ टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा

 


जीवत्व व ईश्वरत्व  


हर व्यक्ति वही कहता है जैसा आत्मिक रूप से वह होता है या जो वह अपने अनुभव के अनुसार अनुभूति कर पाता है । 


कृष्ण पार्थ से जो कहे कि वे ही ईश्वर हैं वह सर्वथा सर्वदा सत्य वचन था और आज भी कोई भी व्यक्ति ईश्वरत्व में प्रतिष्ठित हो यह कह सकता है । 


जो उनके या स्वयं के ईश्वरीय स्वरूप को अनुभूत नहीं कर पाए हैं उन्हें यह अतिशयोक्ति लग सकती है ! जिन्होंने इस स्वरूप को देख लिया है, उन्हें यह बात बहुत सामान्य लगेगी । 


कृष्ण सहज भाव से यह सत्य कह दिये थे और बताये थे कि हर आत्मा भी ईश्वर ही है, ईश्वरत्व प्रति जीव जड़ का सहज स्वरूप है जो समय के अन्तराल पर प्राप्य है। 


जो लोग यह स्वरूप नहीं देखे, वे इसे नहीं समझ पाते । वे वही कह पाते हैं जो देख पाए हैं । इसमें उनकी कोई ग़लती नहीं । समय आने पर जब आत्म ज्ञान हो जाएगा, वे स्वयं इस सत्य को कह पाएँगे । 


मुझे प्रसन्नता है कि हम में से बहुत से लोग उनके या अपने इस स्वरूप को आत्मस्थितिकरण द्वारा समझ लिए हैं ! जो व्यक्ति नहीं समझे हैं समय आने पर वे भी समझ जाएँगे ! 


इसमें कुछ अजीव बात भी नहीं है, हर जीव को यह समझने के लिये ही तो जीवन मिलता या मिलते हैं । कृष्ण को या कृष्ण को समझने वाले व्यक्तियों को उनके यह न समझ पाने से कोई आश्चर्य नहीं होता ! 


सृष्टि में अधिकाँश जीव बृह्म को नहीं समझ पाते; समझने वाले बहुत कम जीव होते हैं । सृष्टि का प्रयोजन ही यही है कि जीव बृह्म अवस्था में प्रतिष्ठित हो जाएँ ! यदि सब बृह्म होते या उनको समझ लेते तो इस सृष्टि के इस स्वरूप की आवश्यकता ही न होती ! 


कृष्ण के काल के अर्जुन जो उनके सखा व परम प्रिय पुरुष थे, वह भी बड़ी मुश्किल से युद्ध भूमि में उनके इतना समझाने पर, इतने दिनों के उनके साहचर्य के बाद भी बिना उनके विराट स्वरूप देखे, उनको कहाँ समझ पाए थे ! उस समय भी कुछ गिने चुने लोग ही उनको समझ पाए थे ! आज ३५०० वर्ष बाद भी उन्हें कुछ लोग ही समझ पाते हैं । जो ख़ुद को नहीं जाने वे उन्हें कैसे जान पाएँगे ! 


जैसे आपका बच्चा आपको कहाँ समझ पाता है; वैसे ही जीव बृह्म को भी उनकी गोद में रहते हुए भी कहाँ जान पाता है ! जितना ज्यादा अज्ञान है, उतना ही स्वयं को महान समझता है, बच्चे की भाँति खूब बोलता है और परम पिता उसका आनन्द लेते हुए, उसे उत्तरोत्तर संभालते सहलाते सुलझाते सहजाते हुए साकार व निराकार स्वरूप से परशते तराशते निखारते चलते हैं ! उनका काम सतत स्नेह देना है और शिशु का काम है माँ बाप को लात मारते हुए उनके बृहत् महत शरीर, मन, आत्म व जगत (य+ गत) को समझते चलना ! 


जब वत्स बड़ा हो जाता है तो परम पिता उससे दूर-रह या उसे दूर- रख या दूर- करा कर उसे उच्च स्तर का परा-ज्ञान देते चलते हैं ! उसके बाद उसे बाप बना स्वयं वत्स बने प्रतक्ष अप्रतक्ष प्रकट अप्रकट रूप से उसकी लीला देखते हैं ! 


कभी कभी हम बृद्ध हो कर भी आत्म ज्ञान या अनुभूतियों में वाल बने रहते हैं, ना ही स्वयं को ना ही सृष्टा को समझ पाते । जागतिक ज्ञान के ग़ुरूर  में गुरु को पहचान नहीं पाते  व जीवन के रहस्य को बिना समझे जीवन के असल रस को नहीं पी पाते ! 


यह सब करते कराते, परम पुरुष हमें अपने निकट और निकट लाते चलते हैं और एक दिन वे अपने हर वत्स को ब्राह्मी अवस्था में ला, भेद समाप्त कर देते हैं ! तब जीव व बृह्म एक हो जाते हैं, द्वैत नहीं रह जाता, सृष्ट जगत अपना लगने लगता है, पराया पन नहीं रहता; प्राण प्रफुल्लित हो परा-प्राणायाम कर उठता है ! आयाम एक हो जाते हैं, पात्र अपने गात में लखते हैं व काल किलकारी भरते हुए किलोल करते द्रष्टि आते हैं ! 


शुभमस्तु !
गोपाल


गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओन्टारियो, कनाडा


१४ अप्रेल, २०१८- सायं ८ 
www.GopalBaghelMadhu.com


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल


जुस्तजू -ऐ-शौक लेकर दर ब दर फिरता रहा
मैं हथेली पर लिए ख़ून-ऐ -जिगर फिरता रहा 


यह मेरे अश्आर मेरी फ़िक्र की परवाज़ थी
मुद्दतों अखबार की बनकर ख़बर फिरता रहा 


जाने किस किस को थीं मेरे नाम में दिलचस्पियाँ
मेरे नक़्श-ऐ-पा लिये हर इक बशर फिरता रहा


हुस्न ने महफ़िल में आकर  क्या  दिये मुझको गुलाब
सबकी आँखों में मेरा ज़ौक़-ऐ-हुनर फिरता रहा


तंग नज़रों की सियासत ने किया रुसवा मगर
अंजुमन दर अंजुमन मैं बेख़बर फिरता रहा


सिर्फ़ तेरी याद तेरी आरज़ू होंठो पे थी
सारी दुनिया भूलकर शाम-ओ-सहर फिरता रहा 


जाने कितनी फूल सी आँखें मेरे चेहरे पे थीं
मैं दयार-ऐ-तशनगी में चश्मे-तर फिरता रहा


यह थी मेरे प्यार के अंदाज़ की *साग़र* कशिश 
मेरी यादों में मगन वो उम्र भर फिरता रहा 


🖋विनय साग़र जायसवाल


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
     *"पर्यावरण"*
"पर्यावरण की रक्षा को साथी,
मिल कर जीवन में-
करते रहो जतन।
इतने लगाये वृक्ष,
बनी रहे हरियाली-
बढ़ते रहे वन।
प्रात: भ्रमण को मिले,
सार्थकता-
तृप्त हो नयन।
शुद्ध हो वातावरण,
कम हो प्रदूषण-
शांतिपूर्ण हो शयन।
महकता रहे जीवन में,
उपवन सारा-
सुगन्धित हो सुमन।
मिलते रहे फल-फूल औषधी,
सार्थक हो जीवन-
बलिष्ठ हो तन-मन।
भटके न नभचर,
आसरा मिले उनको-
सार्थक हो वन।
पर्यावरण की रक्षा को साथी,
मिलकर जीवन मेंं-
करते रहो जतन।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः           सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा " निकुंज "

दिनांकः २३.०४.२०२०
दिवसः गुरुवार
विधाः दोहा 
शीर्षकः🤔 मानव संदेश☝️
युगधारा निर्माण कर , नयी आश  नव  सोच।
वृक्ष लगा उन्नत धरा , मत निकुंज को   नोंच।।१।। 
चाह अगर है जिंदगी , चाहत मुख   मुस्कान।
बढ़ो साँच विश्वास पथ, पाओ सुख  सम्मान।।२।।
रखो लाज निज देश का , करो इतर उपकार। 
हो किसान या सैन्यबल, करो सदा   सत्कार।।३।।
छँटे कोराना  कालिमा , आए  खुशियाँ  भोर। 
करें प्रकृति से दिल्लगी , भू अम्बर खग शोर।।४।।
समझो निज कर्तव्य को , राष्ट्रधर्म अरु नीति।
मिटा लोभ मन कालिमा,गाओ परहित गीति।।५।। 
बचे   देश   की   संस्कृति , मर्यादा   सम्मान।
रोग शोक जन मुक्त  हो , हो जीवन अरमान।।६।।
जीवन जीना  तब  सफल, जीएँ   सेवा  देश।
मददगार   बन  दीन जन , दें   मानव  संदेश।।७।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा " निकुंज "


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