सत्यप्रकाश पाण्डेय

खुद को देखता हूँ आईने मैं,
तुम्हारी सूरत नजर आती है।
यह मेरा भ्रम है या हकीकत,
कि तेरी मूरत नजर आती है।।


वह क़ातिलाना अंदाज तेरा,
और ये घूर कर देखना मुझे।
मैं समा जाऊँगा आगोश में,
फिर बुरा क्यों लगता तूझे।।


तितली नहीं भौरे है हम तो,
आदी है हुश्न के रसपान के।
पियेंगे अधरों से जाम प्रिय,
हे प्रियतमा यौवन खान के।।


अनुभूति तुम मेरे ह्रदय की,
अजनबी नहीं तुम्हारे लिए।
क्यों अनजानी सी हो जाती,
जब जीवन ही तुम्हारे लिए।।


कष्ट होता तुम्हें आह हमारी,
क्यों दर्द का अहसास नहीं।
हमदर्द बने क्यों न सत्य की,
क्यों करती तू विश्वास नहीं।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय


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