सीमा शुक्ला अयोध्या

क्या स्वप्न सजाएं अंतर्मन?


जब अपने दामन छोड़ चलें,
खंडित कर अंतस तोड़ चलें।
पल- पल जीवन दुश्वार लगे
सांसों पर सांसे भार लगे
जब कोटि खंड में टूटा हो
संचित उम्मीदों का दर्पन,
क्या स्वप्न सजाएं अंतर्मन?


जब भोर तिमिर ने घेरा हो।
खुशियों का नहीं सवेरा हो।
पथ अंगारे हों पांव जले
जल रही धरा हो छांव तले।
जब घेर घटा सावन बरसे,
फिर- फिर मुरझाया हो उपवन
क्या स्वप्न सजाएं अंतर्मन?


जब नींद निशा भर रूठी हो,
जीवन से आशा टूटी हो।
जब वाणी में विष घोल उठे।
यह प्रेम हृदय का तोल उठे।
जब पीड़ा से मन व्याकुल हो
निर्झर सा बहता रहे नयन,
क्या स्वप्न सजाएं अंतर्मन?


जब रूठा- रूठा हो वसंत।
तम का लगता हो नहीं अंत।
जब नीरस मधु मकरंद लगे
जब पल पल जीवन द्वंद लगे
जब बीच सरोवर में प्यासा 
रह रह कर जल जाए जीवन।
क्या स्वप्न सजाएं अंतर्मन?


सीमा शुक्ला अयोध्या।


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