चाहत में तेरी नाम ये बदनाम ही तो है।
सर पर मेरे जो है लगा इल्जाम ही तो है।
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इक बार जो देखे हमें कुछ मुस्करा के तू।
अरमान पूरे हो गए .....आराम ही तो है।
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मैं इश्क का दूँ नाम अपनी इस मुहब्बत को।
दुनिया की नज़रों में मगर असकाम् ही तो है।
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करता रहूं बेशक मुहब्बत उम्र भर उससे।।
ये आशिकी मेरी रही निष्काम ही तो है।
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तूने कबूली जो मुहब्बत क्या कहूं फिर मैं।
तेरी पनाहों में मिला इकराम ही तो है।
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सुनीता असीम
२९/४/२०२०
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
सुनीता असीम
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