डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*15


अंड-पिंड-स्वेतज-स्थावर,


व्यापक सबमें आसव है।


जड़-चेतन,चर-अचर-जगत की-


अति दृढ़ धुरी बनाई है।।


      पुरा काल से काल अद्यतन,


      बस आसव ही आसव है।


      यह तो है अनमोल धुरी वह-


      महि जिसपे टिक पाई है।।


सुरगण-मुनिगण-ऋषिगण सबने,


ब्रह्म-महत्ता दी इसको।


जीवन-कोष-केंद्र यह कहता-


क्या अच्छाई-बुराई है??


     जब तक आसव-द्रव है तन में,


     समझो,प्राण-अमिय रहता ।


     प्राण निकलना ध्रुव है तन से-


      अमृत सोच न जाई है।।


आसव-सोच अनित्य-अमिट है,


तन जाए,शुभ सोच रहे।


यदि आसव सी सोच रहे तो-


रहे अमर ये रहाई है।।


    निर्गुण-सगुण का अंतर मिटता,


    जब चाखो सुरभित आसव।


    उभय बीच की खाई की भी-


    इसी ने की पटाई है।।


ब्रह्म एक है,ब्रह्म सकल है,


ब्रह्म बिना ब्रह्मांड नहीं।


आसव-सरिता बहती रहती-


करती जग-कुशलाई है।।


       बिना प्रमाण प्रमाणित आसव,


       की शुचिता सुर-कंठ बहे।


       सुर-आसव की शुचिता ने ही-


       जग में शुचिता लाई है।।


शिव ने विष को कंठ लगाकर,


आसव-अमृत-धार किया।


विष-दुख गले लगा ही जग को-


मिलती शुभ सुखदाई है।।


       आसव शुभकर,आसव हितकर,


        शुभ चिंतन,सुख-साधन यह।


        इसी ने सुरभित स्वाद चखाकर-


        सुख-दुख किया मिलाई है।।


ब्रह्म-स्वरूप पेय इस आसव,


का निवास मधुरालय है।


जाकर जहाँ परम सुख मिलता-


भव-ज्वाला जल जाई है।।


     मधुर मोद, आमोद-मधुरता,


     सुरभित सुरभि-सुगंधित सुर।


    मधुरालय की सबने मिलकर-


    अद्भुत छटा सजाई है।।


निसि-वासर सुर-देव विराजें,


ब्रह्मनाद-उदघोष सतत।


परमानंद सकल सुख देता-


अनुपम प्रभु-प्रभुताई है।।


      अति प्रणम्य-रमणीय-सुरम्या,


      छवि मधुरालय शोभित है।


      छवि से यदि बहु-बहु छवि मिलती-


      तदपि यही छवि भाई है।।


एक घूँट बस दे दे साक़ी,


आसव की सुधि आई है।।


                 ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


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