डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः...*सत्रहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


तामस-तप मूरख जन करहीं।


बपु-मन-बचन-पीर बहु सहहीं।।


     अस जन हठी-अनभली होंवैं।


      उचित लाभु तप कै ते खोवैं।।


परम पुनीत कर्म जग दाना।


प्रत्युपकारिन्ह देहिं सुजाना।।


     देस-काल अरु पात्रइ जोगा।


      देहिं दान जे सात्विक लोंगा।।


मन दबाइ निज सिद्धिहिं हेतू।


इच्छित फल पावन चित चेतू।।


     मान-प्रतिष्ठा औरु बड़ाई।


     कीन्ह दान जग रजस कहाई।।


बिनु सम्मान-अपात्र-अजोगा।


अधरम हेतुहिं औरु कुभोगा।।


    तामस दान होय सुनु पारथ।


    तामस-दान न हो परमारथ।।


हीन सच्चिदानंदघन नामा।


ऊँम-तत-सत अहँ ब्रह्म सुनामा।।


      ब्राह्मण-वेद औरु यज्ञादी।


      यहि तें बने सृष्टि के आदी।।


इहवइ ऊँ-तत-सत जे नामा।


अह संबोधन बस परमात्मा।।


    जगि-तप-दान औरु सुभकरमा।


    करिअ उचारि नाम सब धरमा।।


दोहा-करउ करम श्रद्धा सहित,सास्त्र-बिधिहि निष्काम।


        नाम सच्चिदानंदघन, भजत जाउ सुर-धाम ।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


                  सत्रहवाँ अध्याय समाप्त।


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