डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*पहला*-1
 पहला अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-1 
            बंदउँ सुचिमन किसुन कन्हाई।
            नाथ चरन धरि सीष नवाई ।।
मातु देवकी पितु बसुदेवा।
नंद के लाल कीन्ह गो-सेवा।।
           राधा-गोपिन्ह के चित-चोरा।
            नटवर लाल नंद के छोरा।।
गाँव-गरीब-गो-रच्छक कृष्ना।
गीता-ग्यान हरै जग-तृष्ना ।।
         मातु जसोदा-हिय चित-रंजन।
         बंधन मुक्त करै प्रभु-बंदन।।
दोहा-कृष्नहिं महिमा बहु अधिक,करि नहिं सकहुँ बखान।
सागर भरि लइ मसि लिखूँ, तदपि न हो गुनगान ।।
        जय-जय-जय हे नंद किसोरा।
       निसि-दिन भजन करै मन मोरा।।
पुरवहु नाथ आस अब मोरी।
चाहूँ कहन बात मैं  तोरी  ।।
       कुमति-कुसंगति-दुर्गुन-दोषा।
        भागें जे प्रभु करै  भरोसा  ।।
कृष्न-कन्हाइ-देवकी-नंदन।
जसुमति-लाल,नंद के नंदन।।
      चहुँ दिसि जगत होय जयकारा।
      नंद के लाल आउ मम द्वारा ।।
हे चित-चोर व मक्खन चोरा।
बासुदेव के नटखट छोरा  ।।
      मेटहु जगत सकल अँधियारा।
      ज्ञान क दीप बारि उजियारा  ।।
दोहा-सुनहु सखा अर्जुन तुमहिं, आरत बचन हमार।
चहुँ-दिसि असुर बिराजहीं,आइ करउ संघार ।।
           श्रीकृष्ण का प्राकट्य-
रोहिनि नखत व काल सुहाना।
रहा जगत जब प्रभु भय आना।।
          गगन-नखत-ग्रह-तारे सबहीं।
          सांत व सौम्य-मुदित सब भवहीं।।
       निरमल-सुद्ध नदी कै नीरा।
       हरहिं कमल सर खिल जग-पीरा।।
बन-तरु-बिटप पुष्प लइ सोभित।
पंछी-चहक सुनत मन मोहित  ।।
    सुर-मुनि करैं सुमन कै बरसा।
      होइ अनंदित हरसा-हरसा ।।
नीरद जाइ सिंधु के पाहीं।
गरजहिं मंद-मंद मुस्काहीं।।
     परम निसीथ काल के अवसर।
     भएअवतरित कृष्न वहीं पर।।
पसरा रहा बहुत अँधियारा।
लीन्ह जनर्दन जब अवतारा।।
      जस प्राची दिसि उगै चनरमा।
      लइ निज सोरह कला सुधरमा।।
गरभ देवकी तें तहँ वयिसै।
बिष्नु-अंस प्रभु प्रगटे तइसै।।
  दोहा-निरखे बसुदेवइ तुरत,अद्भुत बालक-रूप।
  नयन बड़े मृदु कमल इव,हाथहिं चारि अनूप।।
                   डॉ. हरि नाथ मिश्र
                    99194463

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