निशा अतुल्य

 कविता दिवस 

मुक्त विधा

21.3.2021


कुछ जीवित रखने के लिए 

उनका परिष्कृत होना जरूरी है ।

जब से ये विचार मन में आया

मैं स्वयं को रचनाकार समझ बैठी

क़लम उठाया चंद अक्षरों को जोड़

कुछ पंक्तियां रच डाली ।

और निराला,महादेवी के समक्ष 

ख़ुद को समझने की हिमाकत कर डाली ।

न वो गूढ़ता न कोई सन्देश 

बस कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा,

एक कविता का शीर्षक गढ़ा 

अपने को रचनाकार घोषित कर दिया।

ऐसे नहीं बन जाता है कोई भारतेंदु,

जयशंकर प्रसाद,सुभद्रा 

संयोजन करना पड़ता है वर्णों से

भावों का और किसी उद्देश्य का ।

एक जन चेतना का 

और किसी की विषमताओं का

किसी दर्द का,किसी उल्लास का। 

लेखनी सार्थक तब ही होती है 

जब कोई किसी का दर्द अपने शब्दो में ढाल 

आईना दिखाता है समाज का ।

और हम जैसे खरपतवार क्या सच में 

काबिल है आज का दिवस मनाने को

कविता तुम में भाव जरूरी है 

एक चेतना और आईना 

जब तक न बन पाए शब्दों से 

लेखन कैसा भी हो निरर्थक है ।

और कविता दिवस की सार्थकता

मीरा,सूर,कबीर,रहीम,महाश्वेता,अमृतासंदेशवाहक तक सीमित है ।


स्वरचित

निशा"अतुल्य"

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