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विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

इश्क़ की आबरू हम बढ़ाते रहे
अश्क पीते रहे मुस्कुराते रहे

एक मुद्दत हुई जिनसे बिछड़े हुए
हर नफ़स वो हमें याद आते रहे

यूँ तो वाबस्तगी हर क़दम पर रही 
जाने क्यों हौसले डगमगाते रहे 

इक ज़रा देर की रौशनी को फ़कत
अहले-दानिश भी घर को जलाते रहे

इस कदर बढ़ गयी ख़्वाहिश-ए - मयकशी
मककदे में ही हर शब बिताते रहे

वो ग़ज़ल इस कदर ख़ूबसूरत लगी
रात भर ही उसे गुनगुनाते रहे

दौरे- *साग़र* चला मयकदे में मगर
जश्ने-तशनालबी हम मनाते रहे

🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली

यशपाल सिंह चौहान

हकीक़त जाननी

गर हकीकत जाननी है तो अपने अंदर झाँक के देख।
किसी को नजर में गिराने से पहले आंँख मिला के देख।।

सारे जहांं में मुकम्मल नहीं है कोई भी दस्तकार ।
गैरत बचाने के लिए इंसानियत को तराश के देख।।

क्यूँ ना जाने बेशुमार मुगालते पाल रखे हैं तुमने।
ईमान से झूठ फरेब का यह दामन छुड़ाकर के देख।।

 इस नफरतों से भरे दिल में बढ़ी हैं खलिश बेइंतेहाँ।
टूटे हुए दिलों पर मोहब्बत भरा लेप चढ़ा के देख।।

जुनून,पागलपन आपसी तनाज़ा, दिलों में खौफ है यश।
ऐसे उजड़े चमन की बेबसी खुद महसूस करके देख।।

यशपाल सिंह चौहान
  नई दिल्ली

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल---

मुहब्बत जहां से छुपाना है मुश्किल 
सभी को मगर यह बताना है मुश्किल

छुपा है बहुत कुछ निगाहों में उसकी
मगर उससे नज़रें मिलाना है मुश्किल 

ज़ुबां रूबरू काँप जाती है उसके
मुहब्बत को उस पर जताना है मुश्किल

हवाएं बहुत तेज़ हैं नफ़रतों की
चराग़-ए-मुहब्बत जलाना है मुश्किल

ख़िज़ाँओं के खे़मे हैं चारों तरफ़ ही
यहाँ फूल कलियाँ खिलाना है मुश्किल

किराये के घर में गुज़ारेंगे कब तक
नशेमन बहुत ही बनाना है मुश्किल

है मँहगाई हद से ज़ियादा ही *साग़र* 
ग़रीबी में घर का चलाना है मुश्किल

🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली
29/5/2021
रूबरू-समक्ष
ख़ेमे-डेरे
नशेमन-आवास

सुनीता असीम

मेरी तो जान भी तुझमें बसी है।
कन्हैया तू ही मेरी जिंदगी है।
***
हमारा है मेरी सांसों में जबसे।
खुशी मिलती मुझे तो नित नई है।
***
नज़र जबसे  मिली मेरी हैं तुमसे।
जगी दिल में नई इक रोशनी है।
***
बड़े हो बे-मुरव्वत नंदलाला।
पिला नज़रों से दे दी तिश्नगी है।
***
यहीं सोचूं तुम्हें अपना बनाकर।
मेरे दिल ने करी क्यूं खुदकुशी है।
***
जरा ले लो सुनीता को शरण में।
हे मोहन इल्तिज़ा ये आखिरी है।
***
सुनीता असीम
२९/५/२०२१

सुनीता असीम

आंख में अश्के-रवानी दर्द की।
है यही केवल कहानी दर्द की।
****
इक कसक उठती रहे दिल में कहीं।
दर्द ही  खालिस निशानी दर्द की।
****
 रो रहा हो दिल मगर चहरा हंसे।
जात ये ही है      पुरानी दर्द की।
****
दर्द की खुशियां लगे प्यारी इसे।
आंख करती कद्रदानी दर्द की।
****
कह नहीं पाए किसी से दर्द को।
कौन सुनता खुदबयानी दर्द की
****
सुनीता असीम
२८/५/२०२१

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल-

वो यक़ीनन ही मजबूरे-हालात थी 
टालती रहती  हर दिन मुलाकात थी

उसका चेहरा नज़र आता चारों तरफ़
इश्क़ था या कि कोई करामात थी 

दिल फ़िदा होके सब कुछ लुटाता रहा 
उसकी मासूमियत में अजब बात थी 

सर से पा तक सराबोर रहता था मैं
प्यार की इतनी करती वो बरसात थी 

प्यार से उसने जादू सा क्या कर दिया
मेरे सारे ग़मों की हुई मात थी

उसके लफ़्जों से दिल का चमन खिल उठा
 यह  ग़ज़ल थी या कोई मुनाजात थी

जिसकी तारीफ़ करते न *साग़र* थका
इस जहां में अकेली वही ज़ात थी

 🖋️विनय साग़र जायसवाल,बरेली
28/5/2021
मुनाजात-ईश प्रार्थना

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

दिल की चादर ज़रा बड़ी कर ली
घर की बगिया हरीभरी कर ली

ग़म के सारे पहाड़ ढहने लगे
दिल्लगी से जो दोस्ती कर ली

दिल में इक चाँद को बिठा कर के
हमने हर रात चाँदनी कर ली 

जिसको दिल में बसा के रख्खा है
रोज़ उसकी ही बंदगी कर ली

जैसी महबूब की रही ख़्वाहिश
हमने वैसी ही ज़िन्दगी कर ली 

जब भी शाख-ए-गुलाब मुरझाई
सींच कर  अश्क से हरी  कर ली

तेरे वादे का था यक़ी  *साग़र*
पार इससे ही इक सदी  कर ली

🖋️विनय साग़र जायसवाल
25/2/2021
2122-1212-22

एस के कपूर श्री हंस

ग़ज़ल।। संख्या 103।।*
*।।क़ाफ़िया।। इया  ।।*
*।।रदीफ़।। बनो ।।*
1
हो सके किसी के काम का जरिया बनो।
नफरत नहीं   महोब्बत का  दरिया बनो।।
2
जरूरत नहीं है   तुमको खुदा बनने की।
बस सिर्फ इंसान नेक और बढ़िया बनो।।
3
जरूरत नहीं  बस दुनिया में  दिखावे की।
दे जो इमारत को बुलंदी  वो सरिया बनो।।
4
किसी दर्द की दवा , बनो जख्म का मरहम।
बुझाये किसीकी प्यास ,तुम वो नदिया बनो।।
5
हैं अलगअलग बनो उनके, जोड़ की तरकीब।
जो बिखरों को जोड़ दें,तुम वो कड़ियाँ बनो।।
6
तुम इस दुनिया के गुलशन के, फूल हो जैसे।
कोशिश करके तुम बस, फूलों की लड़ियाँ बनो।।
7
*हंस* बिना भेद के दे , जो संबको  उजाला।
हो सके तो तुम वैसा  चिराग ए  दिया बनो।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।      9897071046
                    8218685464


*।।कॅरोना।। दवा तंत्र,साथ ही बचो और बचाओ,ये ही है मंत्र।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
लॉक डाउन बढ़ा  दिया है
पुनः अब     सरकार    ने।
बेमतलब बेवजह   कतई
न निकलें आप बाजार में।।
घर पर ही रह  कर   आप
दे सकते कॅरोना को  मात।
बस अभी हंसी खुशी वक्त
आप  बिताइये परिवार  में।।
2
स्वास्थ्य ही धन है कि यह
बात दुबारा जान लीजिए।
अभी घर रहने  में भलाई
बस यही   ज्ञान   दीजिए।।
कॅरोना के   साथ  चलना
रहना हमें  सीखना होगा।
अनुशासन     अनुपालना
का बस अहसान कीजिए।।
3
लॉक डाउन की  रियायत
का कोई दुरुपयोग  न हो।
बेवजह न निकलो  बाहर
कि कॅरोना से योग न  हो।।
मत जाओ     कि   जहाँ
जमा हों   बहुत से  लोग।
मत एकत्र   करें   सामान
ज्यादा कि यूँ ही रोग न हो।।
4
फांसला बना   कर   रहना
आज हमारा यही  कर्म  है।
कॅरोना   काल में  यही  तो
अब   सर्वोपरि    धर्म    है।।
दूरी मजबूरी नहीं  ये तो  है
आज समय  की    जरूरत।
वही बचेगा जीवित अब कि
समझ लिया जिसने मर्म है।।

*रचयिता।एस के कपूर " श्री हंस*"
*बरेली*।
मो     9897071046
         8218685464

*।।  प्रातःकाल   वंदन।।*
🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂
आपकी   खुशी  की हम
हर  बात खास करते हैं।
रोज़ सुबह आपके लिए
इक़   अरदास करते हैं।।
यह नया दिन  नई आस
लेकर आयेआपके लिए।
*अपने नित प्रणाम से हम*
*प्रकट विश्वास  करते हैं।।*
👌👌👌👌👌👌👌👌
*शुभ प्रभात।।।।।।।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।।।।।।  एस के कपूर*
👍👍👍👍👍👍👍👍

*दिनाँक.  27.   05.      2021*
🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️

विनय सागर जयसवाल

ग़ज़ल--

दिखावे की अदाकारी करेगा
किसी की कौन ग़मख़्वारी करेगा

जिसे है ख़ौफ मुखिया का बता वो
हमारी क्या तरफ़दारी करेगा

बराबर बिक रहे ईमान हर सू
भला कब तक तू ख़ुद्दारी करेगा 

बचा कर चलते हैं काँटों से दामन
तू इतनी तो समझदारी करेगा

उतारो तुम गुनाहों का लबादा
सफ़र यह और भी भारी करेगा 

न घर का घाट का रह पायेगा वो
वतन से जो भी ग़द्दारी करेगा

मिले जब पेट भर रोटी न उसको
बशर वो फिर तो मक्कारी करेगा 

लिखा करता हूँ पुरखों के यूँ क़िस्से
कभी कोई अमलदारी करेगा

फ़ना फ़नकार हो जायेगा जिस दिन
ज़माना तब ये गुलबारी करेगा

निभाई तुमने गर *साग़र* न हमसे 
जहां में कौन फिर यारी करेगा
22/2/2021
ग़मख़्वारी-सहानभूति ,हमदर्दी
हर सू-हर दिशा ,हर तरफ़
अमलदारी - अपनाना ,इख़्तियार करना ,
बहर मुफाईलुन मुफाईलन फऊलुन

सुनीता असीम

सपनों के आकार बदलता रहता हूं।
अपनों से बेकार उलझता रहता हूँ।
****
थाह नहीं जिसकी एक समंदर ऐसा।
प्रेम नदी में जिसकी बहता रहता हूँ।
****
सागर मंथन दुख सुख का होता अक्सर।
ज्वार सरीखा सिर्फ उफनता रहता हूँ।
****
चाहूं सबका सिर्फ भला दुनिया वालो।
लेकिन क्या क्या सबसे सुनता रहता हूं।
****
वो  मेरे  हैं या  मैं    उनका हूं साथी।
इस उलझन में रोज उलझता रहता हूँ।
****
सुनीता असीम
२६/५/२०२१

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल 

पहले तो  नज़र दिल को तलबगार करे है 
फिर उसको  मुहब्बत से गिरफ़्तार करे है 
हुस्ने-मतला--

पतझार का मौसम भी वो गुलज़ार करे है
छुप छुप के मेरा रोज़ ही दीदार करे है 

है मौजे-तलातुम में उम्मीदों का सफ़ीना
इस पार करे है न वो उस पार करे है 

यह सोच सवालों की किताबें नहीं खोलीं
हुशियार है इतनी कि पलटवार करे है 

क्या उसका इरादा है समझ में नहीं आता
इकरार करे है न वो इनकार करे है

मुश्किल में हुआ जाता है घर बार चलाना
हर चीज़ यहाँ मँहगी जो सरकार करे है

रह -रह के हिला जाती है वो दिल की इमारत
यह काम भी क्या कोई वफ़ादार करे है 

लाँघी नहीं जाती है कभी हमसे वो  *साग़र*
तामीर वो लफ़्ज़ों की जो दीवार करे है

🖋️विनय साग़र जायसवाल,बरेली
मौजे-तलातुम --तूफान की लहरें
सफ़ीना--नाव, कश्ती
25/2/2021

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल -

पहले दूजे का कुछ तो भला कीजिए
फिर तवक्को किसी से रखा कीजिए
हुस्ने मतला--
यह इनायत ही बस इक किया कीजिए
हमसे जब भी मिलें  तो हँसा कीजिए

 साथ लाते हैं क्यो़ सैकड़ों ख्वाहिशें
हमसे तन्हा कभी तो मिला कीजिए

हाल मेरा ही क्यों पूछते हैं सदा
अपने बारे में कुछ तो लिखा कीजिए

आपको है हमारी क़सम हमनफ़स
हमसे कोई कभी तो गिला कीजिए

 आप भी और बेहतर कहेंगे ग़ज़ल
दूसरे शायरों को पढ़ा कीजिए

आप *साग़र* की ग़ज़लों में हैं जलवागर 
थोड़ा बनठन के यूँ भी रहा कीजिए 

🖋️विनय साग़र जायसवाल बरेली
20/3/2021

सुनीता असीम

समसामयिक

बढ़ गए हैं काफिले खामोशियों के।

कदम कम साथ हैं अब साथियों के।

****

बदन से जान का है फासला कम।

गिरे हैं फूल कितने टहनियों के।

****

तबाही का है मंज़र चारसू अब।

लगे झटके हैं सबको बिजलियों के।

****

हैं चहरे श्वेत पड़ते आज सबके।

उड़े हैं रंग भी तो तितलियों के।

****

कहीं खाना कहीं सिन्दूर गायब।

कदम ठिठके हुए हैं पुतलियों के।

****

सुनीता असीम

२१/५/२०२१

देवानंद साहा आनंद अमरपुरी

........................दस्तक............................

आप  देते   रहिये  बंद   दरवाजों   पर   दस्तक।
साथ  ही   दीजिये  बंद   दिमागों  पर   दस्तक।।

हम  अच्छे - अच्छे   रिवाजों   को  मानते  चलें;
पर जरूर  दिया करें बुरे  रिवाजों  पर  दस्तक।।

समाज  हर  तरह  के  होते  हैं, अच्छे और  बुरे;
हमेशा   दिया  करें  बुरे  समाजों   पर  दस्तक।।

जो खुद अच्छे काम करते, उन्हें मदद करते रहें;
कभी न  दिया करें  ऐसे  परवाजों  पर दस्तक।।

आगाज़ ठीक है  तो अंजाम भी ठीक  ही होगा;
बराबर दिया  करें अच्छे आगाजों  पर दस्तक।।

हर जगह है  छीनाझपटी सभी  ताजों के लिए;
सही को मिले ,दें हम सभी ताजों  पर दस्तक।।

मुल्क के हर आवाम रहें  हर हाल  में "आनंद";
देते रहें हुक्मरानों के हर दरवाजों पर दस्तक।।

----------------देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

सुनीता असीम

चली ही गई जान जब से जिगर से।
नहीं डर रहे बद-दुआ के असर से।
***
यही कोशिशें हैं सदा के लिए बस।
तेरा नाम निकले हमारे अधर से ।
***
कि मुझसे हो रूठे मेरे तुम कन्हैया।
परेशान हूँ सुनके ऐसी खबर से।
***
तेरा रूप सांवल मुझे भा गया यूं।
सदा देखती रूप दीदा ए तर से।
***
अगर मिल गए श्याम आकर के मुझसे।
तो जाने न दूँगी तुम्हें मैं नज़र से।
***
*दीदा ए तर=आंसू भरी आंखों से

सुनीता असीम
२०/५/२०२१

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल ----

देख लेता हूँ तुम्हें ख़्वाब में सोते-सोते
चैन मिलता है शब-ए-हिज्र में रोते-रोते

इक ज़रा भीड़ में चेहरा तो दिखा था उसका
रह गई उससे मुलाकात यूँ होते -होते

इक तिरे ग़म के सिवा और बचा ही क्या है
बच गई आज ये सौगात भी खोते-खोते


प्यार फलने ही नहीं देते बबूलों के शजर
थक गये हम तो यहाँ प्यार को बोते-बोते

बेवफ़ा कह के उसे छेड़े हैंं 
दुनिया वाले 
 मर ही जाये न वो इस बोझ को ढोते-ढोते

इतना दीवाना बनाया है किसी ने मुझको
प्यार की झील में खाता रहा गोते-गोते

ऐसा इल्ज़ामे-तबाही ये लगाया उसने
मुद्दतें हो गईं इस दाग़ को धोते-धोते

आ गया फिर कोई गुलशन में  शिकारी शायद
हर तरफ़ दिख रहे आकाश में तोते-तोते

तेरे जैसा ही कोई शख़्स मिला था *साग़र*
बच गये हम तो किसी और के होते-होते

🖊विनय साग़र जायसवाल,बरेली

सुनीता असीम

दर्द में यार जब मुस्कुराने लगे।
फिर हमें वो हसी भी रुलाने लगे।
****
खो गया दिल कहां से कहां ये मेरा।
जब से नैनों के उनके निशाने लगे।
****
हौंसला साथ देने का जिनका नहीं।
दम हमें आशिकी का दिखाने लगे।
****
नाम से प्यार के जो थे अंजान से।
वो मुहब्बत की रस्में निभाने लगे।
****
देख हमको सनम मुस्करा जब दिए।
प्रेम के गीत हम तब से गाने लगे।
****
सुनीता असीम

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल-


जब कभी ज़ीस्त पर कोई बार आ गया

नाम लेते ही उनका क़रार आ गया 

 

आप खोये हुए हैं कहाँ देखिये

आप के दर पे इक बेक़रार आ गया 


बहरे-ताज़ीम पैमाने उठने लगे

मयकदे में कोई मयगुसार आ गया 


आपके ख़ैरमक़्दम के ही वास्ते

देखिये मौसम-ए-पुरबहार आ गया 


आप क़समें न खायें हमारी क़सम 

छोड़िए छोड़िए ऐतबार आ गया 


जब अचानक कहीं कोई आहट हुई 

यूँ लगा हासिल-ए-इंतज़ार आ गया


दो क़दम जब भी मंज़िल की जानिब चला

उड़ के आँखों में *साग़र* ग़ुबार आ गया 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

ज़ीस्त-

बार-बोझ ,भार

बहरे-ताज़ीम-स्वागत हेतु

मयगुसार-रिंद ,मयकश ,शराबी 

ख़ैरमक़्दम-स्वागत ,

पुरबहार -बहारमय ,बहारो से भरपूर

ग़ुबार-धूलकण

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल -


पहले दूजे का कुछ तो भला कीजिए

फिर तवक्को किसी से रखा कीजिए

हुस्ने मतला--

यह इनायत ही बस इक किया कीजिए

हमसे जब भी मिलें  तो हँसा कीजिए


 साथ लाते हैं क्यो़ सैकड़ों ख्वाहिशें

हमसे तन्हा कभी तो मिला कीजिए


हाल मेरा ही क्यों पूछते हैं सदा

अपने बारे में कुछ तो लिखा कीजिए


आपको है हमारी क़सम हमनफ़स

हमसे कोई कभी तो गिला कीजिए


 आप भी और बेहतर कहेंगे ग़ज़ल

दूसरे शायरों को पढ़ा कीजिए


आप *साग़र* की ग़ज़लों में हैं जलवागर 

थोड़ा बनठन के यूँ भी रहा कीजिए 


🖋️विनय साग़र जायसवाल बरेली

20/3/2021

एस के कपूर श्री हंस

 ।।ग़ज़ल।।  ।।संख्या  32।।*

*।।काफ़िया।। आह।।*

*।।रदीफ़।।देखना चाहता हूँ।।*

*बहर   122-122-122-122*

*संशोधित।।।*

1

तिरी चाह को    देखना  चाहता हूँ।

हद-ए-वाह को   देखना चाहता हूँ।।

2

तू  हमराही है मेरा हमजोली भी है। 

इसी थाह को  देखना     चाहता हूँ।।

3.

ग़रीबों की आहों में कितना असर है। 

उसी आह को  देखना      चाहता हूँ।।

4

मज़ा इंतज़ारी में आता     है कैसा। 

तिरी  राह को देखना     चाहता हूँ।।

5

गुज़रती है क्या *हंस* उस पर जहां में।

मैं गुमराह    को देखना       चाहता हूँ।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।*

मोब।।।।।             9897071046

                           8218685464


।।ग़ज़ल।।   संख्या 33 ।।

*।। काफ़िया।।  तोड़ने,मोड़ने,छोड़ने*,

*जोड़ने आदि।।*

*।।रदीफ़।। पड़े मुझे।।*

*बहर    221-2121-1221-212*

1

अपने  उसूल उसके लिए तोड़ने पड़े ।

ग़लती नहीं थी हाथ मगर जोड़ने पड़े ।।

2

दूजों को आबोदाने कि दिक्कत न पेश हो ।

अपने हक़ो के सिक्के सभी छोड़ने पड़े ।।

3

मुफ़लिस के घर भी जाये मिरे घर की रौशनी।

अपने  घरौंदे ख़ुद ही मुझे फोड़ने पड़े ।।

4

तकलीफ़ हो किसी को न मेरे वजूद से ।

यह सोच अपने शौक मुझे छोड़ने  पड़े ।।

5

जिस रहगुज़र से *हंस* था मुश्किल भरा सफ़र ।

उस रास्ते पे अपने क़दम मोड़ने पड़े ।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।।*

मोब।।।।।       9897071046

                     8218685464


।।ग़ज़ल।।  ।।संख्या    34।।*

*।।काफ़िया।। आर ।।*

*।।रदीफ़।। होती है  ।।*


1    *मतला*

शब्द की महिमा अपार      होती है।

लिये शक्ति का इक़ भंडार      होती है।।

2    *हुस्ने मतला*

हर शब्द की अपनी इक़ पैनी धार   होती है।

कि शब्द शब्द से ही पैदा खार होती है।।

3    *हुस्ने मतला*

शब्दों से ही   बात इक़रार      होती है।

शब्दों से ही कभी बात इंकार होती है।।

4  *हुस्ने मतला*

शब्द की मिठास लज़ीज़ बार बार होती है।

कभी यह तीखी तेज़ आर पार    होती है।।

5

किसी शब्द का महत्व कम मत आँकना कभी।

शब्द से शुरू बात फिर विचार होती है।।

6

हर शब्द बहुत नाप तोल   कर   ही   बोलें।

हर शब्द की अपनी एक रफ्तार होती है।।

7

शब्दों का खेल बहुत निराला होता है।

एक ही शब्द बनती व्यपार, व्यवहार होती है।।

8

शब्दों से खेलें नहीं कि होते हैं नाजुक।

कभी इनकी मार जैसे तलवार होती है।।

9

*हंस* शब्द महिमा  बखान  को शब्द कम हैं।

शब्दों की दुनियाअपने में एक संसार होती है।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"

*बरेली।।।*

मोब।।             9897071046

                      8218685464

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