"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-19
अंगद-चरन न उठ केहु भाँती।
भागहिं सिर लटकाय कुजाती।।
जस नहिं तजहिं नेम-ब्रत संता।
महि नहिं तजै चरन कपि-कंता।।
भागे जब सभ लाजि क मारा।
रावन उठि अंगद ललकारा।।
झट उठि पकरा अंगद-चरना।
अंगद कह मम पद नहिं धरना।।
गहहु चरन जाइ रघुनाथा।
प्रभुहिं जाइ टेकउ निज माथा।।
रामासीष उबारहिं तोहीं।
नहिं त तोर कल्यान न होंहीं।।
सुनतै अस तब रावन ठिठुका।
गरुड़हिं देखि ब्यालु जिमि दुबका।।
तेजहीन रावन अस भयऊ।
दिवस-प्रकास चंद्र जस रहऊ।।
सिर झुकाय बैठा निज आसन।
जनु गवाँइ संपति-सिंहासन ।।
राम-बिरोधी चैन न पावहिं।
बिकल होइ के इत-उत धावहिं।।
रचना बिस्व राम प्रभु करहीं।
प्रभु-इच्छा बिनास जग भवहीं।।
तासु दूत-करनी कस टरई।
प्रभु-महिमा कपि-चरन न हटई।।
चलत सकोप अंगद कह रावन।
रन महँ मारब तोहिं पछारन।।
सुनि रावन बहु भवा उदासू।
अंगद-बचनहिं सुनत निरासू।।
होइ अचंभित निसिचर लखहीं।
रिपु-मद रौंद के अंगद चलही।।
दोहा-अंगद जा तब राम-पद,पकरा पुलकित गात।
रौंद के रिपु कै सकल मद,सजल नयन हर्षात।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
कालिका प्रसाद सोमवाल
*हे माँ शारदे कृपा करो*
********************
माँ हमें अज्ञानता से तार दो
तेरे द्वार पर आकर माँ खड़ा हूं,
तेरे चरणों में आज पड़ा हुआ हूं
ज्ञान का उपकार दे माँ,
जन मानस को प्रकाश दे माँ
हे शारदे माँ ,कृपा करो।
हृदय वीणा को हमारी
नित नवल झंकार दे दो माँ,
तू मनुजता को इस धरा पर
चिर संबल आधार दे माँ,
प्रार्थना का हमें अधिकार दे
हे माँ शारदे कृपा करो।
हे दयामयि माँ शारदे
तू हमें निज प्यार दे माँ,
तिमिर का तू नाश करती
ज्ञान का दीपक जलाकर,
हमें पुण्य पथ प्रशस्त करता दे
हे माँ शारदे कृपा करो।।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड
नूतन लाल साहू
बाल मजदूरी, छीनती बचपना
हम दो हमारे दो
शासन का हैं सुझाव
पर यह कैसी लाचारी
बढ़ रही है संख्या,अनाप शनाप
करे गुजारा किस तरह
नहीं कमाई खाश
आज यहां तो कल वहां
किये बहुत से काम
पंद्रह दिवस जला बस चूल्हा
मेहनत हुई महीने की
मजबूरी ने दिखा दी
बच्चों को मजदूरी की राह
बाल मजदूरी छीनती बचपना
इक्कीसवीं सदी में है,यह कैसी विडंबना
सेहत बने,पढ़ाई हो
ताकि आगे नहीं कठिनाई हो
मिले संतुलित आहार,खूब स्वस्थ रहें
पढ़े लिखे,प्रसन्न मस्त रहें
सूखी जीवन की जब तैयारी है
तब बच्चों के सीने में गम ही गम हैं
आंख नम करके सितम ढा रहा है
जाने क्यों तुम,समझ न पा रहा है
झांक कर देख तो, बच्चों के मन मंदिर को
उसके अंदर भी इक विधाता है
सोचो अगर दुनियां में कानून न होता
बोलो फिर क्या होता
बाल मजदूरी, छीनती बचपना
इक्कीसवीं सदी में है,यह कैसी विडंबना
नूतन लाल साहू
डा. राम कुमार झा निकुंज
दिनांकः १८.१२.२०२०
दिवसः शुक्रवार
विधाः गीत
शीर्षकः 👰सँजोए सजन मन❤️
अज़ब खूबसूरत , नज़ाकत तुम्हारी।
नशीली इबादत , मुख मुस्कान तेरी।
कजरारी आँखें , मधुशाला सुरीली।
लहराती जुल्फें , बनी एक पहेली।
गालें गुलाबी , गज़ब सी ये लाली।
चंचल वदन चारु , लटकी कानबाली।
दिली प्रीति मन में,नटखटी तू लजायी।
मुहब्बत नशा ये , ख़ुद मुखरा सजायी।
संजोए सजन मन , बयां करती जवानी।
कयामत ख़ुदा की , मदमाती रवानी।
अनोखी परी तू , निराली दीवानी।
कयामत ख़ुदा की , मदमाती रवानी।
खिलो जिंदगी में,महकती कमलिनी सी।
निशि की नशा बन, हँसती चाँदनी सी।
पूजा तू अर्चन , चाहत जिंदगी की।
रुख़्सार गुल्फ़ाम ,चाहत प्रिय मिलन की।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नई दिल्ली
डा. राम कुमार झा निकुंज
दिनांकः १९.१२.२०२०
दिवसः शुक्रवार
विधाः गीत
शीर्षकः दर्दिल ए दास्तां
दर्द की इन गहराईयों में ,
हैं दफ़न कितने ही जख़्म मेरे।
है अहसास झेले सितमों कहर,
बस ज़नाज़ा साथ होंगे दफ़न मेरे।
थे लुटाए ख़ुद आसियाँ अपने,
गुज़रे इम्तिहां बेवक्त सारे।
सहकर ज़िल्लतें अपनों के ज़ख्म,
दूर सभी बदनसीबी जब खड़े।
किसको कहूँ अपनी जिंदगी में,
पहले पराये वे आज अपने।
लालच में दोस्त बन रचते फ़िजां,
गढ़ मंजिलें ख़ुद सुनहरे सपने।
किसे दर्दिल सुनाऊँ दास्तां ये,
शर्मसार दिली इन्सान मेरे।
खड़े न्याय अन्याय बन सारथी,
उपहास बस अहसास जिंदगी के।
हैं असहज दिए दर्द अपनों के,
विषैले बन कँटीले दिल चुभते।
दुर्दान्ती ढाहते विश्वास निज,
स्वार्थी ईमान ख़ुद वे भींदते।
कितनी ही कालिमा हो दर्द के,
हो ज़मीर ईमान ख़ुद पास मेरे।
सत्पथ संघर्षरत रह नित अटल,
अमर यश परमार्थ जीवन्त सपने।
आदत विद्वेष की घायल करेंगे,
साहसी धीरता आहत सहेंगे।
तिरोहित होगें सब तार दिल के,
राही दिलदार बन सुदृढ़ बढ़ेंगे।
त्रासदी व वेदना हर टीस ये,
आत्मनिर्भर संबलित सुपथ बढ़ेंगे।
पहचान हों अपने पराये स्वतः,
सुखद खुशियों के फूलें खिलेंगे।
अहसास दिलों में हैं शिकवे,
हर नासूर ज़ख्म दिल दफ़न किए।
कुछ कर्तव्य वतन अनुभूति हृदय,
खुश रहे खली बस,हर जहर पिए।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नई दिल्ली
डा0 रामबली मिश्र
*प्रेम और आँसू (सजल)*
प्रेम और आँसू का बहना।
दोनों को संयोग समझना।।
कोई नहीं बड़ा या छोटा।
विधि का इसे विधान जानना।।
प्रेम बुलाता है आँसू को।
बिन आँसू के प्रेम न करना।।
आँसू नहीं अगर आँखों में।
होता नहीं प्रेम का बहना।।
जिसने प्रेम किया वह रोया।
इसको शाश्वत नियम समझना।।
आँसू से ही प्रेम पनपता।
आँसू लिये संग में चलना।।
आँसू है तो दुनिया तेरी।
बिन आँसू के सब कुछ सपना।।
आँसू बिना प्रेम घातक है।
इसे प्रेम का मर्म समझना।।
प्रेम हॄदय का शुद्ध विषय है।
यह कोमल मधु क्षेत्र परगना।।
कोमल मन-उर में शीतलता।
हृदय देश से जल का बहना।।
प्रेम गंग सागर अति निर्मल।।
बनकर आँसू चक्षु से बहना।।
चक्षु क्षेत्र गंगा सागर तट।
प्रेम-अश्रु की धार समझना।।
प्रेम-अश्रु का जहँ अभाव है।
उसको दानव देश समझना।।
बड़े भाग्य से आँसू बहता।
जग की चाह प्रेम का झरना।।
झरने से आँसू की बूँदों।
का हो नित्य प्रेमवत झरना।।
रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
*हुआ प्रेम...*
हुआ प्रेम नियमित जरा धीरे-धीरे।
बहकता गया मन बहुत धीरे-धीरे।।
भरने लगीं कल्पना की उड़ानें।
उड़ता गया मैं जरा धीरे-धीरे।।
फिसलता रहा पग संभलता रहा भी।
पिघलता रहा दिल जरा धीरे-धीरे।।
बनकर दीवाना चला तोड़ बंधन।
सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ा धीरे-धीरे।।
रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
कालिका प्रसाद सोमवाल
*हे मां शारदे कृपा करो*
******************
आरती वीणा पाणी की
जयति जय विद्यादानी की,
तू ही जमीं तू ही आसमां है
आबाद तुझसे सारा जहां है।
शीश पर शुभ्र मुकुट धारण
क्रीट कुंडल मन को मोहे,
मेरे उर में ज्ञान की ज्योति जगा दो मां
और सद् बुद्धि का मुझे दान दे दो मां
हे मां शारदे
लिए हाथ में पुस्तक और माला,
तू स्वर की देवी है संगीत की भंडार हो
हर शब्द तेरा हर गीत तुझमें है।
हे मां वीणा धारणी वरदे
हम है अकेले हम है अधूरे,
अपनी कृपा से हमें तार दो
तू ही जमीं हो तू ही आसमां हो।
हे मां शारदे
आबाद तुझसे सारा जहां है,
हो जाय मुझसे कोई भूल
मां मुझ दीन पर दया करना ।।
******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड
नूतन लाल साहू
आत्मविश्वास
क्या लुटेगा जमाना
खुशियों को हमारी
हम तो खुद अपनी खुशियां
दूसरों पर लूटा कर जीते हैं
कर्म ही हमारा भाग्य हैं
कर्म ही है सबका भगवान
समय देखकर कर्म करे तो
होगा मानव का कल्याण
हर मानव है अर्जुन यहां
परम आत्मा है श्री कृष्ण
आत्म ज्ञान से ही हल हुआ है
मन के सारे प्रश्न
क्या लुटेगा जमाना
खुशियों को हमारी
हम तो खुद अपनी खुशियां
दूसरों पर लूटा कर जीते हैं
जो बीता सो बीत गया
सहले होकर मौन
बार बार क्यों भूत को
करता है तू याद
जो जीते हैं आज में
उसके सर पर हैं,खुशियों की ताज
जो भी करता है,ईश्वर
उसमें रख संतोष
उनसे पंगा लिया तो
खो बैठोगे होश
जब तक मन में अहम है
नहीं मिलेंगे भगवान
जिसने जाना स्वयं को
वहीं है सच्चा इंसान
क्या लुटेगा जमाना
खुशियों को हमारी
हम तो खुद अपनी खुशियां
दूसरों पर लूटा कर जीते है
नूतन लाल साहू
डॉ० रामबली मिश्र
*चोरों की बस्ती में...(ग़ज़ल)*
चोरों की बस्ती में घर ले लिया है।
संकट को न्योता स्वयं दे दिया है।।
नहीं जानता था ये चोरकट हैं इतने।
पसीना बहाकर लहू दे दिया है।।
पूछा न समझा कि बस्ती है कैसी?
अज्ञानता में ये क्या कर दिया है??
दमड़ी की हड़िया भी लेनी अगर है।
मानव ने ठोका ,बजाकर लिया है।।
हुई चूक कैसे नहीं कुछ पता है।
बिना जाने कैसे ये क्या हो गया है??
पछतावा होता बहुत है समझ कर।
पछतावा से किसको क्या मिल गया है??
उड़ी चैन की नींद दिन-रैन जगना।
चोरों से बचना कठिन हो गया है।।
क्या-क्या करे बंद कमरे के भीतर।
बाहर का सब चट-सफा हो गया है।।
झाड़ू तक बचती नहीं यदि है बाहर।
गैया का गोबर दफा हो गया है।।
चोरों की बस्ती का मत पूछ हालत।
अपना है उतना ही जो बच गया है।।
रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-18
अंगद सुनि रावन कै बचना।
हँसा होय अति हरषित बदना।।
पकरउ धाइ कपिन्ह अरु भालू।
खावहु तिनहिं न होउ दयालू।।
करउ सकल भुइँ कपिन्ह बिहीना।
जाइ करउ सेना-बल छीना ।।
लाउ पकरि तापसु दोउ भाई।
नहिं त होइ अब मोर हँसाई।।
कह सकोप तब बालि-कुमारा।
सुनहु अधम-खल,बिनू अचारा।।
तुम्ह मतिमंद काल-बस भयऊ।
डींग न हाकहु बहु कछु कहऊ।।
एकर फल तुम्ह पइबो तबहीं।
जबहिं चपेटिहैं बानर तुमहीं।।
तुम्ह कामी-पथभ्रष्ट-निलज्जा।
नर प्रभु कहत न आवै लज्जा।।
जदि आयसु पाऊँ रघुनाथा।
दाँत तोरि फोरहुँ तव माथा।।
राम-बान तरसहिं तव रुधिरा।
यहिं तें तुम्ह छोडहुँ कनबहिरा।।
सुनि अस तब रावन मुस्काना।
कह लबार तुम्ह हो मैं जाना।।
तव पितु बालि कबहुँ नहिं कहऊ।
जस तुम्ह कह तापसु मिलि अजऊ।।
मोंहि कहसु लबार-बातूनी।
पटकहुँ अबहिं पकरि तव चूनी।।
तब प्रभु राम सुमिरि पद धरऊ।
सभा-मध्य अंगद अस कहऊ।।
जदि कोउ टारि सकत पद मोरा।
तजहुँ सीय मम बचन कठोरा।।
छाँड़ि सियहिं यहिं पै मैं फिरहूँ।
तुरत पुरी तिहार मैं तजहूँ ।।
रावन तब तुरतहिं ललकारा।
लइ-लइ नामहिं भटन्ह पुकारा।
मेघनाद समेत बलवाना।
सके न टारि भटहिं बहु नाना।।
दोहा-सके न टारि अंगद-चरन, सुर-रिपु,निसिचर जाति।
नहिं उपारि बिषयी सकहिं,मोह-बिटपु केहु भाँति।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
एस के कपूर श्री हंस
*।।रचना शीर्षक।।*
*।।डूबती नाव यूँ संभाल ली*
*मैंने।। बिगड़ी जिन्दगी यूँ संवार*
*ली मैंने।।*
जिन्दगी कुछ ऐसी चली कि
सारे सवाल बदल डाले।
फिर वक्त की आंधी ने सारे
ही जवाब बदल डाले।।
हमनें भी डाल दिया लंगर
तूफानों के बीच में।
हौसलों ने सारे हमारे बुरे
हालात बदल डाले।।
जिन्दगी जो शेष थी उसे
हमनें विशेष बनाया।
निष्क्रियता का जीवन में
अवशेष मिटाया।।
केवल कर्म की सक्रियता
को अपनाया हमनें।
घृणा, ईर्ष्या, राग, विद्वेष
को हमनें दूर भगाया।।
जीवन में फूल ही बस चुने
काँटों को निकाल कर।
हर संतुलन को तोला हमनें
बांटों को निकाल कर।।
जिन्दगी को सवाल नहीं
जवाब बनाया हमनें।
प्रेम बगिया बनाया मन से
चांटों को निकाल कर।।
चमत्कार से विश्वास नहीं पर
विश्वास से चमत्कार करा।
झुका कर आसमाँ को भी
नतीज़ों का इंतज़ार करा।।
धैर्य और परिश्रम से धुंधली
तस्वीर में रंग भरा नया।
हारी हुईं बाज़ी पर भी हमनें
जीत का अख्तियार करा।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।।।*
मोब।। 9897071046
821868 5464
डा. नीलम
*शीत दिवस*
भोर कोहरे से ढकी
शीत की लरजन लिए
दे रही संदेश जागो
ढल गई है रात प्रिय
क्या हुआ जो सूरज के
चूल्हे की आंच मद्धम रही
अंधेरी रात तो फिर भी
पटल से सरकती रही
रात भर ओस बरसात-सी
बरसती रही
ठिठुरते चमन में कलियां फिर भी महकती रहीं
बरफ के देश से बहकर
हवाएं आती रहीं
भेदकर दीवारें भित्तियों को
थर्राती रहीं
क्या हुआ गर मौसम में
आग नहीं
कर कसरत के जिस्म में तो आग रही
क्या हुआ जो.......
डा. नीलम
विनय साग़र जायसवाल
ग़ज़ल
ग़ैर से तू मिला नहीं होता
यह तेरा फ़ैसला नहीं होता
साक़िया क्यों तुम्हारी महफ़िल में
जाम मुझको अता नहीं होता
जाम पीता मैं आज जी भर के
सामने पारसा नहीं होता
जब भी आती हैं मुश्किलें यारो
कोई मुश्किलकुशा नहीं होता
उसको शादी कहूँ मुबारक हो
मुझसे यह हक़ अदा नहीं होता
माँग भरता ख़ुशी ख़ुशी तेरी
गर मैं शादीशुदा नहीं होता
मेरी तन्हाई में कभी *साग़र*
कोई तेरे सिवा नहीं होता
🖋️विनय साग़र जायसवाल
17/12/2020
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
ग़ज़ल
धीरे-धीरे
हुआ इश्क़ का जब असर धीरे-धीरे।
गयी सध ग़ज़ल की बहर धीरे-धीरे।।
नहीं काटे कटतीं थीं अब तक जो रातें।
लगीं उनकी होने सहर धीरे-धीरे।।
गगन में सितारे जो लगते थे धूमिल।
गयी ज्योति उनकी निखर धीरे-धीरे।।
तकदीर मेरी जो बिगड़ी थी अब-तक।
गयी पा उन्हें अब सँवर धीरे-धीरे।।
रहा प्यार अब-तक जो गुमनाम मेरा।
बनी उसकी अच्छी ख़बर धीरे-धीरे।।
बढ़ा इश्क़ का अब असर इस क़दर के।
सभी गाँव होंगे,नगर धीरे-धीरे।।
मलिन बस्तियों की जो दुर्गति थी होती।
जाएगी दशा अब सुधर धीरे-धीरे।।
अगर दीप प्यारा यूँ जलता रहेगा।
जाएगा ये तूफाँ ठहर धीरे-धीरे।।
© डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
गीत(16/14)
लक्ष्य सदा रखना शिखरों पर,
और कहीं मत ध्यान रहे।
मंज़िल जब भी मिल जाती है-
तन-मन में न थकान रहे।।
एक बार जब बढ़ें कदम तो,
कभी नहीं पथ पर रुकते।
वीर-धीर जन बढ़ते-रहते,
कभी न पा संकट झुकते।
जब आते तूफ़ान राह में-
उनके दिल चट्टान रहे।।
तन-मन में न थकान रहे।।
संकट देते साथ सदा ही,
यदि मन में उत्साह रहे।
शोभा देती वह सरिता ही,
जिसमें सतत प्रवाह रहे।
सिंधु-पार कर जाता नाविक-
यदि ऊँचा अरमान रहे।।
तन-मन में न थकान रहे।।
चले पथिक यदि लक्ष्य साध कर,
मंज़िल स्वागत करती है।
क़ुदरत की तूफ़ानी ताक़त-
मधु फल आगत जनती है।
जंगल में भी मंगल होता-
यदि मन में श्रमदान रहे।।
तन-मन में न थकान रहे।।
अर्जुन सदृश लक्ष्य रख पथ पर,
सतत पथिक बढ़ते रहना।
दिन हो चाहे रात अँधेरी,
स्वप्न सदा गढ़ते रहना।
जो अर्जुन सा है संकल्पित-
उसका जग में मान रहे।।
तन-मन में न थकान रहे।।
कंटक बिछीं भले हों राहें,
तो भी विचलित मत होना।
रहें धुंध से भरी दिशाएँ,
फिर भी धीरज मत खोना।
जो ख़तरों का करे सामना-
उसका ही गुणगान रहे।।
मंज़िल जब भी मिल जाती है-
तन-मन में न थकान रहे।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
निशा अतुल्य
डॉक्टर
18.12.2020
नब्ज़ मेरी जरा देखो डॉक्टर
लगता मुझे बुखार चढ़ा
माथा मेरा ठंडा बहुत है
पर जाड़ा चढ़ता लगता ।
एक बुखार कोरोना का है
सांस सांस पर भारी है
घर से निकलते डर लगता है
कैसी ये बीमारी है ।
कुछ तुम को जो समझ में आया
तो हमको बतलाओ जरा
दुविधा में जीवन भारी है
सिर से पांव तक रहूँ ढँका ।
साँस न अब आती है मुझको
मुँह नाक कब तक रखूं ढका
कोरोना से मिलें कब छुट्टी
मन मेरा ये सोच रहा ।
कोरोना के चक्कर में ही
जीना मुश्किल हुआ मेरा ।
स्वरचित
निशा"अतुल्य"
सुनीता असीम
वो हुआ क्यूं नहीं हमारा भी।
जबकि हमने किया इशारा भी।
*****
छोड़कर वो चला गया हमको।
कर्ज दिल का नहीं उतारा भी।
*****
कुछ बला की रही अकड़ उनमें।
वापसी में नहीं निहारा भी।
*****
वो हमें क्यूँ नहीं समझते हैं।
उन बिना है नहीं गुजारा भी।
*****
दिल नहीं ले रहे न ही देते।
उनसे कैसे करें ख़सारा भी।
*****
इक अरज कर रही सुनीता है।
कृष्ण दे दो ज़रा सहारा भी।
*****
सुनीता असीम
डॉ0 रामबली मिश्र
*प्रेम मिलन... (सजल)*
प्रेम मिलन का सुंदर अवसर।
मंद बुद्धि खो देती अक्सर।।
प्रेम पताका जो ले चलता।
पाता वही प्रेम का अवसर।।
उत्तम बुद्धि प्रेम के लायक।
बुद्धिहीन को नहीं मयस्सर।।
भाव प्रधान मनुज अति प्रेमी।
भावरहित मानव अप्रियतर।।
रहता प्रेम विवेकपुरम में।
सद्विवेक नर अतिशय प्रियवर।।
प्रेमातुर नर अति बड़ भागी।
पाता दिव्य प्रेम का तरुवर।।
प्रेम दीवाना सदा सुहाना।
प्रेमपूर्ण भाव अति सुंदर।।
जिसका दिल अति वृहद विशाला।
वही सरस मन प्रेम समंदर।।
जिसका मन विशुद्ध हितकारी।
उसको मिलता प्रेम उच्चतर।।
प्रेम मिलन अतिशय सुखदायी।
समझो दिव्य प्रेम जिमि ईश्वर।।
डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
डॉ0 निर्मला शर्मा
प्रेरणा
इस जगत का निर्माण
मानव में डाले प्राण
अनुपम रची रचना
सृष्टि का किया विधान
वह प्रेरणा ही तो थी, जो
बन ईश का आधार
चराचर रूप साकार
नवनिर्मित यह पृथ्वी
बिखराती चहुँ दिसि
जीवन का उल्लास
धरती और आकाश
चाँद-तारों का प्रकाश
जीवन में नवल प्रभात
वह प्रेरणा ही तो थी, जो
बुने सपनों के पल खास
कराये हर रस का अभास
प्रसन्नता से नाचे मनमोर
लेकर नवरस मधुमास
सृजन हो जब सादृश्य
परिवर्तित हो हर दृश्य
चलता अनुक्रम अविरल
पीता जब कोई गरल
मंथन मथनी का साथ
करता है नव शुरुआत
सब बनता जाता सरल
प्रेरणा हो अगर मंजुल
सकारात्मक बनते भाव
सत्यम शिवम का अनुराग
जगाता सात्विक अनुभाव
हो आनन्दमगन संसार
डॉ0 निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान
डा.नीलम
*प्यार की सौगात*
देकर प्यार की सौगात
आंख में आंसू दे गए
साजन मेरे मुझसे मेरा
चैन ओ' करार ले गए
हवाओं को दी आजादी
मेरे ख्वाब बंधक कर गए
प्रीत-रीत की दे दुहाई
मासूम दिल हमारा ले गए
नेह की है बदली छाई
मनाकाश पर कजरारी
घन गर्जन सी धड़कनों
की सौगात प्रियतम दे गए
रातों की तन्हाई में सजा
मदहोश ख्वाबों का बाजार
सिरहानों को रात भर जागने
की नशीली सजा साजन दे गए
मिली निगाहें जब से निगाहों से
उतर कर रुह रुह में संवर गई
तन मन की सुध नहीं रही मुझे
रुहानी सफर पर मितवा मुझे ले गए
देकर प्यार की ................
डा.नीलम
दयानन्द त्रिपाठी दया
चाय पर दोहा
सर्दी की छायी घटा, उर से निकली हाय।
आनी-बानी ना पियो, चलो पिलायें चाय।।
अन-पानी आहार है, भूखा स्वाद संग नहीं जाय।
माधव का दीदार करो, घूंट-घूंट पियो चाय।।
जिह्वा कर्म दुराचरी, तीनों गृहस्थ में त्याग।
चाय पिलाओ खुद पियो, जब तक लगे न आग।।
मांस-मांस सब एक हैं, मुर्गी, हिरनी, गाय।
साधु संत फकिरीया, पीते गरम-गरम ही चाय।।
सर्दी चढ़ी है जोर से, गलत कहूं क्या राय।
मैडम तेरे हाथ की, मस्त बनी है चाय।।
अमली हो बहु पाप से, समुझत नहीं है भाय।
दुर्व्यसनों को त्याग के, सुबह - शाम लो चाय।।
सांच कहूं तो मारि हैं, झूठ कहूं तो विश्वास।
जो प्राणी ना चाय पिये, पछिताये संग बास।।
सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
चाय पियन को जुटत हैं, राजा रंक संग बाप।।
गरम पकौड़ी छान रही, भाग्यवान संग चाय।
सर्दी मौसम संग डार्लिंग, मन को बड़ी सुहाय।।
भई कोरोना बावरी, कहां फंसी मैं हाय।
अदरक तुलसी गिलोइया, डाल पिये सब चाय।।
सांस चैन की ले रहे, वैक्सीन मिले हैं भाय।
दया कहे पुरजोर से, अभी पियत रहो ही चाय।।
जो किस्मत के हैं धनी, जिनके घर में माय।
मां के हाथों से मिले, किस्मत वाली चाय।।
-दयानन्द_त्रिपाठी_दया
डॉ0हरि नाथ मिश्र
*शीत-ऋतु*(दोहे)
जाड़े की ऋतु आ गई,जलने लगे अलाव।
ओढ़े अपना ओढ़ना,करते सभी बचाव।।
होती है यह शीत-ऋतु,अनुपम और अनूप।
इसकी महिमा क्या कहें,रुचिर लगे रवि-धूप।।
परम सुहाने सब लगें,खेत फसल-भरपूर।
चना संग गेहूँ-मटर, शोभित महि का नूर।।
शीत-लहर आते लगें,यद्यपि लोग उदास।
फिर भी रहते हैं मुदित,ले वसंत की आस।।
गर्मी-पावस-शीत-ऋतु,हैं जीवन-आधार।
विगत शीत-ऋतु पुनि जगत,आए मस्त बहार।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
डॉ0हरि नाथ मिश्र
*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-17
सुनि रावन-मुख प्रभु-अपमाना।
भवा क्रुद्ध अंगद बलवाना।।
सुनै जे निंदा रामहिं ध्याना।
पापी-मूढ़ होय अग्याना।।
कटकटाइ पटका कपि कुंजर।
भुइँ पे दोउ भुज तुरत धुरंधर।।
डगमगाय तब धरनी लागे।
ढुलमुल होत सभासद भागे।।
बहन लगी मारुत जनु बेगहिं।
रावन-मुकुटहिं इत-उत फेंकहिं।।
पवन बेगि रावन भुइँ गिरऊ।
तासु मुकुट खंडित हो परऊ।।
कछुक उठाइ रावन सिर धरा।
कछुक लुढ़क अंगद-पद पसरा।।
अंगद तिनहिं राम पहँ झटका।
तिनहिं उछारि देइ बहु फटका।।
आवत तिनहिं देखि कपि भागहिं।
उल्का-पात दिनहिं जनु लागहिं।।
बज्र-बान जनु रावन छोड़ा।
भेजा तिनहिं इधर मुख मोड़ा।।
अस अनुमान करन कपि लागे।
तब प्रभु बिहँसि जाइ तिन्ह आगे।।
कह नहिं कोऊ राहू-केतू।
रावन-बानन्ह नहिं संकेतू।।
रावन-मुकुटहिं अंगद फेंका।
कौतुक बस तुम्ह जान अनेका।।
तब हनुमत झट उछरि-लपकि के।
धरे निकट प्रभु तिन्ह गहि-गहि के।।
कौतुक जानि लखहिं कपि-भालू।
रबी-प्रकास मानि हर्षालू।।
दोहा-रावन सबहिं बुलाइ के,कह कपि पकरउ धाइ।
पकरि ताहि तुमहीं सबन्ह,मारउ अबहिं गिराइ।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
कालिका प्रसाद सेमवाल
*मां विद्या विनय दायिनी*
********************
वर दे मां सरस्वती वर दे
इतना सा वर मां मुझको देना,
कंठ स्वर मृदुल हो तेरा गुणगान करु,
जन-जन का मैं आशीष पाऊं
सब के लिए मां मैं मंगल गीत गाऊं
मां विद्या विनय दायिनी।
दीन दुखियों की मैं सेवा करुं
प्रेम सबसे करुं छोटा या बड़ा हो,
दृढ़ता से कर्तव्य का मैं पालन करुं
हाथ जोड़ कर मैं नित तेरी वंदना करुं
बस नित यही अर्चना मां तुम से करु
मां विद्या विनय दायिनी।
मां सरस्वती स्वर दायिनी
दे ज्ञान विमल ज्ञानेश्वरी
तू हमेशा सद् मार्ग बता मातेश्वरी,
तेरी कृपा सभी पर रहे परमेश्वरी
भारत मां की स्तुति नित करता रहूं
बस यही भाव हर भारतीय में रहे।।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड
राजेंद्र रायपुरी
😄 गुज़ारिश नये साल से 😄
आओ आओ, जल्दी आओ।
नए साल तुम खुशियाॅ॑ लाओ।
बैठे हैं सब इंतजार में,
और नहीं तुम देर लगाओ।
आशा सबकी जब आओगे,
खुशियाॅ॑ ढेर साथ लाओगे।
विपदा ये जो सता रही है,
उसे दूर तुम कर पाओगे।
साॅ॑स चैन की लेंगे सारे।
रही न विपदा पास हमारे।
गूॅ॑जेंगे फिर जग में मानो,
नए साल के ही जयकारे।
अगवानी को आतुर हम हैं।
दिन भी बचे बहुत अब कम हैं।
आ जाओ तुम जल्दी भाई।
बीसे की हो सके बिदाई।
इसने तो है खूब सताया।
नहीं किसी को जग में भाया।
कैसे भाता तुम ही बोलो,
साथ यही था विपदा लाया।
।। राजेंद्र रायपुरी।।
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