आज साहित्य साधक (अखिल भारतीय साहित्यिक मंच) के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कृष्ण कुमार क्रांति जी द्वारा डॉ. राजश्री तिरवीर जी बेलगांव, कर्नाटक निवासी ,मराठा मंडल कला और वाणिज्य महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापिका,कर्नाटक से हिंदी में एम.ए, पी.एच डी, स्लेट , डी.लिट, एम. ए में उत्कृष्ट अंक प्राप्त करने के उपलक्ष्य में कर्नाटक विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक प्राप्त को साहित्य साधक अखिल भारतीय साहित्यिक मंच का कर्नाटक राज्य प्रभारी बनाया गया। वर्तमान में डॉ. राणा जयराम सिंह 'प्रताप',राष्ट्रीय संरक्षक; सपना सक्सेना दत्ता एवं डॉ. शारदाचरण,राष्ट्रीय सलाहकार; उदय नारायण सिंह एवं माधुरी डड़सेना 'मुदिता' राष्ट्रीय उपाध्यक्ष; शशिकांत शशि,राष्ट्रीय महासचिव एवं दिनेश कुमार पाण्डेय, राष्ट्रीय सचिव; सियाराम यादव 'मयंक', राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष; अमर सिंह निधि, राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी एवं अमन आर्या,सह मीडिया प्रभारी; वशिष्ठ प्रसाद,राष्ट्रीय कार्यालय सचिव के साथ संजय श्रीवास्तव,बिहार राज्य प्रभारी; पूनम देवी,उत्तर प्रदेश राज्य प्रभारी; संतोष अग्रवाल,मध्य प्रदेश राज्य प्रभारी; रूपा व्यास,राजस्थान राज्य प्रभारी; सरला कुमारी,हरियाणा राज्य प्रभारी; विनोद कश्यप,पंजाब राज्य प्रभारी; राधा तिवारी 'राधेगोपाल', उत्तराखंड राज्य प्रभारी; डॉ. लता, दिल्ली राज्य प्रभारी; प्रियंका साव, बंगाल राज्य प्रभारी;जितेंद्र कुमार वर्मा, छत्तीसगढ़ राज्य प्रभारी एवं अनूप शर्मा,असम राज्य प्रभारी द्वारा कर्नाटक राज्य प्रभारी डॉ. तिरवीर जी को शुभकामनाएं प्रेषित की गई। इसके साथ ही साहित्य साधक मंच के रेखा कापसे जी, सुरंजना पाण्डेय जी सहित सभी सदस्यों ने डॉ.राजश्री तिरवीर को कर्नाटक राज्य प्रभारी बनने के शुभकामनाएं प्रेषित की।
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार अंजना चोटाई मुम्बई
नाम:अंजना चोटाई
प्लेस: अलीबाग
एज्युकेशन: बी.कोम
9595750785
❄️चांद❄️
🌙
मेरी छत पर आज, चांद नजर आया ।
खुला आसमान, रोशनी से जगमगाया।
कभी बादलों में छुपता, जैसे,
बुरके में छिप रहा नजर आया।
चांद भी क्या खुब है , कैसा शीतल तेज ले आया।
ना सर पे कोई घूंघट,
ना शर्मीली अदा,
ये कैसा रुप लिये,
धरती पर उतर आया।
दुल्हन-सी सजी,
हर सुहागिन के जीवन में,
खुशियाँ और उमंग भर लाया।
आज दिल खोल के शीतलता लिए अपनी
मघुर गरिमा के साथ,
पति-पत्नी के प्यार में आज,
फिर से बसंत ले आया।
करवाचौथ का हो
शरदपूणिॅमा का हो या चांद हो ईद का भले ही, हर दिन हर पल देख के तुझे,
दिलों में हर धडी
आनंद-ही-आनंद छाया।
अंजना चोटाई
अलीबाग
४/११/२०२०
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💥नशा💥
नशा ऐसा हो जाये सांवरिया
तेरे ही रंग में रंग जाऊं।
तेरी ही बंसी की धुन में खो जाऊं।
तेरी ही भक्ति में डुब जाऊं ।
तेरी ही शरण में लिन हो जाऊं।
बस तेरे ही गून गाऊं तल्लिन हो जाऊं।
तेरे नैनों में बस जाऊं।
तेरी नज़रों में समां जाऊं ।
भले बूरे का भेद न जानु,
सम दृष्टि के भाव लीए,
सब के दिल में तेरी ही छबि पाऊं।
जन -जन में कण-कण में बस तुजे ही में पाऊं।
संसार के बिच रहकर भी
मैं तुज संग प्रीत लगाऊं।
तेरी-मेरी प्रीत की रित अनोखी
ये बात में किसीको ना समझा पाऊं।
हे गिरीधर, मुरलिधर तेरे दर्शन की आश है, मैं कैसे तुज को पाऊं?
मेरे श्याम सुंदर कब तेरे संग मैं रास रचाऊं?
सारा जीवन तुझे पाने को
विरह के नशेंमें तड़पाऊं।
तेरी ही प्रतीक्षा में बस मैं जीवन बिताऊ।
अंजना चोटाई
अलीबाग
महाराष्ट्र
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रंग🌈
दुनिया के है रंग बहुत,कई सारे
जीवन है सुख-दुख का मेला और सतरंगी रंगों का घेरा।
देखने को हमें यहां मिलते रोज ही विविध रंग
कभी हसी-खुशी के हंसते लहराते खुशियां बिखेरते प्यारे रंग।
तो कभी ग़म के अंधेरो में डुबे दुखी अरमानों के रंग।
कभी जीत की खुशी के रंग
कभी हार की निराशा के रंग।
मन के भी तो है कितने रंग, प्रियतम के याद में डुबे प्यार का रंग
तो कभी विरह में छलके आंसुओं का बेरंगी रंग।
ये रंगों की लंबी परिभाषा
इन रंगों पर लिखने बैठो
तो कई रंग मिल जाते हैं,
शब्दों के रंग,भावों के रंग
खट्टी-मीठी बातों का रंग
सच्ची- झूठी तकरारों के रंग
दुनियादारी के ये रंग बहुत है,
रंगों की है ये जो गाथा । धरती के सारे रंग निराले
नीला,पीला,हरा,लाल,गुलाबी सब नशीला
होली की खुशियों से जीवन बने
रंगीला
अंजना चोटाई
अलीबाग
महाराष्ट्र
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🌻बसंत🌻
सुंदर रंगोसे सजी धरा बसंत के वैभवको चूमें सृष्टि नवजीवन मदमस्ती में झूमे। प्रक्रृति नवपल्लवीत सुशोभित रूपयौवन सी
जीवसृष्टि दिसे मनमोहित सुंदर प्रफफुलित। धरती निखरी सजी दुल्हन सी हरी-भरी ओढीं पीली चूनर।
ताज़गी से भरी हवाओं में लहराये
जैसे की नव- यौवन सी मस्ती में डोले।
बसंत की मनमोहीनी लहरें संग, नवयौवन के तन-मन हर्षे
पियां मिलन कि आश में बेचैन दिल तरसे।
पिया मिलन को मन में छाई है उदासी
में पियां बहावरी पिया मिलन कीं प्यासी।
अंजना चोटाई
अलीबाग
महाराष्ट्र
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💦ओस की बूंदें💦
टपकती ओस की बूंदें पतों से ऐसी
चमकती नाजुक मोती जैसी।
अपनी शितल ठंड की अहसास दे जाती
ठहरती नहीं ज्यादा उन डाली, फुलों, पतों पर , वो बह जाती
जैसे की मिट्टी की खुश्बू इन्हें है याद आती।
सुरज की किरणों से जैसै वो नम हो जाती
वो धूल, मिट्टी में मिल के
खुद को जैसे कुरबान कर जाती।
सोचती हूं उठाकर रखलुं इसे किंमती रत्नों की तरह अपने पास
पर देखते ही देखते आंखों से ओझल हो जाती
ये ओस की बूंदें।
अंजना चोटाई
अलीबाग
महाराष्ट्र
काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार ,प्रकाश दान बिजेरी
कवि परिचय
कवि का नाम - चारण प्रकाश दैथा
पिताजी - मुरार दान
गांव - बिजेरी
जिला - बीकानेर
राज्य - राजस्थान
रूचि - अनुभवों को कविताओं में ढालना
मोबाइल - 7665361178
8824153095
शीर्षक 1 पीड़ा पति की
शुरू शुरू के दौर में पतिदेव कहलाए थे ।
कुछ दिनों के बाद में जूते चंपल भी खाए थे ।।
जब समय शुरुआती का था तो घर भी उसने सजाया ।
कुछ दिनों के बाद में झाड़ू पौचा भी लगवाया ।।
एक दिन थे जब मैं देव तुल्य पूजा था।
कुछ समय के बाद मैं बहुत जोर से धुजा था ।।
बहुत खुश था पहले जब मां ने खाना खिलाया था ।
उठ गया लड्डू मन में शादी का उसी ने मुझे रुलाया था ।।
याद है वह दिन जब पेंट शर्ट उसने भी धोया था ।
फिर दौर एक ऐसा आया मन ही मन रोया था ।।
सलाह बहुत दी साथियों ने मत करना तू शादी ।
मुझे क्या पता कि होगी इतनी बर्बादी ।।
शिर्षक -2 किस्से कलयुग के
खाने-पीने और जमाने की कोई जान नहीं ।
उठने बैठने पहनावे का कोई ज्ञान नहीं।।
धोती कुर्ते साड़ी भूल गई सब गहने।
रंग रलिया में फिरते हैं फटी जिन्से पहने ।।
घर बैठकर बापू के देशी खाना भूल गए ।
महफिल जमाए दोस्तों में चाऊमीन बर्गर पर झूल गए ।।
सिनेमाओं का चस्का कर गया बर्बाद में ।
जब खुद कमाने पड़े तब बापू आया याद में ।।
फटी धोती पहने बापू बोए खेतों में जीरा ।
महंगी जिनसे पहन समझे सब अपने को हीरा ।।
बंडल उठाए चारे का जाए बापू लाडी में ।
बीवी के संग बैठ बेटा घुमे महंगी गाड़ी में ।।
मां बाप अपनी इज्जत देते इनके हाथ में ।
रंग रलिया मना रहे हैं हुस्न वालों के साथ में ।।
शिर्षक 3- नारी
चौखी कोनी लागे मने इण दुनिया री रीत ।
सगला स्यु ज्यादा हुई मने म्हारे बालम सु प्रीत ।।
दुनिया री रीत रे कारणे घर पापा रो छोड़ियो ।
घर बसावण बालम रो मैं लाल ओढ़णो ओढ़ियो ।।
खूब मेहनत करू हुं मैं कमावण म्हारो नाम ।
चंद लुगाइयां रे कारणे मैं हुई बहुत बदनाम ।।
टाबरा रे कारणे बिगड़ जावे म्हरो चैन ।
जद जावे बालम प्रदेश तब तरसे म्हारा नैण ।।
प्रेम री हुं पुतली सती म्हारो नाम ।
पीयर अने मायके मैं करू घणा हूं काम ।।
ऊनाल्लो हो या वर्षाल्लो हो भले ही सर्द ।
लागे जद म्हारे टाबरा रे घणों होवे मने दर्द ।।
शिर्षक 4-माॅं
माॅं शब्द बहुत छोटा है पर अर्थ बहुत बड़ा है।
माॅं तेरे ही प्यार को मैंने कविता में गड़ा है ।।
याद आती है माॅं तेरी हाथ की जली रोटी की ।
याद आती है माॅं तेरी सुनाई खरी-खोटी की ।।
ऊब गया हूं माॅं मैं इस मैस का खाना खाकर ।
तेरी हाथ की जली रोटी खिला दे माॅं तु यहां आकर ।।
बहुत मिठाइयां मंगवाई माॅं मैंने होटलों पर से ।
मगर उस मिठास की कमी थी जो मिला मुझे तेरे कर से ।।
इश्क और मोहब्बत की रीत मुझे पसंद नहीं ।
माॅं तेरे प्यार सा ना मिला मुझे आनंद कहीं ।।
पसंद ना आई माॅं मुझे यह चमक-दमक सी छात्रावास ।
काश खुदा बना देता कोई तेरे आंचल सा आवास ।।
बेचैन हो जाता हूं अक्सर इस दुनिया की रीतों में ।
शुकुन मिलता है माॅं मुझे तेरे मीठे गीतों में ।।
अक्सर बेचैन हो जाते हैं कुछ लोग रोते-रोते ।
जिनकी माॅं नहीं होती थक जाते हैं वो माॅं की बाट जोते-जोते ।।
शिर्षक 5 - बुरा गया तू बीस
ना जाने किस कदर गुजरा था यह दौर ।
मायूसी छाई थी हमारे चारों और ।।
किस कदर महामारी का रंग तेरे चढ़ गया था ।
यह सब होना वाजिब था कलयुग का स्तर जो बढ़ गया था ।।
पूरी दुनिया में तूने हड़कंप मचा दिया ।
तूने तो अपना इतिहास अलग ही रचा दिया ।।
मंदिर सारे बंद हुए जिन्हें देवालय कहते थे ।
अस्पताल हमारे काम आए जहां चिकित्सक रहते थे ।।
ऐसा लगता था जैसे यमराज स्वयं नीचे आया था ।
जहां भी देखो मातम ही मातम छाया था ।
बैठ गए सब घरों में जैसे पशु को पकड़े जाल ।
या कलयुग का स्तर बढ़ा या थी खुदा की चाल ।।
लगा था चारों ओर सन्नाटा एक के पीछे एक का मरना ।
बस इतनी दुआ है खुदा से दोबारा ऐसा कभी मत करना ।।
2021 के "इंडियास वर्ल्ड रिकॉर्ड में"दर्ज डॉ मीना गोदरे
न्यूज़
इंदौर की साहित्यकार समाज सेवी मीना गोदरे, अवनि क 2021 के "इंडियास वर्ल्ड रिकॉर्ड में"दर्ज किया गया।
यह संस्था देश की प्रतिष्ठित संस्था है जो भारत सरकार द्वारा रजिस्टर्ड , है अंडर इंडियन एक
1882 के तहत, लीगली रजिस्टर्ड "इंडियास वर्ल्ड रिकॉर्डस" के अंतर्गत राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की उन सभी प्रतिभाओं को सम्मानित करती है जो पूरे विश्व में कुछ अलग करने का हौसला रखते हैं और
किसी भी क्षेत्र में अपनी विशेष योग्यता से एक नया कीर्तिमान स्थापित करते हैं।
2021 मैं इंदौर की साहित्यकार समाज सेवी मीना गोदरे का नाम इस रिकार्ड में दर्ज किया गया।
उन्होंने अपनी विशेष उपलब्धि के रूप में भारत की ही नहीं विश्व की प्रथम पुस्तक के रूप में "नव लोकांचल गीत नामक साझा संग्रह कोरोना काल में संकलित व संपादित किया जिसकी योजना उन्होंने स्वयं बनाई और उसे कार्य रूप में परिणित ।
जिसमें पूरे भारत की 40 लोक भाषाओं को गीत और कविताओं के रूप में देवनागरी लिपि में लिखा गया है।
पुस्तक का उद्देश्य भारत की लुप्त होती लोकभाषाओं /बोलियों का संरक्षण और संवर्धन है। क्योंकि यह भारतीय संस्कृति और सभ्यता को पोषित करती हैं।
।दूसरे देशों में भी यह कार्य तीव्र गति से चल रहा है भारत में मीना गोदरे जी ने इसकी एक नए रूप में पहल करके नया कीर्तिमान स्थापित किया है जिसमें सभी रचनाएं मौलिक व नई हैं।
देश के विभिन्न क्षेत्रों के 93 रचनाकारों की 187 रचनाएं भिंन्न भिंन्न लोक भाषाओं में है ,जो हिंदी की पांच उप भाषाओं उसकी 18 बोलियां और 12 बोलियों का प्रतिनिधित्व करती है ।साथ ही चार अन्य भाषाओं की 10 बोलियां भी पुस्तक में है जो भारत की एकता और अखंडता को दर्शा रही है
साहित्य और समाज सेवा में 40 वर्ष तक की कार्य व उपलब्धियों का रिकॉर्ड और नई पुस्तक की विशेषता देखकर उन्हें यह सम्मान दिया गया है ।उनका नाम इंडियास वर्ल्ड रिकॉर्ड में हमेशा दर्ज रहेगा ।
इससे देश ही नहीं महिला समाज का भी सिर गर्व से ऊंचा हो गया है
। इस सम्मान की खुशी में उन्हें अनेकों साहित्य समूह वरिष्ठ साहित्यकारों और मित्रों ने शुभकामनाएं दी है
डा.सुबोध मिश्रा जी नाशिक ,जय भारद्वाज जी हरियाणा ,लक्ष्मी- नारायणजी इंदौर कवि हरीश आचार्य जी राजस्थान
डा. पद्मासिंह इंदौर, हरेराम बाजपेई जी इंदौर ,पत्रकार प्रवीण शर्मा इंदौर जय भारद्वाज तरावड़ी हरियाणा बसंती पवार राजस्थान सनत कुमार जैन छत्तीसगढ़ ,डॉक्टर रंजना फतेहपुर, मधु मिश्रा उड़ीसा, रमाकांत मिश्रा श्यामलाल संस्था, डॉ नरेन्द्र दीपक जी
भोपाल, व्यास जी सूत्रधार संस्था, शिक्षा समन्वयक दामोदर जी इंदौर, पुष्पा रानी गर्ग इंदौर ,विक्रम मुनाली लखनऊ, विजयी भरत हिमाचल, अमृता राजेंद्र छत्तीसगढ़,डा. स्वाति तिवारी लेखिका सघ ,डा. जय कुमार जी जलज, रतलाम ,डा.राजेश भट्ट जी आकाशवाणी भोपाल ,डॉक्टर बुंदेला जी आकाशवाणी सागर, डॉक्टर हरि सिंह पाल आकाशवाणी दिल्ली, डॉ अनीता कपूर अमेरिका, डॉक्टर तेजेंद्र शर्मा लंदन, रेनू गुप्ता नेपाल ,स्वतंत्रता कश्मीर , सरला जैन अध्यक्ष अखिल भारतीय महिला परिषद, प्रभा जैन नाइस चेयर पर्सन, मनोरमा जोशी नवनीत जैन, कल्पना बंडी अर्पणा जोशी ,ज्योति सिंह ,अचला गुप्ता ,प्रभा तिवारी इंदौरआदि अनेक वरिष्ठ साहित्यकार और संस्था अध्यक्ष के अलावा हिंदी सृजन समूह ,अवनि सृजन समूह ,साहित्य कला परिषद, श्यामलम कला ,लायंस क्लब ,वंदे भारत मंच ,अखिल भारतीय मंच ,हिंदी साहित्य सभा ,वूमेंस सद्भावना महिला मंडल ,भोपाल समाज समिति, लेखिका संघ ,एहसास संस्था, हिंदी रक्षक मंच,साहित्य कला ,वीर परिवार बस्तर पाती आदिअनेक समूह के साहित्यकार पदाधिकारियो, मित्रों और रिश्तेदारों में लगभग 500 से अधिक लोगों ने बधाई और शुभकामनाएं दी मीना गोदरे जी इन सब का आभार माना है🙏
मीना गोदरे अवनि ,इंदौर
विनय साग़र जायसवाल
ग़ज़ल-
जब कभी ज़ीस्त पर कोई बार आ गया
नाम लेते ही उनका क़रार आ गया
आप खोये हुए हैं कहाँ देखिये
आप के दर पे इक बेक़रार आ गया
बहरे-ताज़ीम पैमाने उठने लगे
मयकदे में कोई मयगुसार आ गया
आपके ख़ैरमक़्दम के ही वास्ते
देखिये मौसम-ए-पुरबहार आ गया
आप क़समें न खायें हमारी क़सम
छोड़िए छोड़िए ऐतबार आ गया
जब अचानक कहीं कोई आहट हुई
यूँ लगा हासिल-ए-इंतज़ार आ गया
दो क़दम जब भी मंज़िल की जानिब चला
उड़ के आँखों में *साग़र* ग़ुबार आ गया
🖋️विनय साग़र जायसवाल
ज़ीस्त-
बार-बोझ ,भार
बहरे-ताज़ीम-स्वागत हेतु
मयगुसार-रिंद ,मयकश ,शराबी
ख़ैरमक़्दम-स्वागत ,
पुरबहार -बहारमय ,बहारो से भरपूर
ग़ुबार-धूलकण
एस के कपूर श्री हंस
[22/03, 9:17 am] +91 98970 71046: *।।ग़ज़ल।। ।। संख्या 37।।*
*।।काफ़िया।। अता ।।*
*।।रदीफ़।। नहीं है ।।*
*बहर-1222-1222-122*
1
हमारा मन वहाँ लगता नहीं है।
जहाँ पर तू हमें दिखता नहीं है।।
2
सिवा तेरे हमारा दिल किसी का।
कभी भी रास्ता तकता नहीं है।।
3
तुम्हारे हुस्न की रंगत के आगे।
कोई भी रंग अब फबता नहीं है।।
4
हमारा जोशे-दिल देखो ख़ुदारा।
तलाश-ए-यार में थकता नहीं है।।
5
हमारा पाँव गलियों में तुम्हारी।
अभी भी जाने से रुकता नहीं है।।
6
हैं हम तुम जिस्म दो पर जान इक हैं।
अलग अब कोई कर सकता नहीं है।।
7
है तेरे हाथ में साँसों की डोरी।
हमारा ज़ोर कुछ चलता नहीं है।।
8
नहीं हो *हंस* जब तुम साथ मेरे।
नज़ारा कोई भी जचता नहीं है।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।।।।*
मोब।।।।। 9897071046
8218685464
[22/03, 9:17 am] +91 98970 71046: *।।ग़ज़ल।। ।।संख्या 12।।*
*।।काफ़िया।। आये।।*
*।।रदीफ़।। हो गए।।*
हम अपने घर में ही आज पराये हो गए।
हमारे पौधेआज दूजों के लगाये हो गए।।
अजब गजब किस्मत ने ऐसा खेल खेला।
हमारे बताये रास्ते दूजों के दिखाये हो गए।।
गर्दिश में सितारे घिरे कभी न किसी के।
पत्थर से नाम हमारे ही सफाये हो गए।।
जिस महफ़िल के सदर थे हम कभी।
आज उस अंजुमन में सर झुकाये हो गए।।
गम नहीं है फिर भी कोई हमको।
अपनों के बीच हम जैसे भुलाये हो गए।।
*हंस* जिन रास्तों को सजाया हसीन सपनों से।
उन्हीं पर सरे राह हम लुटे लुटाये हो गए।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।।।।*
मोब।।।।। 9897071046
8218685464
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
*कुण्डलिया*
देना कभी न चाहिए,दुष्ट जनों का साथ,
दूषित करते बुद्धि ये,अपयश आता हाथ।
अपयश आता हाथ,हँसाई होती जग में,
थू-थू करते लोग,नहीं कुछ रहता वश में।
कहें मिसिर हरिनाथ,समझ इसको है लेना,
करो बुद्धि से काम,न साथ दुष्ट का देना।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
*कुण्डलिया*
साँच मीत होता वही, जो दे उचित सलाह,
पाप-कर्म से रोक कर,कह सुकर्म पे वाह।
कह सुकर्म पे वाह,गूढ़ को सदा छुपाता,
करे मदद जब गाढ़,व वादे सभी निभाता।
कहें मिसिर हरिनाथ,है मिलती उसको जीत,
बने बिगड़ता काम,यदि मिला साँच हो मीत।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
वंदना शर्मा बिंदु देवास मध्य प्रदेश
नाम वंदना शर्मा ।। विंदू।।
पति का नाम रमेश चंद्र शर्मा
पिता स्वर्गीय कवि श्री कैलाश नारायण जी रावत
मां श्रीमती सरोज देवी रावत
जन्म 8 अप्रैल
जिला देवास म . प्र.
प्रकाशन विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओ का प्रकाशन व सम्मान नईदुनिया मि लेख पत्र व रचनाएं प्रकाशित
सम्मान ऑनलाइन कवि सम्मेलन मैं पुरस्कृत
ऑनलाइन श्लोक वाचन
हिंदी साहित्य लहर
अग्निशिखा मंच
काव्य धारा
साहित्य वसुधा
श्री नवमान साहित्य सम्मान
शुभ संकल्प आदि में सम्मान प्राप्त हुआ है
व्यवसाय हाउस वाइफ रचनाकार कवित्री
मालवी लोकगीत, वाह बुंदेली लोकगीत
विचारधारा धार्मिक राष्ट्रवादी
स्थाई पता देवास जिला मध्य प्रदेश
52 सर्वोदय नगर देवास
पंछी
वो पंख कहां से लाऊं
मैं बन पंछी उड़ जाऊं
तोड़ के सब जंजीरों को
मैं स्वतंत्र हूं जाऊं
वो पंख कहां से लाऊं
मैं बन पंछी उड़ जाऊं
ना रोके टोके कोई
जब मैं पंख फैलाऊं
अपने मन में मस्त
मैं गीत खुशी के गांऊ
वो पंख कहां से लाऊं
मैं बन पंछी उड़ जाऊं
कभी डाल डाल
कभी पात पात
कभी चहेक चहेक
मौजों को गले लगाऊं
वो पंख कहां से लाऊं
मैं बन पंछी उड़ जाऊं
डरती हूं इस दुनिया से
कहां कौन ताक में बैठा हो
मीठे बोल फेंक के दाना
जाल बिछाए बैठा हो
कौन है अपना कौन पराया
मुश्किल है पहचानना
अपना बनकर कसे शिकंजा
मुश्किल है इनसे बचना
वो पंख कहां से लाऊं
मैं बन पंछी उड़ जाऊं
वंदना शर्मा बिंदु देवास मध्य प्रदेश
मौसम
यूं ही नहीं मौसम बदलते हैं बार-बार
तुमसे मिलन को नैना झरते हैं बार-बार।
आंचल जो मेरा भीगे जैसे हुई बरसात
यूं ही नहीं मौसम बदलते हैं बार-बार।
सावन के पड़े झूले अमवा की डाल पे
लग रहे हैं मैंले तीज त्यौहार के
तुमसे मिलन की आस जो मन में जगी आज
उमड़ घूमड़ प्रेम ले मन में हिलोरें।
जैसे बसंत आने का संदेश भेजते
यूं ही नहीं मौसम बदलते हैं बार-बार
तुम्हारे रंग में जब रंगने लगी में
सब रंग प्यारे लगने लगे अपने आप में
फागुन में रंग रहा हो जैसे तन मन मेरा
भीग रहा आंचल तुम्हारे रंग में।
ले रही अंगड़ाइयां उमंगे बार-बार
यूं ही नहीं मौसम बदलते हैं बार-बार
वंदना शर्मा बिंदु देवास मध्य प्रदेश
गुड़िया
मैं माटी की गुड़िया
काची गार की पुड़िया।
मारो कोख में ना बाबा
मैं काची गार की पुड़िया।
भाग लिखवा के लाई में
जरा अपनाओ तो बाबा।
मैं माटी की गुड़िया
काची गार की पुड़िया।
नहीं मैं कम किसी से हूं
जरा आजमाओ तो बाबा।
नहीं बेटे से कम होती है
बेटियां जान जाओगे।
बेटा कुल का दीपक है
तो दो कुल तारती बिटिया।
करेगी नाम रोशन वो
जरा सा मान दो बाबा।
मैं माटी की गुड़िया
काची गार की पुड़िया
मैं माटी की गुड़िया।
वंदना शर्मा बिंदु
देवास मध्य प्रदेश।
रिश्ते
कुछ सुलझे कुछ उलझे, तुम संग मेरे रिश्ते
कुछ रह गए , अनसुलझे से रिश्ते ।
जीवन अगर मिला है पिता से,
तो पहचान हमको, मिली है तुम्हीं से।
कुछ खट्टे कुछ मीठे, तुम संग मेरे रिश्ते
कुछ रह गए , फीके फीके से रिश्ते।
कुछ खोया कुछ पाया, मिलकर के तुमसे
जीवन में ठहराव, आया तुम्हीं से।
कुछ तोरे कुछ कड़वे, तुम संग मेरे रिश्ते
कुछ रह गए कटुक , कसैले से रिश्ते।
विरासत में मिले , संस्कार पिता से
सम्मान हमको , मिला है तुम्हीं से।
कुछ चटपटे, नमकीन, तीखे से रिश्ते
कुछ रह गए , खारे खारे से रिश्ते।
इकरार इनकार , में बीता जमाना
चलता रहा , जीवन का फसाना।
कुछ गरम कुछ नरम , तुम संग मेरे रिश्ते
कुछ रह गए , ठंडे-ठंडे से रिश्ते ।
कुछ झन्नाए कुछ सन्नाए , तुम संग मेरे रिश्ते
कुछ रह गए, सरसरा के ये रिश्ते।
तार से तार आपस में, उलझे हों जैसे
कुछ रह गए , फड़फड़ा के ये रिश्ते।
जब से जुड़े तार , रिश्तो के तुमसे
तभी से जतन से ,सहेजें हैं हमने।
नाजुक बड़े , ये अनोखे है रिश्ते
कुछ सुलझे ,कुछ उलझे ,तुम संग मेरे रिश्ते।
वंदना शर्मा बिंदु
देवास।
मास्क
बच्चों की खुशियां परिवार की जिम्मेदारी
एक छोटा सा मास्क है जिंदगी तुम्हारी।
अपनों के प्रति वफादारी बखूबी निभाएंगे
इसलिए एक छोटा सा मास्क लगाएंगे।
खुद जागे औरों को जगायेंगे
खुद बचे औरों को बचाएंगे
अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाएंगे
एक छोटा सा माइक हम भी लगाएंगे।
जिंदगी बहुमूल्य है इसे बचाएंगे
एक छोटा सा मास्क हम भी लगाएंगे
बाहर खड़ी पुलिस वो भी बड़ी सजग
कोरोना से बचाने तैयार है सदैव।
साथ हो तुम्हारा तो जीत लेंगे जंग।
करना नहीं है कुछ भी बस मास्क है लगाना
बस हाथ धोते रहना और मास्क है लगाना
थोड़ी सी दूरी रखना खुश रहना जिंदगी में
एक छोटा सा मास्क है जिंदगी तुम्हारी
एक छोटा सा मास्क है जिंदगी तुम्हारी।
वंदना शर्मा बिंदु देवास मध्य प्रदेश
।
विनय साग़र जायसवाल
ग़ज़ल -
पहले दूजे का कुछ तो भला कीजिए
फिर तवक्को किसी से रखा कीजिए
हुस्ने मतला--
यह इनायत ही बस इक किया कीजिए
हमसे जब भी मिलें तो हँसा कीजिए
साथ लाते हैं क्यो़ सैकड़ों ख्वाहिशें
हमसे तन्हा कभी तो मिला कीजिए
हाल मेरा ही क्यों पूछते हैं सदा
अपने बारे में कुछ तो लिखा कीजिए
आपको है हमारी क़सम हमनफ़स
हमसे कोई कभी तो गिला कीजिए
आप भी और बेहतर कहेंगे ग़ज़ल
दूसरे शायरों को पढ़ा कीजिए
आप *साग़र* की ग़ज़लों में हैं जलवागर
थोड़ा बनठन के यूँ भी रहा कीजिए
🖋️विनय साग़र जायसवाल बरेली
20/3/2021
निशा अतुल्य
कविता दिवस
मुक्त विधा
21.3.2021
कुछ जीवित रखने के लिए
उनका परिष्कृत होना जरूरी है ।
जब से ये विचार मन में आया
मैं स्वयं को रचनाकार समझ बैठी
क़लम उठाया चंद अक्षरों को जोड़
कुछ पंक्तियां रच डाली ।
और निराला,महादेवी के समक्ष
ख़ुद को समझने की हिमाकत कर डाली ।
न वो गूढ़ता न कोई सन्देश
बस कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा,
एक कविता का शीर्षक गढ़ा
अपने को रचनाकार घोषित कर दिया।
ऐसे नहीं बन जाता है कोई भारतेंदु,
जयशंकर प्रसाद,सुभद्रा
संयोजन करना पड़ता है वर्णों से
भावों का और किसी उद्देश्य का ।
एक जन चेतना का
और किसी की विषमताओं का
किसी दर्द का,किसी उल्लास का।
लेखनी सार्थक तब ही होती है
जब कोई किसी का दर्द अपने शब्दो में ढाल
आईना दिखाता है समाज का ।
और हम जैसे खरपतवार क्या सच में
काबिल है आज का दिवस मनाने को
कविता तुम में भाव जरूरी है
एक चेतना और आईना
जब तक न बन पाए शब्दों से
लेखन कैसा भी हो निरर्थक है ।
और कविता दिवस की सार्थकता
मीरा,सूर,कबीर,रहीम,महाश्वेता,अमृतासंदेशवाहक तक सीमित है ।
स्वरचित
निशा"अतुल्य"
डॉ बीके शर्मा
"चल साकी"
"""""""""""""""""
पग-पायल झनकार लिए आ
नयनों में कटार लिए आ
भला बुरा यह कहती दुनिया
पल दो पल तू प्यार लिए आ
रोना-गाना तो दुनिया में
यूं ही चलता रहता है
लगता आंगन छोटा मुझको
तू सारा संसार लिए आ
आने वाला जग जाता यहां
जाने वाला सो जाता
तेरा मेरा संबंध यहां है
सांसों के दो तारे लिए आ
एक दूजे का हाथ थाम कर
एक दूजे की बात मानकर
"चल साकी" इस जगती से
चलने को रफ्तार लिए आ
डॉ बीके शर्मा
उच्चैन भरतपुर( राजस्थान)
9828863402
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
*कविता-दिवस*(21मार्च)
कविता
कविता नहीं मात्र कल्पना,
भाव गहन गहराई है।
भाव-सिंधु में कवि-मन डूबे-
यह मोती उतिराई है।।
जीवन का हर रंग घुला जब,
मिला ढंग हर सुख-दुख का।
सुबह-शाम पंछी का कलरव,
बना गान जब कवि-मुख का।
बहे जो अक्षर-सरिता बन कर-
वही सत्य कविताई है।।
कविता नहीं मात्र कल्पना,भाव-गहन गहराई है।।
गगन में उड़ता देख परिंदा,
कवि-मन उसे पकड़ लेता।
खिले फूल को देख चमन में,
झट-पट उसे जकड़ लेता।
भूखे बालक की पीड़ा में-
कविता जगह बनाई है।।
कविता नहीं मात्र कल्पना,भाव-गहन गहराई है।।
अवनि दहकती है ज्वाला से,
जब-जब अत्याचारों की।
अबला की जब अस्मत लुटती।
कुत्सित सोच-विचारों की।
बन कटार तब प्रखर लेखनी-
कविता-धार बहाई है।।
कविता नहीं मात्र कल्पना,भाव-गहन गहराई है।।
जब भी दुश्मन वार किया है,
सीमा के रखवालों पर।
वीर राष्ट्र के सैनिक अपने,
देश-भक्त मतवालों पर।
क्रांति-भाव का बन कवित्त यह-
विजयी बिगुल बजाई है।।
कविता नहीं मात्र कल्पना,भाव-गहन गहराई है।।
कवि-उर की यह भाव बहुलता,
यह उड़ान मन-भावन है।
सर्दी-गर्मी हर मौसम में,
यह तो फागुन-सावन है।
कविता की ही बोली-भाषा-
भाषा की प्रभुताई है।।
कविता नहीं मात्र कल्पना,भाव-गहन गहराई है।
भाव-सिंधु में कवि-मन डूबे,यह मोती उतिराई है।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
डॉ.राम कुमार झा निकुंज
दिनांकः २१.०३.२०२१
दिवसः रविवार
विधाः स्वच्छन्द (दोहा)
विषयः स्वच्छन्द
शीर्षकः रंगरसिया राधा रमण
वंदन पूजन हरि चरण , अर्पण जगदानन्द।
राधा नटवर प्रिय मिलन , ब्रज होली आसन्द।।१।।
राधा माधव मोहिनी , करूँ रंग शृङ्गार।
खेलूँ होली साथ में , जननी जग आधार।।२।।
मन मुकुन्द राधा प्रिया , प्रीति भक्ति रसधार।
गाऊँ महिमा श्रीधरन , हो जीवन उद्धार।।३।।
कंठहार माधव सुभग , कौस्तुभ मणि गोपाल।
मनमोहन सरसिज वदन , कोमल गाल रसाल।।४।।
पीतवसन मुखचन्द्र रस , माधव मत्त मतंग।
ललित कलित यशुमति तनय, होली रंग तरंग।।५।।
सुष्मित सुरभित राधिके ,मधु माधव मन मोर।
भींगी तन मन प्रेम जल , मुरलीधर चितचोर।।६।।
मतवाली सब गोपियाँ , लेकर गाल गुलाल।
रंगरसिया राधा रमण , रंग लगायी भाल।।७।।
चढ़ा रंग गोविन्द मन , खेले होली मस्त।
जोगीरा मधुगान से , ग्वाल बाल उन्मत्त।।८।।
नंदलाल लखि नंद को ,प्रमुदित यशुमति अम्ब।
लीलाधर रच रास को , मुदित जगत अवलम्ब।।९।।
मातु यशोदा कृष्ण लखि, खोयी सुख आनंद।
लखि मुकुन्द माँ नेह को , खिला हृदय मकरन्द।।१०।।
माधव मधुवन माधवी , रंजित फागुन रंग।
राधा मुख रस माधुरी , पीकर थिरके अंग।।११।।
ब्रजवासी मधुमत्त लखि , राधा नटवर लाल।
गाये फगुआ गान नँच , रंग लाल गोपाल।।१२।।
राधा माधव मधुमिता , मन मुकुन्द अभिराम।
खेली होली मीत मन , पा श्रीधर सुखधाम।।१३।।
राधा वल्लभ शुभ मिलन, फागुन मास निकुंज।
ब्रजभूषण दर्शन सफल, व्रज होली सुख पूँज।।१३।।
समरसता के रंग में , सराबोर त्यौहार।
होली मानक एकता , सद्भावन उपहार।।१४।।
मधुरिम वन मधु माधवी , मुकुलित चारु रसाल।
फागुन के नवरंग से , सरसिज गाल गुलाल।।१५।।
रीति प्रीति नवनीत मन , होली समरस गीत।
प्रगति सुरभि बन खुशनुमा , सहयोगी सद्मीत।।१६।।
धन्य धन्य जीवन सफल, कृष्ण साथ व्रजवास।
धन्य भूमि लखि भारती , राधा कृष्ण विलास।। १७।।
सुखद शान्ति खुशियाँ सकल, होली रंग बयार।
राधा मोहन भज मनसि , फागुन मास बहार।।१८।।
कवि निकुंज अभिलाष मन,राधा कृष्ण ललाम।
हो दर्शन होली मिलन , राधा प्रिय घनश्याम।।१९।।
कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नई दिल्ली
डॉ बी.के. शर्मा
विश्व जल दिवस
============
22 मार्च 2021 के उपलक्ष में
जल ही जीवन है
============
"जल ही जीवन है" ऐसा कहते हैं लोग |
फिर भी आंख बंद करके रहते हैं लोग ||
आज बहालो तुम फिर तरसोगे जल के लिए |
क्यों नहीं बचाते हो इसे आने वाले कल के लिए ||
"जल से ही कल है" ऐसा कहते हैं लोग |
फिर भी आंख बंद करके क्यों रहते हैं लोग ||
कल को जिंदगी का हंसी पल बना लो |
व्यर्थ में बहते हुए जल को बचा लो ||
"जल ही जीवन का हल है" ऐसा कहते हैं लोग |
फिर भी आंख बंद करके क्यों रहते हैं लोग ||
क्यों ना मेरी बात पर कोई करता अमल है |
इधर भूगर्भ में बड़ी हलचल है ||
"जल से ही सकल है" ऐसा कहते हैं लोग |
फिर भी आंख बंद करके क्यों रहते हैं लोग हैं ||
अगर है शर्म तो आंखों का पानी बदल दो |
मेरी बात को थोड़ा सा अमल दो ||
'जल नहीं तो कल नहीं" ऐसा कहते हैं लोग |
फिर भी आंख बंद करके क्यों रहते हैं लोग ||
डॉ बी.के. शर्मा
उच्चैन भरतपुर राजस्थान
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
*सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-44
कहे तुरत सिवसंकर दानी।
तुमहिं न जनम-मरन-दुख हानी।।
मानउ सत्य मोर अस बानी।
मिटै न तोर ग्यान खगप्रानी।।
पहिला जनम अवधपुर तुम्हरो।
पायो राम-भगति तुम्ह सगरो।।
द्विज-अपमान व संत-निरादर।
यहि मा नहिं भगवान-समादर।।
जे बिबेक अस मन मा रखही।
नहिं कछु जग मा दुर्लभ रहही।।
अस मुनि-बचन हरषि गुरु तहऊ।
एवमस्तु कह निज गृह गयऊ ।।
प्रेरित काल बिन्ध्य-गिरि जाई।
रहेउँ भुजंग जोनि सुनु भाई।।
तब तें जे तन मैं जग धरऊँ।
बिनु प्रयास तजि नव तन गहऊँ।।
जे-जे तन धरि मैं जग आऊँ।
राम-भजन नहिं कबहुँ भुलाऊँ।।
बिसरै नहिं मोहिं गुरू-सुभावा।
कोमल-मृदुल नेह जे पावा ।।
द्विज कै जनम अंत मैं पाई।
लीला लखे बाल रघुराई।।
प्रौढ़ भए पठनहिं नहिं भावा।
जदपि पिता बहु चहे पढ़ावा।।
राम-कमलपद रह अनुरागा।
नहिं कछु औरउ मम मन लागा।।
कहु खगेस अस कवन अभागा।
कामधेनु तजि गर्दभि माँगा ।।
इषना त्रिबिध नहीं मन मोरे।
संपति-पुत्र-मान जे झोरे ।।
सतत लालसा रह मन माहीं।
कइसउँ दरस राम कै पाहीं।।
गिरि सुमेरु तब बट-तरु-छाया।
मुनि लोमस आसीनहिं पाया।।
तातें सुने ब्रह्म-उपदेसा।
अज-अनाम प्रभु अछत खगेसा।
निरगुन रूप ब्रह्म नहिं भावा।
ब्रह्म समग्र सगुन मैं पावा ।।
राम-भगति-गति जल की नाई।
मम मन-मीन रहहि सुख पाई।।
दोहा-सगुन रूप मैं राम कै, निरखन चाहुँ मुनीस।
करु उपाय कछु अस मुनी,देखि सकहुँ प्रभु ईस।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
चंचल हरेंद्र वशिष्ट,हिंदी प्राध्यापिका,थियेटर शिक्षक एवं कवयित्री
रचनाकार का नाम: श्रीमती चंचल हरेंद्र वशिष्ट
माता का नाम: श्रीमती माया देवी शर्मा
पिता का नाम: श्री भूषण दत्त शर्मा 'कश्यप'
पति का नाम: श्री हरेन्द्र देव वशिष्ट
जन्मस्थान: बनखंडा,जिला हापुड़,उत्तर प्रदेश,भारत
शिक्षा: एम.ए.-हिंदी, एम.एड.,
पोस्ट एम ए हिंदी लिंग्विस्टिक डिप्लोमा कोर्स,(केंद्रीय हिंदी संस्थान) नई दिल्ली
थियेटर एप्रीसिएशन कोर्स( राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) नई दिल्ली
उर्दू सर्टिफिकेट कोर्स ( दिल्ली उर्दू अकादमी) दिल्ली
व्यवसाय: हिंदी भाषा प्राध्यापिका(सेंट एंथनी सीनियर सेकेंडरी स्कूल,नई दिल्ली )हिन्दी विभागाध्यक्षा एवं थियेटर प्रशिक्षक।
रंगमंच विशेषतः नुक्कड़ नाटकों से सम्बद्ध।
प्रकाशित रचनाओं की संख्या: विद्यालय पत्रिका में समय-समय पर बहुत सी रचनाएं प्रकाशित।
विभिन्न समाचारपत्रों में रचनाएं प्रकाशित।
प्रकाशित एकल पुस्तकें: अभी कोई नहीं,
पहली पुस्तक प्रकाशन की प्रक्रिया में।
साझा काव्य संग्रह: अभी तक पांच साझा काव्य संग्रह में रचनाएँ प्रकाशित।
विश्व हिंदी संस्थान,कनाडा, विश्व हिन्दी रचनाकार मंच, महिला काव्य मंच, दक्षिणी दिल्ली इकाई की सक्रिय सदस्य, ट्रू मीडिया तथा चित्रगुप्त प्रकाशन समूह से संबद्ध।
ऑल इंडिया हिन्दी उर्दू एकता ट्रस्ट (रजि) से सम्बद्ध एवं अनेक साहित्यिक संस्थाओं से संबद्धता।
काव्य पाठ : विद्यालय तथा अनेक मंचों पर काव्यपाठ।
विद्यालय में विभिन्न उत्सवों एवं कार्यक्रमों में मंच संचालन,संयोजन आदि।
गतिविधियां: समाज सेवा, हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार एवं उत्थान हेतु प्रयासरत,
नुक्कड़ नाटकों का आयोजन एवं निर्देशन आदि , हिन्दी भाषा ज्ञान कक्षाएं आदि।
सम्मान: महिला काव्य मंच, गाजियाबाद इकाई द्वारा सम्मान पत्र,
चित्रगुप्त प्रकाशन द्वारा हिन्दी दिवस पर रचना एवं एक आलेख के लिए विशेष सम्मान पत्र ,
आॅल इंडिया हिन्दी उर्दू एकता मंच की ओर से साहित्य साधना सम्मान पत्र एवं अनेक सम्मान पत्र, सहभागिता पत्र आदि।
विशेष गौरवपूर्ण: मेरी स्वरचित दो रचनाएँ अंतर्राष्ट्रीय काव्य प्रेमी मंच पर काव्य सृजन एवं काव्य पाठ के माध्यम से गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज़!
ऑनलाइन काव्य गोष्ठियों में प्रतिभागिता,यूट्यूब पर आॅडियो,वीडियो काव्य प्रसारण आदि।
विशेष: विभिन्न मंचों पर स्वरचित सरस्वती वंदना गायन,काव्य की अलग अलग विधा में
रूचि: हिन्दी साहित्य पठन, विशेषकर काव्य विधा में लेखन, कविता एवं पटकथा लेखन, रंगमंचीय गतिविधियां।
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चंचल हरेंद्र वशिष्ट, हिन्दी विभागाध्यक्षा,
हिन्दी प्राध्यापिका,थियेटर प्रशिक्षक, कवयित्री एवं समाज सेवी
आर के पुरम,नई दिल्ली
9818797390
' उठो! राष्ट्र के वीर '
उठो! राष्ट्र के वीरों,तुम गरजो और हुंकार भरो
जो आंख उठे हिंद की ओर तुम उसका संहार करो
हम अमन ,शांति के वाहक हैं, युद्ध नहीं नीति अपनी
पर जो जैसी भाषा बोले उस पर वैसा ही वार करो।
रिपु दमन को समर क्षेत्र में,निज प्राण हथेली पर रखकर
अर्जुन सम लक्ष्य साधकर तुम,कर्मपथ स्वीकार करो
युद्धवीर तुम, कर्मवीर तुम, अतुलित महाबली तुम
तान के सीना रण में , अरि के सीने पर वार करो।
उठो! देश के नव प्राण,दिखा दो ताकत उस शत्रु को
अपनी सबल भुजाओं से शत्रु दल पर प्रहार करो
मातृ भूमि की आन, बान और शान बचाए रखने को
मिट्टी में मिलाकर शत्रु,निज माटी पर प्रत्युपकार करो।
चुनौतियों की चट्टानों को अदम्य साहस से भेद के तुम
शत्रु की कुटिल नीतियों पर,तुम फ़ौलादी वार करो
वंदे मातरम् और जय हिंद,सज़ा के अपने मस्तक पर
जोश की ज्वाला उर में भरकर,पैनी तलवार की धार करो।
महाराणा,सुभाष के तुम वंशज,धीर,वीर और पराक्रमी
याद करो अपनी आज़ादी,फिर से आज ललकार करो
विजय तिलक और गौरव गान से मातृभूमि सुशोभित हो
लहरा के अपनी विजय पताका,भारत की जय जयकार करो।
स्वरचित एवं मौलिक रचना:
चंचल हरेंद्र वशिष्ट,हिन्दी भाषा शिक्षिका,रंगकर्मी एवं कवयित्री
आर के पुरम,नई दिल्ली
9818797390
शीर्षक: कलम की तकदीर
मैं तो माँ वाणी का वरदान मानी गई हूं पर... क्या हुआ है मेरी तक़दीर को.... ?
यही सोचकर...
यही सोच करके ...वो
कलम भी आज फूट फूट कर रोई है
क्या लिखूं फिर से वही कुकृत्य ?,
क्या लिखूं बेबसी पीड़िता की?
क्या फिर से लिखूं लचर प्रशासन और सुस्त कानून,
क्या लिखूं दरिंदगी इन वहशियों की?
क्या यही रह गया लिखने को?
क्या ये वही हिंद नहीं,जहां मैंने लिखी गौरव गाथाएं वीरांगनाओं की और विदुषियों की विद्वता के बखान किए?
तो क्यूं आज मैं समाज की कालिख पर स्याही बिखेरने के काम आती हूं?
क्यूं नहीं टूट जाती मैं ये सब लिखने से पहले?
क्यूं नहीं लिख पाती मैं इन दुष्कर्मियों की सज़ा ए मौत का ऐलान...तुरंत?
क्यूं रुकती, लड़खड़ाती हूं बार बार न्याय दाताओं के हाथ में?
मैं सिर्फ़ कहानी, किस्से,कविता और लेख लिखने के लिए ही तो नहीं, मैंं इंसाफ़ ,हक, सत्य और सज़ा देने के लिए भी तुम्हारे हाथ में हूं,....
तो क्यूं नहीं लिखते वो जो सच है जो न्याय संगत है ?
इसलिए आज कहती है ये कलम कि कितने भी कुकृत्य लिख लो इनके ,कितनी भी शर्म दिलाओ इन्हें
कितनी भी थू थू करो,कितनी भी सज़ा दिलाओ इन्हें,
अपनी मां का दूध लजाने वालों को लाज कहां आती है?
इनके कुकृत्यों पर तो धरती माँ भी थर्राती है
इन बेशर्मों का केवल एक ही इलाज है
सौंप दो इन्हें ,इनकी सज़ा खुद समाज है
जनता की कोई सुनवाई नहीं,कानून भी लचर है
जनता हिसाब कर देगी तुरंत ही ,पुलिस,कोर्ट सब बेअसर हैं
सरकारी राशन मुफ्त उड़ाते रहते, सालों तक पड़े पड़े ये
फिर भी बच जाते, अनुकूल दण्ड न पाते ये,
उल्टा लटका के नंगा,इनकी चमड़ी उतारो
तड़पने दो इन्हें, जान से न मारो।
चील,कौओं,गिद्धों के सामने छोड़ दो
इनके जिस्म का माँस ऐसे ही नोंचने दो।
चंचल हरेंद्र वशिष्ट, हिन्दी भाषा शिक्षिका,रंगकर्मी एवं कवयित्री
नई दिल्ली
'ललकार '
रणचंडी,लक्ष्मी,दुर्गा,काली,मैं ही तो हूँ
लक्ष्मीबाई,सरोजिनी नायडु ,मैं ही तो हूँ
कल्पना भी,किरण बेदी हाँ, मैं ही तो हूँ
माँ ,बहन,बेटी,बहु,पत्नी भी मैं ही तो हूँ
शिवशक्ति,अर्धनारीश्वर में है मेरा स्वरूप
चाँदनी सी शीतल भी,मैं ही हूँ तपती धूप
लेकिन छुपकर जो करता है वहशी पन तू
पहले सुन ओ नीच दरिंदे,मानव तो बन तू
मुझे ज़रा ललकार तो,मत कर यूँ घात तू
मर्द है तो फिर आकर सामने से टकरा तू
कायर और नपुंसक की तरह छुपता है क्यूँ
किसी बात में नहीं है कम नारी,बस देख तू
भुजदण्डों में है ताकत तो जा सीमा पर लड़
देश की खातिर जा सीमा पर दुश्मन से भिड़
मर्दानगी न दिखा , उन औरतों पर तू उदंड
अबला तू कहता जिन्हें हैं वो शक्ति प्रचण्ड।
चंचल हरेन्द्र वशिष्ट,हिन्दी प्राध्यापिका,थियेटर शिक्षक एवं कवयित्री
आर के पुरम,नई दिल्ली
' सत्य पथ पर चल निर्भय '
कदम कदम पर हर मानव की बड़ी परीक्षा होती है
कठिनाई कितनी भी आए विजय सत्य की होती है।
दृढ़संकल्प अगर हो मन में मुश्किल आसां होती है
जीवन की कठिन राह में संयम की ज़रूरत होती है।
पाप,अधर्म,अनैतिकता कभी पर्दे में नहीं छुप सकते
एक न एक दिन इन कर्मों की कीमत चुकानी होती है।
ग़लत राह पर चलकर,कितने भी उठ जाओ ऊंचे
महफ़िल में ख़ुद की नज़रों में गर्दन ऊंची कब
होती है।
जीवन तो है रिश्तों में ही, खून के हों या मुंह बोले
साथ न हो अपनों का गर, ज़िन्दगी अधूरी होती है।
यूं ही नहीं मिला करते,मोती दामन से समंदर के
लहरों से जो टकराते उनकी खाली झोली नहीं होती है।
आँधी हो या तूफ़ान हो चाहे,डटकर जो आगे बढ़ते
पाते वो ही मंज़िल को जिनकी राहें संघर्षरत होती है।
ऊँच नीच की बात हो भले, तुम भयभीत नहीं होना
हर घनी स्याह रात की नित एक भोर सुनहरी होती है।
लूटपाट,बेईमानी से दौलत चाहे लाख कमाई हो
जीवन में ऐसे काले धन से बरकत कभी नहीं होती है ।
जो झूठ की डगर पर चलते,भय उनके भीतर पलता
सच्चाई के पथ पर जो चलते,जीत उन्हीं की होती है
स्वरचित एवं मौलिक रचना
चंचल हरेन्द्र वशिष्ट,हिन्दी भाषा शिक्षिका,थियेटर प्रशिक्षक,कवयित्री एवं समाजसेवी
आर के पुरम,नई दिल्ली
'निकिता हत्या मामला'
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आज के युवक-युवतियों के लिए संदेश!...
समय है सोचने और सँभलने का!....
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प्रेम का फेंककर जाल ये,जीना करते मुहाल हैं।
धर्मांतरण है मक़सद,मुहब्बत तो सिर्फ़ चाल है।
सोची समझी हैे साज़िश,प्रेम की नहीं कोई बात यहाँ
विवाह के नाम पर धर्मांतरण या धर्मांतरण के लिए विवाह ।
नफ़रत की आँधी कैसी भी हो,मासूम निशाना बनते हैं
प्रेम,मुहब्बत के नाम पर कुछ शातिर मोहरे चलते हैं।
अल्हड़ किशोर या युवक युवती, कठपुतली बन जाते हैं
नफरत के व्यापार के नाम पर न जाने कितने ही जान गँवाते हैं।
ये धर्म,मज़हब,संप्रदाय के झगड़े तब तक नहीं मिटेंगे
जब तक कट्टरपंथियों के दिलों में नागफनी खड़े रहेंगे।
खुले घूमते दुर्योधन,दुशासन,लेकिन चेहरों पे मुखौटे हैं
पहचान हुई है मुश्किल,पर नीयत,खयाल सब खोटे हैं।
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर,भ्रमित न हो अब पीढ़ी अपनी
मिलजुलकर रहो समाज में पर,भूलो मत पहचान अपनी।
सचेत हो जाओ नई पीढ़ी ,इस द्युत क्रीड़ा से अब दूर रहो
प्रेम विवाह करो भले ही पर मज़हबी खेल से दूर रहो।
हे!आर्यपुत्र संतानों जागो,निज संस्कृति पर मान करो
अपनी हिंदुत्व परम्परा की जड़ों को सुदृढ़ करो।
हिंदु संस्कृति का संरक्षण करके,निज धर्म का सम्मान करो
गिरगिटों की चाल से बचो ,बुद्धि,विवेक से ध्यान करो।
हिंदु होने पर गर्व करो ,हिंदुत्व का विस्तार करो
हे राम कृष्ण के वंशजों,सत्य सनातन धर्म का प्रसार करो।
चंचल हरेन्द्र वशिष्ट,हिन्दी प्राध्यापिका,थियेटर प्रशिक्षक,कवयित्री एवं समाजसेवी
नई दिल्ली
एक रचना:
' इस बार होली में !'
धुल जाए कलुष हृदय का, इस बार होली में
बह जाए मैल हर मन का ,इस बार होली में।
तेरे -मेरे बीच में न रहे बाकि कोई तकरार
सब शिकवे गिले मिटाना ,इस बार होली में।
तू और मैं भुला दें ,मिलकर बन जाएँ हम
रिश्तों की जंग हटाना ,इस बार होली में।
बातों में ही सुलझा लें ,उलझनें विवादों की
दिल से दिल को मिलाना,इस बार होली में।
मुहब्बत का पैगाम ये ,पहुंचा दो सीमा पार
नफ़रत की दीवार हटाना ,इस बार होली में।
मेरे वीर सैनिकों, तुम शत्रु से खेलो होली
तुम घर की फ़िक्र न करना,इस बार होली में।
जिस थाली में खाएं,उस में ही छेद करें जो
ऐसे गद्दारों से बचना ,इस बार होली में।
राष्ट्रहित में जुट जाएँ,मिलकर के हम सारे
सिर्फ दोषारोपण मत करना,इस बार होली में।
गले लगा लो उनको जिनके अपने बिछड़े हों
किसी आँख से आँसू पोंछना,इस बार होली में
होली का मेरा संदेश तुम घर-घर में पहुंचा दो
स्नेह का गुलाल मलना, इस बार होली में।
स्वरचित एवं मौलिक
चंचल हरेंद्र वशिष्ट,हिंदी प्राध्यापिका,थियेटर शिक्षक एवं कवयित्री
आर के पुरम,नई दिल्ली
सुरेश लाल श्रीवास्तव प्रधानाचार्य , अम्बेडकरनगर
सरस्वती-वन्दना
हे हँसवाहिनी! मातु शारदा!
तुम ज्ञानदा हो मुझे ज्ञान तू दो।
तेरी हो जिस पर कृपा दृष्टि,
उसका व्यक्तित्व विभूषित हो ।।
हे हँसवाहिनी-----------
विमला भी तुम्हीं शारदा हो,
ज्ञान की देवी वागीश तुम्हीं।
जिह्वा पर जिसके उतर गयी,
बन जाये कालिदास वही।।
हे हँसवाहिनी---------
मुझको है धन की भूख नहीं,
वश तेरी कृपा बनी जो रहे।
तुमसे ही सब कुछ साधित है,
तूँ है तो जीवन धन्य बने।।
हे हँसवाहिनी------------
----- रचनाकार----
सुरेश लाल श्रीवास्तव
प्रधानाचार्य
राजकीय इण्टर कॉलेज
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर
उत्तर प्रदेश 224122
मोबाइल न. 09455141000
अर्थ-प्रेम और दिली प्रेम अर्थ से प्रेम जब जब पराजित हुआ,
रिश्ते-नातों का दामन कलंकित हुआ।
दिल धड़कता नहीं अब किसी के लिए,
अर्थ ने इसको जकड़ा स्वयं के लिए ।
जानते हम सभी इस परं राज को,
जिन्दगी तब तलक जब तलक स्वांस है।
जोर इस पर किसी का है चलता नहीं ।
अर्थ-अंकुश भी यहाँ काम आता नहीं।।
जिन्दगी के सफर पर जरा ध्यान दो ,
क्या जरूरत है इस जिन्दगी के लिए।
प्रेम से पूरित जीवन दिली आस हो,
अच्छे कर्मों से संयुत पवित्र भाव हो।
राह जीवन का उसके सहज हो चले ,
प्रेम-पथिकों का मिलता जिसे साथ हो।
अर्थ इतना रहे कि जीवन चलता रहे,
अर्थ सब कुछ नहीं जिन्दगी के लिए।।
अर्थ-प्रेमी कभी दिल से प्रेमी नहीं,
अर्थ ही इनको जीवन का सुख-सार है।
अर्थ-बुनियाद पर प्रेम आसीन है ,
दिल के जज़्बात का अब नहीं जोर है।
माँ-पिता भी पराजित हुए अर्थ से ,
भाई-बहनों का रिश्ता चले अर्थ से।
अर्थ की पूजा होती बड़े चाव से ,
अर्थ सब कुछ हुआ जिन्दगी के लिए।।
अर्थ से प्रेम का है नशा अति बुरा ,।
खूनी रिश्तों में चल जाता जो है छुरा।
इक हक़ीक़त सुनो आज की बात ये,
जंग जो बढ़ चली निज तनय-बापमें।
विरासत को लेकर इस छिड़ी जंग में ,
पुत्र को मार डाला इस सगे बाप ने ।
अर्थ-लिप्सा मेंअब क्या नहीं हो रहा,
बाप के खून से बेटा है नहा रहा ।।
परिवारी रिश्तों में दिली प्रेम,
हर तरफ दिखाई देता था ।
अब अर्थ-प्रेम से ये रिश्ते ,
पग-पग पर साधित होते हैं।।
दादा-दादी के तीर्थाटन की ,
जब बारी घर में आती थी ।
परिवारी जनों के आंखों में ,
प्रेमाश्रु धार बह जाती थी।।
उठ चली परम्परा अब यह भी,
वे बोझ बने परिवारों में । तन शिथिल हुआ जल को तरसें,
रोटी नसीब नहीं पेटों में ।।
दादी-दादा की क्या विसात ,
माँ-बाप भी समझ से परे हुए।
इनका मरना-जीना भी अब ,
निज हानि -लाभ के अर्थ हुए ।।
पत्नी के अति आकर्षण में,
बेटा यदि खिंच जाता है ।
तब सास-ससुर की पूजा में,
उसका मन रम जाता है ।।
अर्थ -दौड़ की महिमा का ,
जो भी बखान वह सब कम है।
पति प्रिय और पत्नी प्रिये रूप,. अब अर्थ से साधित होते हैं ।।
धन लाये तो बेटा बेटा है ,
धन देती बेटी बेटी है ।
धन अर्जन के तौर-तरीकों को,. माँ -बाप कभी न पूँछते हैं ।।
धन-दात्री पत्नी के चरणों में ,
पति प्रेम से शीश झुकाता है।
जब जहाँ कहे बिनु टिप्पणी के,
तब तहाँ उसे पहुँचाता है ।।
दिन भर के क्रिया-कलापों में ,
यदि कहीं चूक हो जाती है ।
पति की क्लास ले पत्नी तब ,
जी भर कर डांट पिलाती है ।
ईश कृपा से यदि दोनों ,
सरकारी सेवा से संयुत है. बातों की जंग तब छिड़ती है,
और प्रेम पराजित होते हैं ।।
त्याग गया सद्भाव मिटा ,
दिली -प्रेम अब दूर हुआ ।
धन -अर्चन में हैं लगे सभी ,
मानवत्व गुणों से वैर बढ़ ।
जीवन के सभी आयामों पर,
अब दिली प्रेम पराजित है ।
अर्थ के सर पर सेहरा है ,
दिली प्रेम उपहासित है ।।.
-------सुरेश लाल श्रीवास्तव ------
प्रधानाचार्य
राजकीय इण्टर कालेज
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर
उत्तर प्रदेश
एस के कपूर श्री हंस
।।ग़ज़ल।। ।।संख्या 32।।*
*।।काफ़िया।। आह।।*
*।।रदीफ़।।देखना चाहता हूँ।।*
*बहर 122-122-122-122*
*संशोधित।।।*
1
तिरी चाह को देखना चाहता हूँ।
हद-ए-वाह को देखना चाहता हूँ।।
2
तू हमराही है मेरा हमजोली भी है।
इसी थाह को देखना चाहता हूँ।।
3.
ग़रीबों की आहों में कितना असर है।
उसी आह को देखना चाहता हूँ।।
4
मज़ा इंतज़ारी में आता है कैसा।
तिरी राह को देखना चाहता हूँ।।
5
गुज़रती है क्या *हंस* उस पर जहां में।
मैं गुमराह को देखना चाहता हूँ।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।*
मोब।।।।। 9897071046
8218685464
।।ग़ज़ल।। संख्या 33 ।।
*।। काफ़िया।। तोड़ने,मोड़ने,छोड़ने*,
*जोड़ने आदि।।*
*।।रदीफ़।। पड़े मुझे।।*
*बहर 221-2121-1221-212*
1
अपने उसूल उसके लिए तोड़ने पड़े ।
ग़लती नहीं थी हाथ मगर जोड़ने पड़े ।।
2
दूजों को आबोदाने कि दिक्कत न पेश हो ।
अपने हक़ो के सिक्के सभी छोड़ने पड़े ।।
3
मुफ़लिस के घर भी जाये मिरे घर की रौशनी।
अपने घरौंदे ख़ुद ही मुझे फोड़ने पड़े ।।
4
तकलीफ़ हो किसी को न मेरे वजूद से ।
यह सोच अपने शौक मुझे छोड़ने पड़े ।।
5
जिस रहगुज़र से *हंस* था मुश्किल भरा सफ़र ।
उस रास्ते पे अपने क़दम मोड़ने पड़े ।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।। 9897071046
8218685464
।।ग़ज़ल।। ।।संख्या 34।।*
*।।काफ़िया।। आर ।।*
*।।रदीफ़।। होती है ।।*
1 *मतला*
शब्द की महिमा अपार होती है।
लिये शक्ति का इक़ भंडार होती है।।
2 *हुस्ने मतला*
हर शब्द की अपनी इक़ पैनी धार होती है।
कि शब्द शब्द से ही पैदा खार होती है।।
3 *हुस्ने मतला*
शब्दों से ही बात इक़रार होती है।
शब्दों से ही कभी बात इंकार होती है।।
4 *हुस्ने मतला*
शब्द की मिठास लज़ीज़ बार बार होती है।
कभी यह तीखी तेज़ आर पार होती है।।
5
किसी शब्द का महत्व कम मत आँकना कभी।
शब्द से शुरू बात फिर विचार होती है।।
6
हर शब्द बहुत नाप तोल कर ही बोलें।
हर शब्द की अपनी एक रफ्तार होती है।।
7
शब्दों का खेल बहुत निराला होता है।
एक ही शब्द बनती व्यपार, व्यवहार होती है।।
8
शब्दों से खेलें नहीं कि होते हैं नाजुक।
कभी इनकी मार जैसे तलवार होती है।।
9
*हंस* शब्द महिमा बखान को शब्द कम हैं।
शब्दों की दुनियाअपने में एक संसार होती है।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।।।*
मोब।। 9897071046
8218685464
क्या लिखूं
क्या लिखूं
कलम हूॅं मुरीद तेरी
तू जो कहे वही बात लिखूं
भीगे हुए जज्बात या
रुठे हुए हालात लिखूं
बिकेंगे गीत किस तरह के
वो अल्फाज लिखूं
तू ही बता ए सफा
आखिर तुझ पर क्या लिखूं
कई बार सोचा स्वयं मुख्तार हूं,लिख दूं जो मन आए
मगर......
सोच में पड़ गई के आखिर
किसकी कहानी ,किसकी
करुणा के गीत के लिखूं
कौन है आज यहाॅं खुश जिनके गुदगुदाते कहकहे लिखूं
जीत का महाकाव्य या
कालजयी कोई गाथा लिखूं
भूली बिसरी यादों के
अफसाने या बीती जवानी की
कोई कहानी लिखूं
पढ़ेगा कौन बता ,किसके
लिए लिखूं
लिखे हुए शब्द बंद सफों में
इक दूजे की रगड़ से ही
घायल हो जाते हैं
या बिन खुले ही जिल्दों में
दीमक की खुराक
बन जाते हैं
पढ़ेगा कौन बता
किसके लिए लिखूं
स्वर्ण की कलम हूं चाहे
लकड़ी की ही सही
आखिर तो चंद सिक्कों
के लिए ही बिकूं*
हॉं सफे की मैं सफा मेरी
जरुरत है
चलो सोचते हैं मिलकर
क्यों,क्या,कैसे ,कब, लिखूं
कलम हूं मुरीद तेरी मैं
तू जो कहे वही बात लिखूं।
(अपवाद को छोड़ कर अधिकांश कलम बेच देते हैं ,किसी के निजत्व पर प्रहार नहीं है🙏)
सम्राट सिंह
एक कविता ऐसा भी...
व्यंग और पर्व का समावेश करने की कोशिश
प्रबुद्ध लोगों से निवेदन की आकलन जरूर करें
भलही के भाग भइल
एहि साल फाग में
मेहरी हेरा गइली
महंगाई के आग में
अच्छा दिन ओझल भइल
अखियां के ओट से
लोरवा अब गिरेलागल
महंगाई के चोट से
सभे लागल बेचे में
अब देशओ बेचाई
देश बेंच के पईसा मिली
तबे नु अच्छा दिन आई
कहे सम्राट सुन एक राग में
भलही के भाग भइल
एहि साल फाग में
मेहरी हेरा गइली
महंगाई के आग में।।
रंग भइल फीका
उमंग भइल फीका
तेल मसाला के महंगाई से
स्वाद भइल फीका
आइल बा चुनाव तब
माहौलवा गर्मात बा
जहाँ जहाँ होखत बा
कोरोना भाग जात बा
कहे सम्राट सुन एहि फाग में
होली नाही मानी
बीत जाइ भागम भाग में
भलही के भाग भइल
एहि साल फाग में
मेहरी हेरा गइली
महंगाई के आग में।।
रात अब दिन लागे
दिन अब रात कहाता
जउन ओकर मालिक कहे
पीछे सब हुवाँ हुवाँ चिल्लाता
लंबा लंबा फेके में
प्रतियोगिता बा अइसन बुझाता
केहू 15 लाख देत बा
त केहू के आलू से सोना निकलाता
कहे सम्राट सुन बस एके राग में
भलही के भाग भइल
एहि साल फाग में
मेहरी हेरा गइली
महंगाई के आग में।।
डीजल पेट्रोल गैस मसाला
ई सब पर महंगाई बा
नेता लोग के छूट मिलल बा
आम जनता पर कड़ाई बा
अबकी होली सुखल जाइ
गरीबवन के समाज के
ढाका भर के लानत बाटे
अच्छा दिन वाला राज के
कहे सम्राट सुन बस एके राग में
भलही के भाग भइल
एहि साल फाग में
मेहरी हेरा गइली
महंगाई के आग में।।
©️सम्राट की कविताएं
सुनीता असीम
आशिकी तुझसे करूं चाहे डगर में डर रखूं।
पार उतरूँ भावनगरी प्रेम को नौकर रखूं।
***
वो जहां का है अगर मालिक तो मैं भी दास हूं।
भीलनी से बेर भी क्यूँ आज मैं चखकर रखूँ।
***
बैर नफरत रोग हैं दुनिया जहां की भीड़ में।
भावभक्ति की खरीदी कर उसे चाकर रखूं।
***
सांवरे की है नहीं तुलना से भी कहीं।
वो तुम्हें अपना बनाएगा यही कहकर रखूं।
***
मैं तड़प अपनी कहूं किससे कन्हैया तुम कहो।
हर घड़ी तन मन मैं अपना हिज़्र में तपकर रखूं।
***
सुनीता असीम
१९/३/२०२१
सोए भाव दिल के जगाते नहीं हैं।
उम्मीदों की किरणें जलाते नहीं हैं।
***
जो पूरे कभी ख्वाब अपने नहीं हों।
सपन ऐसे हम भी सजाते नहीं हैं।
***
भरोसा करो जिनपे दुनिया जहां में।
वही लोग रिश्ते निभाते नहीं हैं।
***
जिन्हें देखके जी रहे थे सदा हम।
वो नज़रें भी हमसे मिलाते नहीं हैं।
***
कसम से हैं कहते कन्हैया मनोहर।
नज़ारे ये तुम बिन तो भाते नहीं हैं।
***
सुनीता असीम
१९/३/२०२१
विनय साग़र जायसवाल
ग़ज़ल-
1.
आपकी जबसे इनायत हो गयी है
ज़िन्दगानी ख़ूबसूरत हो गयी है
2.
तेरी आँखों में जो शोखी देखता हूँ
मुझको उससे ही मुहब्बत हो गयी है
3.
क्या कहूँ मैं इस दिल-ए बेज़ार को अब
हर नफ़स तेरी ज़रूरत हो गयी है
4.
तेरी हर तस्वीर मुझसे कहती है यह
मेरी दुनिया तुझसे जन्नत हो गयी है
5.
रोज़ मिल जाते हैं मिलने के बहाने
किस कदर कुदरत की रहमत हो गयी है
6.
चाहता हूँ पास में बैठे रहो तुम
क्या करूँ इस दर्जा उल्फ़त हो गयी है
7.
आजकल कहने लगा है आइना भी
तेरी मेरी एक सूरत हो गयी है
8.
हो रहे उस और से *साग़र* इशारे
इसलिए मुझ में भी हिम्मत हो गयी है
🖋️विनय साग़र जायसवाल
3/3/2021
डॉ0 हरि नाथ मिश्र
*सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-41
छोट बसन कलिजुग-तन-सोभा।
लघु पट सजि न नारि-मन छोभा।।
नारी-पुरुष काम-रति भोगा।
पति-पत्नी बिरलै संजोगा।।
परदारा-रति-भोग-बिलासा।
रत जे नर सभकर बिस्वासा।।
झपसट-लंपट-भ्रष्ट-आवारा।
कलिजुग महँ पूजै संसारा।।
अपठ-गवाँर-अबोधा पंडित।
दुर्जन मंडित,सज्जन दंडित।।
कलिजुग कै सभ उलटय धारा।
जितै असत्य सत्य जग हारा।
पसुवत रहै आचरन जन-जन।
संकर बरन बढ़हिं जग छन-छन।।
मसलहिं कली बिनू कुसुमाई।
ब्यभिचारी गति बरनि न जाई।।
हतै पती कुलवंती नारी।
पर त्रिय प्रेम करै ब्यभिचारी।।
मातु-पिता-गुरु-गरिमा घटही।
प्रेम-नेह ससुरारिहिं बढ़ही।।
बहु अकाल जन भूखन्ह मरहीं।
कबहुँ-कबहुँ बहु बृष्टिहिं भवहीं।।
भाई भगिनिहिं नहिं पहिचानी।
रीति-नीति अरु प्रीति न मानी।।
कटुक बचन-इरिषा अरु लालच।
उर महँ कलिजुग भरा खचाखच।।
पर निंदक,पर स्त्री-भोगी।
पर तन-सोषक कलिजुग-जोगी।।
जे गति जप-तप पूजा मिलही।
सतजुग-द्वापर-त्रेता जुगही।।
सो गति कलिजुग अपि जन मिलहीं।
जौं हरि-नाम निरंतर जपहीं ।।
दोहा-कलिजुग जुग जग अस अहहि,जेहि मा हरि कै नाम।
भजत तरै भव-सिन्धुहीं,बिनु जप-तप-गुन-ग्राम ।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
*सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-40
कारन कवन बता गुरु नाथा।
पूछा गरुड़ नवा निज माथा।।
नासहि काल सकल जग-जीवा।
नागहिं-मनुज,चराचर-देवा।।
पर तुम्ह काल-गाल नहिं आवहु।
जानि दास निज मोंहि बतावहु।।
सरल-सुसील-सनेह सुभावा।
नहिं तुम्ह महँ प्रभु-प्रेम अभावा।।
कारन कवन काग-तन पायो।
प्रलयहुँ नास न सिवा बतायो।।
मिथ्या बचन न सिव कै होवै।
अह कस संसय मोहें सोवै।।
गरुड़-बचन सुनि बिहँसा कागा।
कह तुम्ह धन्य खगेस सुभागा।।
बहु-बहु जनम मोंहि सुधि आई।
सुनहु गरुड़ तुम्ह मन-चित लाई।।
जप-तप,जगि-दम-दान-बिरागा।
ब्रतहिं-बिबेक,जोग-फल-भागा।।
मिलहिं न बिनु प्रभु-पद-अनुरागा।
स्वारथ बिनु चित प्रभू न लागा।।
नीच प्रेम सज्जन सँग करही।
नीति कहै जब स्वारथ रहही।।
सुंदर-रुचिर पटम्बर ताईं।
सेवहिं कीटहिं प्रान की नाईं।।
ऊँच-नीच तन एक समाना।
जे पूजै अह-निसि भगवाना।।
राम-भजन तन-भेद न जानै।
खग-पसु-नर बिच भेद न मानै।।
नर-तन पाइ क भजन न होवै।
ते जन राम-चरन-सुख खोवै।
प्रथम जनम जब मम जग भयऊ।
कलिजुग घोर अवनि पे रहऊ।।
अवधपुरी महँ मोर निवासा।
सुद्र-जाति पर,सिव-बिस्वासा।
अपर देव-निंदक-अभिमानी।
मैं नित करत रहेउँ मनमानी।
महिमा राम न जानत रहऊँ।
जदपि अवधपुरी महँ भयऊँ।।
जावद उर नहिं प्रभु-अनुरागा।
तावद भगति न चित कोउ लागा।।
परम कठिन कलि-काल कराला।
कपटी-कुटिल-पिचालिन्ह पाला।।
नीति व रीति-धरम कै हानी।
कामी-क्रोधी जन अभिमानी।।
बेद-बिबाद,सुग्रंथन-लोपा।
प्रेमाभावहिं सबहिं सकोपा।।
संत-असंत-बिभेद न कोऊ।
गाल बजाय जे संतइ होऊ।।
अनाचार करि जन आचारी।
साँचा जे पर-संपति हारी।।
मिथ्या भखि जे करै मसखरी।
बड़ गुणवंत कहाय नर-हरी।।
श्रुति-पथ त्यागि निसाचर नाई।
कलिजुग बड़ ग्यानी कहलाई।।
दोहा-खान-पान-अग्यान नर,भच्छ-अभच्छ न बिचार।
भूषन-बसन न सुचि पहिर,कलिजुग बस ब्यभिचार।।
डॉ
सुषमा दीक्षित शुक्ला
आठ मुक्तक पच्चीस मुहावरे
रिश्वतखोरों की मत पूछों ,
ऐसी बाट लगाते हैं ।
मोटी मोटी रकमें लेकर ,
सिर अपना खुजलाते हैं ।
नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली ,
हज को जाती हो जैसे ।
आदर्शों का भाषण देकर ,
बकरा खूब बनाते हैं ।
जिसकी लाठी भैंस उसी की ,
बचपन से सुन आयी ।
बाहुबली से डरते हैं सब ,
कहते भाई भाई ।
काला आखर भैंस बराबर ,
भले न वो कुछ जाने ।
फिर भी उसके सारे अवगुण ,
की होवे भरपाई ।
धोबी के कुत्ते बन जाते ,
अपनों को छलने वाले ।
तिरस्कार का दण्ड भुगतते ,
खुद को ही ठगने वाले ।
अपनों के जो हो न सके हैं,
वो क्या जाने वफ़ा यहाँ ।
अंधकार में घिरते इक दिन ,
वो ढोंगी मन के काले ।
दिल वालों की दिल्ली है,
ये बात सुनी थी यारों ।
रहते यहाँ बिलों में देखो ,
काले नाग हजारों।
आस्तीन के सांप हैं ये सब ,
कब डस लें ये खबर नहीं ।
स्वयं बचो अरु देश बचाओ ,
ढूँढ ढूँढ कर मारो ।
रँगे सियारों से तुम बचना ,
कभी न आना चालों में ।
भोले भाले फँस जाते हैं ,
इनके बीने जालों में ।
ठग विद्या है इनका धंधा ,
चिकनी चुपड़ी बातें हैं।
कौन पीठ में छुरा भोंक दे ,
छुपे हुए ये खालों में ।
मेरी एक पड़ोसन मित्रों,
पति को अपने बहुत सताती ।
घर का सारा काम कराकर ,
पैसे भी उससे कमवाती।
पति कोल्हू का बैल बना है ,
किस्मत को है कोस रहा ।
पत्नी का आदेश न माने ,
बस समझो फिर शामत आती ।
स्वतन्त्रता के दीवानों ने ,
इंक़लाब जब बोला था ।
नवल क्राँति की ज्वाला में ,
तब हर सेनानी शोला था ।
नाकों चने चबाया अरिदल ,
त्राहि त्राहि था बोल उठा ।
नाक रगड़ कर भागे सारे ,
जिस जिस ने विष घोला था ।
वो मेरी आँखों के तारे ,
जो मेरे दो लाल दुलारे ।
रात दिवस मैं नज़र उतारूँ ,
मुझको लगते इतने प्यारे ।
एक हूर है ज़न्नत की तो ,
दूजा भी है चाँद का टुकड़ा ।
मां हूँ ख़्याल रखूँ मैं उनका ,
बन जाते वो भी रखवारे ।
सुषमा दीक्षित शुक्ला
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