डा.नीलम

*नारी का वजूद*


रिश्तो के बहिखाते में
एक पन्ना तो क्या
एक पंक्ति का भी
खाता, मेरे नाम का
न था
हर बार सहेजा
हर कीमत पर,
हर बार मगर 
रिश्तों का खाता
रीता ही रहा
बिटिया,बहना,
माँ,भाभी,दादी-नानी
सब बनकर
सब में बाँट स्नेह
सबको सबका दाय दिया
भर भर झोली
सबको प्यार दिया
हर रिश्ते का खाता
फिर भी खाली रहा
पत्नी,प्रेयसी,रुपसी
मेनका सब ही 
तो मैं बनकर आई
फिर भी नहीं
किसी को लुभा पाई
सदियों से चर्चे में
रही मैं चर्चा बनकर
मगर रिश्ते में ही ना
कभी रहपाई
बाबा ने जब भी
थी रिश्तों की तिजोरी
खोली
पाई-पाई जोड़ी जोभी
भाई-बेटे के 
नाम की पाई
बेटों ने भी 
विदेश-गमन के
नाम लगा दी
सारी कमाई
बूढ़े माँ-बाप का
आसरा बनकर भी
बेगारी तो रही मगर
कभी सहारा ना
कहलाई
बनी सदा औरत ही मैं तो ओढ़ी रिश्तों की चादर
रिश्तों में ही
ढूँढती हूँ आज भी
वजूद अपना।


    डा.नीलम


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