"समर्पण"
बिना भाव के नहीं समर्पण
बिना मंत्र कैसे हो तर्पण ?
मन का नियमित शुद्धिकरण हो
सुन्दर मन बिन नहिं उत्कर्षण।
चलना सीखो सुन्दर बनकर
रहना सीखो मानव बनकर
गन्दे भावों में क्या जीना ?
कहना सीखो गुरुतर बनकर।
देना सीखो दानी बनकर
कर सम्मान सम्मानी बनकर
करो अपेक्षा कभी न मित्रों
जीना सीखो ज्ञानी बनकर।
सहज समर्पण मूल्यवान है
जग प्रेमी ही ज्ञानवान है
सकल वंधनों की दूरी पर-
खड़ा निराला आत्मज्ञान है।
खुद को खो कर बनत समर्पण
परहित में है शिव-आकर्षण
सकल लोक के आत्मसात से
उठता उर में ज्वार सहर्षण।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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