दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल             महराजगंज,

मन 


 


मन ठहरा मन बहता है,


  मन ही मन में कुछ चलता है।


मन के भावों से ही जीवन 


    बन सुन्दर और निखरता है।


 


पल में यहाँ पल में वहाँ 


         मन ही मन में विचरता है।


मन पंछी का उन्मुक्त गगन में,


  चाहों की लम्बी उड़ान भरता है।


 


मन में उठते पीड़ा को 


     मन ही जाने मन समझता है।


हो द्रवित कष्ट हृदय जब 


  आखों से नीर लिये छलकता है।


 


मन चंचल यदि रुक जाये


   तो जीवन संकट बन जाता है।


जीतहार के चक्कर में व्याकुल


      मानव मन ही पीस जाता है।


 


रचना - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


            महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


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