डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-6
क्रमशः......*दूसरा अध्याय*(गीता-सार)
स्थिर जन जग बोलहिं कैसे?
चलहिं-फिरहिं-बैठहिं वइ कैसे??
      सुनि अर्जुन कहँ,कह भगवाना।
       स्थित-प्रज्ञ-पुरुष-पहिचाना।।
होय तबहिं जब त्यागि बासना।
आत्म-तुष्ट-नर-बिगत कामना।।
       राग-क्रोध-भय-स्पृह-नासा।
       स्थिर-बुधि जन रखु बिस्वासा।।
निंदा-स्तुति-उपरि सुभाऊ।
बिगत द्वेष,स्थिर-बुधि पाऊ।।
       स्थिर बुद्धि कच्छपय नाई।
        सकल अंग जिसु सिमट लखाई।।
बिषय-भोग,इंद्रिय-सुख रहिता।
अंग-प्रत्यंग जदपि नर सहिता।।
       रागहिं निबृत-प्रबृत-परमातम।
       होवहि स्थित-प्रज्ञ महातम।।
सुनहु,पार्थ स्थिर-बुधि सोई।
मम महिमा जाकर रुचि होई।।
     विषयासक्ति कामना मूला।
     बिघ्न कामना,क्रोधइ सूला।।
क्रोधहि देइ जनम मुढ़-भावा।
भ्रमित रहहि मन मूढ़-सुभावा।।
      मूढ़-भ्रमित मन बुद्धिहिं नासा।
      ग्यान-अभाव न श्रेयहिं आसा।।
दोहा-पर,जे नर अंतःकरण,रहही तासु अधीन।
        निर्मल हृदयहिं सकल सुख,लहहि उवहि अबिछीन।।
        अस प्रमुदित चित-मनइ नर,लहहि परम सुख जानु।
         सुनहु पार्थ, बुधि-स्थिरहि,यहि जग होय महानु ।।
                            डॉ0हरि नाथ मिश्र
                             9919446372       क्रमशः.......

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