अभिलाषा
क्या भूलूं क्या याद करूं मैं
निश्चित है इस जग से जाना
मन की अभिलाषा बाकी ही रह गया
चलता किंतु रहा जीवन भर
रो रो करके पछताता हूं
सुनहरा अवसर गवां बैठा
बीता अवसर क्या आयेगा
मन जीवन भर पछताएगा
कैसे पूर्ण होगी मन की अभिलाषा
मैं जीवन में कुछ कर न सका
चलता किंतु रहा जीवन भर
झुलस गया तन
झुलस गया मन
भूला सभी उल्लास मैं
किसको सुनाऊं, मैं अपना दुःख
सभी दुःखी है इस संसार में
मन की अभिलाषा बाकी ही रह गया
चलता किंतु रहा जीवन भर
उठते उठते हर दिन सोचता हूं
दिन में होगी कुछ बात नईं
पर हर दिन की तरह
लो दिन बीता, लो रात गई
संघर्ष में टूटा हुआ
दुर्भाग्य से लूटा हुआ
भटका हुआ संसार में
कितना अकेला हूं,आज मैं
क्या भूलूं क्या याद करूं मैं
निश्चित है इस जग से जाना
मन की अभिलाषा बाकी ही रह गया
चलता किंतु रहा जीवन भर
नूतन लाल साहू
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